बुधवार, 20 मई 2020

शिव पुराण ( पूजा विधि तथा उसका फल) लेख संख्या- 6

   शिव पुराण के अनुसार शौणिक आदि ऋषियों के प्रश्न करने पर शिव पूजा विधि के बारे में बात करते हुए श्री सूत जी कहते हैं कि पूर्व काल में ब्रह्मा जी ने नारद जी  को  बताया  था  कि  भगवान शिव का रूप सुखमय, निर्मल एवं सनातन  है।  उत्तम भक्ति भाव से  शिव का  पूजन करने से  मनोवांछित  फलों की प्राप्ति होती है और सभी दुःख दूर होते हैं।
  पूजा करने वाला मनुष्य प्रात:काल ब्रह्म मुहूर्त में  उठकर  गुरु तथा जगदम्बा पार्वती जी के साथ शिव का स्मरण करके तीर्थों का चिंतन एवं भगवान विष्णु का ध्यान  करे।  फिर  ब्रह्मा  का, देवताओं का और संतों आदि का  स्मरण  चिंतन  करके  स्तोत्र पाठ पूर्वक शंकर जी का विधि पूर्वक नाम ले और  फिर  नित्य क्रिया से निवृत होकर धुले हुए  वस्त्र  धारण  करे।  फिर  सुंदर एकांत स्थल में बैठ कर संध्या विधि  का अनुष्ठान  करे।  उसके बाद पूजा का कार्य आरंभ करे।
   मन को सुस्थिर करके पूजा गृह में प्रवेश करे। वहां पूजा  की सामग्री लेकर सुंदर आसन् पर बैठे। पहले  न्यास  आदि  करके क्रमशः महादेव जी की पूजा करे।
   शिव की पूजा से पहले गणेश जी की तथा कार्तिकेय जी की पूजा करे। द्वार पालों की और दिक पालों की  भी  भली  भांति पूजा करके माता जगदम्बा पार्वती जी की पूजा करे  और  तब देवता के लिए पीठ स्थान  की  कल्पना  करे।  अथवा  अष्टदल कमल बनाकर पूजा द्रव्य के समीप बैठे और उस कमल पर ही भगवान शिव को समासीन करे।
   तत्पश्चात तीन आचमन करके पुन: दोनों  हाथ  धोकर,  तीन प्राणायाम करके, मध्यम प्राणायाम अर्थात कुंभक करते समय त्रिनेत्र धारी भगवान शिव का इस प्रकार ध्यान करे ----
उनके पांच मुख तथा दस भुजाएं हैं, शुद्ध  स्फटिक  के  समान उज्जवल कांति है, सब प्रकार के आभूषण उनके श्री अंगों को विभूषित करते हैं तथा वे व्याघ्र चर्म की चादर ओढ़े हुए हैं। इस तरह भावना करे कि मुझे भी इनके  समान  ही  रूप  प्राप्त  हो जाए। ऐसी भावना करके मनुष्य सदा के लिए अपने पापों  को भस्म कर डाले। इस प्रकार भावना  द्वारा  शिव  का  ही  शरीर धारण करके उन परमेश्वर का आवाहन करे और आसन दे।
   शरीर शुद्धि करके मूल मंत्र का क्रमशः न्यास करे अथवा वह सर्वत्र प्रणव से ही शंगन्यास करे। ' ॐ अध्येत्यदि ' रूप से वह संकल्प वाक्य का प्रयोग करके फिर पूजा आरंभ करे।
   वह  पाद्य,अर्घ्य और आचमन के लिए पात्रों को तैयार करके रक्खे और  भिन्न भिन्न प्रकार के नौ कलश स्थापित करे।  उन्हें कुशाओं से ढक कर रक्खे। कुशाओं से ही  जल  लेकर  उनका प्रोक्षण करे। तत्पश्चात वह उन सभी पात्रों में शीतल जल डाले। देख भाल कर उन सब में प्रणव मंत्र के द्वारा  निम्नांकित द्रव्यों को डाले।
   वह खस और चंदन को पाद्य पात्र में रक्खे। चमेली के  फूल, शीतल चीनी, कपूर, बड़  की  जड़  तथा  तमाल - (इन सबको कूट छन कर चूर्ण बना लें) को आचमन वाले पात्र में डाल  ले। इलायची और चंदन को तो सभी पात्रों में डालना चाहिए।
   उसको चाहिए   देवाधिदेव महादेव के  पार्श्व भाग में  नंदीश्वर का पूजन करें। गंध, धूप तथा भांति भांति के दीपों  द्वारा  शिव की पूजा करे।  लिंग शुद्धि  करके प्रसन्नता पूर्वक मंत्र समूहों के आदि में प्रणव तथा अंत में नाम: पद जोड़कर उनके द्वारा  इष्ट देव के लिए यथोचित आसन की कल्पना  करे। फिर  प्रणव  से पद्मासन की कल्पना करके यह भावना करे कि इस कमल का पूर्व दल साक्षात आणिमा नामक ऐश्वर्य रूप एवं  अविनाशी है। दक्षिण दल लघिमा है। पश्चिम दल महिमा है। उत्तर दल प्राप्ति है। अग्नि कोण का दल प्राकाम्य है। नैरऋत्य कोण ईशित्व है। वायव्य कोण वशित्व है। ईशान कोण का दल सर्वज्ञत्व है और उस कमल की कर्णिका को सोम कहा जाता है। सोम के नीचे सूर्य हैं। सूर्य के नीचे अग्नि है और अग्नि के नीचे धर्म आदि के स्थान हैं।
   क्रमशः ऐसी कल्पना करने के पश्चात वह  चारों दिशाओं  में अव्यक्त, महत्तत्व, अहंकार तथा  उनके  विकारों  की  कल्पना करे। सोम के अंत में सत्व, रज और तम  इन  तीनों  गुणों  की कल्पना करे।
   इसके बाद 'सद्योजातं प्रपद्मि' इत्यादि मंत्र से  परमेश्वर  शिव का आवाहन करे। 'ॐ वामदेवाय  नम:' इत्यादि  वामदेव - मंत्र से उन्हें आसन पर विराजमान करे। फिर 'ॐ तत्पुरुषाय विद्महे ' इत्यादि रुद्र गायत्री द्वारा इष्टदेव का सानिध्य प्राप्त करके उन्हें ' आघोरेभ्योअथ ' इत्यादि अघोर मंत्र से वहां निरुद्ध करे। फिर ' ईशान: सर्वविद्यनाम ' इत्यादि मंत्र से आराध्य देव  का  पूजन करे।
   पाद्य और आचमनीय अर्पित करके अर्घ्य दे।
   तत्पश्चात गंध और चंदन मिश्रित जल से विधि पूर्वक रुद्र देव को स्नान कराए।
   फिर पंचगव्य निर्माण की विधि से पांचों द्रव्यों को  एक  पात्र में लेकर और  प्रणव से ही अभिमंत्रित करके  उन मिश्रित गव्य पदार्थों द्वारा भगवान को नहलाए।
   तत्पश्चात वह प्रथक प्रथक दूध, दही, मधु, गन्ने के  रस  तथा घी से नहलाकर समस्त अभीष्टों  के  दाता और  हितकारी  एवं पूजनीय महा देव जी का प्रणव के उच्चारण पूर्वक पवित्र द्रव्यों द्वारा अभिषेक करे।
   पवित्र जलपात्रों में मंत्रोच्चारण पूर्वक जल डाले।  डालने  से पहले साधक श्वेत वस्त्र से उस जल को यथोचित रीति से  छान ले। उस जल को तब तक दूर ना करे जब तक इष्टदेव को चंदन ना चढ़ा ले। तब सुंदर अक्षतों द्वारा प्रसन्नतपूर्वक शंकर जी  की पूजा करे। उनके ऊपर कुश,  अपामार्ग,  कपूर,  चमेली,  चंपा, गुलाब, श्वेत कनेर, बेला, कमल, शंख पुष्प, कुश, धतूरा, मंदार, द्रोण पुष्प (गूमा), तुलसी दल, (कई  लोग  तुलसी  दल  अर्पित करने से मना करते हैं। परंतु इसका कोई प्रमाण नहीं  है।  शिव पुराण के रुद्र संहिता  भाग  में  तुलसी  दल  अर्पित  करने  की अनुमति दी गई है), बिल्पत्र और उत्पल आदि भांति  भांति  के अपूर्व पुष्प एवं चंदन, आदि चढ़ाकर पूजा करे।
   परमेश्वर शिव के ऊपर जल की धारा गिरती रहे। जल से भरे भांति भांति के  पात्रों  द्वारा  महेश्वर  को  नहलाए। मंत्रोच्चारण पूर्वक पूजा समस्त फलों को देने वाली  होती  है।  इसके  लिए मृत्युंजय मंत्र से, पंचाक्षर मंत्र से  अथवा  दूसरे  शांति  मंत्रों  से पूजा करनी चाहिए।
   फिर भगवान शंकर के ऊपर चंदन और फूल  आदि  चढ़ाए। प्रणव से ही मुखवास (तांबूल) आदि अर्पित करें।  शिवलिंग के मस्तक पर प्रणव मंत्र से ही पूजन करें। धूप, दीप, नैवेद्य, सुंदर तांबूल एवं सुरम्य आरती द्वारा याथोक्त  विधि  से  पूजा  करके स्तोत्रों तथा अन्य नाना प्रकार के मंत्रों द्वारा उन्हें नमस्कार करें। फिर अर्घ्य देकर भगवान के  चरणों  में  फूल  बिखेरें।   साष्टांग प्रणाम करके देवेश्वर शिव की आराधना करे। फिर हाथ में फूल लेकर खडा हो जाए और दोनों हाथ  जोड़कर  निम्नांकित  मंत्र द्वारा सर्वेश्वर शंकर की पुन: प्रार्थना करे ---
  अज्ञानाध्यदि वा ज्ञानाज्जप पूजादिकं मया।
  कृतं तदस्तु सफलं कृपया तव शंकर।।
'कल्याणकारी शिव! मैंने अनजाने में अथवा जान  बूझकर  जो जप पूजा आदि सत्कर्म किए हों, वे  आपकी  कृपा  से  सफल हों।'
इसके बाद पुष्प चढ़ाकर स्वस्तिवाचन, नाना प्रकार की आशी:  प्रार्थना, मार्जन इत्यादि करे। फिर नमस्कार करके अपराध  के लिए क्षमा प्रार्थना करते हुए पुन: आगमन के लिए  मंत्रों  द्वारा विसर्जन करना चाहिए।
   फिर भाव से विभोर हो इस प्रकार प्रार्थना करे ---
शिवे भक्ति: शिवे भक्ति: शिवे भक्तिर्भवे।
अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम।।
 'प्रत्येक जन्म में मेरी शिव में भक्ति हो, शिव में भक्ति हो, शिव में भक्ति हो, शिव के  सिवा  कोई  दूसरा  मुझे  शरण देने वाला नहीं। महादेव! आप ही मेरे लिए शरण दाता हैं।'
   इस प्रकार भक्ति भाव सहित शिव पूजा करने वाले की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।
                       ॐ नमः शिवाय

   

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें