सोमवार, 20 जनवरी 2020

अंदर के रावण को कैसे जीतें

     हमारे अंदर हमेशा अच्छे और बुरे विचार  आते  और  जाते रहते हैं। हमारी मानसिक अवस्था सदा एक जैसी  नहीं  रहती। परंतु कुछ लोग ऐसे हुए हैं जिन्होंने प्रयत्न पूर्वक इस पर  कार्य किया और अपने अंदर  उठने  वाले  नकारात्मक  और  दुष्टता पूर्ण विचारों को नष्ट कर दिया। उन्होंने  अपने  अंदर  ऐसे  गुण भर लिए कि उनके अवगुण कम ही  नहीं  हुए  बल्कि  नष्ट  हो गए। जब किसी व्यक्ति की यह अवस्था बन जाती है तो  कहते हैं कि उसने अपने अंदर के रावण को जीत लिया है। ऐसे लोगों का संसार और अंतर मन दोनों बैकुंठ रूप  हो  जाते  हैं।  यही दर्शन हमें श्री रामचरितमानस में स्वामी  तुलसीदास जी  ने  भी दिया है।
 स्वामी तुलसी  दास जी द्वारा रचित श्री रामचरितमानस  में श्री राम रावण युद्ध के समय जब विभीषण ने देखा कि  रावण  तो युद्ध के लिए सब प्रकार  की  सामग्री लेकर और रथ पर सवार हो कर आया है और श्री राम जी के पास तो रथ भी नहीं है तो उसने बड़े ही अधीर। होकर, स्नेह  पूर्वक  भगवान राम  जी  से प्रार्थना करते हुए प्रश्न किया कि:-
                नाथ न रथ नहीं तन पद त्राना।
                केहि बिधी जितब बीर बलवाना।।
 हे रघुवीर, रावण तो रथ पर सवार होकर आया है  परंतु आप के पास ना तो कोई रथ है ना शरीर  की  रक्षा के  लिए  कवच है और ना ही पांव में  जूते हैं। ऐसे आप इतने  बलवान  योद्धा को कैसे जीत पाएंगे?
इस पर  विभीषण को उत्तर देते हुए और  संपूर्ण  मानव  जाति को एक संदेश देने के लिए  श्री राम जी ने कहा कि:-
                सुनहुं सखा कह कृपा निधाना।
                जेहिं जय होई सो स्यंदन आना।।
हे मित्र विभीषण , जिस से विजय प्राप्त हो सकती है, मैं  ऐसा रथ ले आया हूँ।
                 सौरज  धीरज तेहिं रथ चाका,
                 सत्य सील दृढ ध्वाजा पताका।
अर्थात इस रथ रथ  की  विशेषताएं यह हैं  कि शौर्य  और  धैर्य इसके दो पहिए हैं। सत्य और  शील (सदाचार) इसके मजबूत  ध्वजा पताका हैं।
                 बल बिबेक दम परहित घोड़े।
                 छमा कृपा समता रजु जोड़े।।
                 ईस भजनु सारथि सुजाना।
                 बिरती चर्म संतोष कृपाना।।
                 दान परसु बुद्धि सक्ति प्रचंडा।
                 बर बिज्ञान कठिन कोदंडा।।
                 अमल अचल मन त्रोन समाना।
                 सम जम नियम सिलीमुख नाना।।
                 कवच अभेद बिप्र गुरु पूजा।
                 एही सम विजय उपाय ना दूजा।।
                 सखा धर्ममय अस रथ जाकें।
                 जीतन कह न कतहुं रिपु ताकें।।
बल, विवेक, दम (इन्द्रियों को नियंत्रण  में  रखना) और  दूसरों का हित इस रथ के चार घोड़े हैं। क्षमा, दया और समता  रूपी  तीन  रस्सियां  हैं जिनसे इनको रथ  के  साथ  जोड़ा  गया  है। ईश्वर  का भजन इसका समझदार सारथी  है।  वैराग्य  ढाल  है और संतोष तलवार है। दान फरसा और बुद्धि प्रचण्ड शक्ति है। विशुद्ध विज्ञान कठिन धनुष है। निर्मल और स्थिर मन तरकश के समान है। शम (मन को नियंत्रण में  करना)  यम  (अहिंसा) और नियम आदि इस तरकश के तीर हैं।  विप्र और  गुरु  जनों की सेवा ही अभेद्य कवच है। इसी से विजय मिलती है।  इसके अतिरिक्त दूसरा कोई उपाय नहीं है। हे मित्र!जिसके  पास  इस प्रकार का धर्ममय रथ है, उसके लिए जीतने को कहीं  शत्रु  ही नहीं है। अर्थात उसका कोई शत्रु रहता ही नहीं है।
           महाअजय संसार रिपु, जीत सके सोई बीर।
           जाकें अस रथ होई दृढ, सुनहुं सखा मतिधीर।।
राम जी  विभीषण को  कहते हैं  कि  हे  धीरबुद्धि  वाले  सखा सुनो, जिस के पास इस प्रकार  का  रथ  है वो तो  महा  अजय संसार रूपी शत्रु (आवागमन का चक्र)  को  भी  जीत   सकता है। अर्थात रावण तो उसके सामने कुछ भी नहीं।
     इस दर्शन से पता चलता है कि हम व्यर्थ ही वाक  युद्ध  के द्वारा अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने  का   प्रयत्न  करते  रहते   हैं। एक दूसरे के प्रति घृणा, द्वेष आदि करते  हुए  भी अपने  आप को पवित्र और  विशुद्ध  दिखाने  का व्यर्थ  प्रयास  करते  रहते हैं। परंतु जो  करना  चाहिए  वो  नहीं  करते।  हमें  यह  समझ लेना चाहिए कि हमें  केवल  अपने आप  को  ही  ठीक  करना है,  दूसरों   को  नहीं  ऊपर   बताए   गुणों  (शौर्य,  धैर्य,  बल, विवेक, दृढता, सत्य, शील (सदाचार)  दम (इन्द्रिय  नियंत्रण),  दूसरों  का  हित  करना, क्षमा,  दया,  समता,  वैराग्य,  संतोष, दान, विशुद्ध वैज्ञानिक  बुद्धि, निर्मल  और  स्थिर  मन, अहिंसा और गुरु जनों कि सेवा का भाव) को धारण करके अपने अंदर के  राक्षस  को  जीत  लेना  है।  इतने  बड़े  ब्रह्मांड  में  इस  से बड़ा और कोई कार्य नहीं है।

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