गुरुवार, 18 जून 2020

शिव पुराण - यज्ञ दत्त ( कुबेर ) की कथा, लेख संख्या - 08

           यज्ञ दत्त कुमार पर भगवान शिव की कृपा
   कांपिल्य नगर में यज्ञ दत्त नाम से एक प्रसिद्ध ब्राह्मण रहते थे जो बड़े सदाचारी थे। उनके एक पुत्र हुआ जिसका नाम गुण निधि था। वह बड़ा ही दुराचारी था। पिता ने उसे घर से निकाल दिया। एक दिन भूखा होने के कारण, नैवेद्य चुराने की इच्छा से एक शिव मंदिर में गया। वहां उसने अपने वस्त्र को जला कर उजाला किया। यह मानो उसके द्वारा भगवान शिव के लिए दीप दान किया गया हो। चोरी में पकड़े जाने पर उसे प्राण दंड मिला। उसके पापों के कारण उसे यमदूतों ने पकड़ कर बांध दिया। इतने में ही भगवान शंकर के पार्षद वहां आ गए और उन्होंने उसे छुड़ा दिया। शिवगणों के संग से उसका हृदय शुद्ध हो गया था। अत: वह उन्हीं के साथ तत्काल शिवलोक में चला गया।
   पहले राजा तथा फिर अल्कापुरी का स्वामी बनना
   कालांतर में वह कलिंगराज अरिंदम का पुत्र हुआ। वहां उसका नाम था दम। वह बहुत बड़ा शिव भक्त हुआ। राजा बन जाने पर भी उसने शिव मंदिरों में बहुत सारे दीप दान की व्यवस्था की। आजीवन इसी धर्म का पालन किया। दीपदान की वासना से युक्त होने के कारण उन्होंने शिवालयों में बहुत से दीप जलवाए। उसके फलस्वरूप जन्मांतर में वे रत्न मय दीपों की प्रभा के आश्रय होकर अल्का पुरी के स्वामी हुए। इस प्रकार भगवान शिव के लिए किया हुआ थोड़ा सा भी पूजन या आराधन
 समयानुसार महान फल देता है।   
                         शिव से मित्रता
   वह यज्ञ दत्त का पुत्र, जो प्रकाश का दान करने वाला था, कुबेर के रूप में अत्यंत दुस्सह तपस्या करने लगा। दीप दान मात्र से मिलने वाली शिव भक्ति के प्रभाव को जानकर वह शिव की चित्तप्रकाशिका काशिपुरी में गया और अपने चित्तरूपी रत्न मय प्रदीपों से ग्यारह रुद्रो को उद्बोधित करके अनन्य भक्ति एवं स्नेह से संपन्न हो वह तन्मयता पूर्वक शिव के ध्यान में मग्न हो निश्चल भाव से बैठ गया।
   जो शिव की एकता का महान पात्र है, तप रूपी अग्नि से बढ़ा हुआ है, काम क्रोध आदि महा विघ्न रूपी पतंगों के आघात से शून्य है, प्राण निरोध रूपी वायु शून्य स्थान में निश्चल भाव से प्रकाशित है, निर्मल दृष्टि के कारण स्वरूप से भी निर्मल है तथा सद्भाव रूपी पुष्पों से जिसकी पूजा की गई है, ऐसे शिवलिंग की प्रतिष्ठा करके वह तब तक तपस्या में लगा रहा जब तक उसके शरीर में केवल अस्थि और चर्म मात्र ही अवशिष्ट नहीं रह गए। इस प्रकार उसने दस हजार वर्षों तक तपस्या की।
   तदनन्तर विशालाक्षी पार्वती देवी के साथ भगवान विश्वनाथ कुबेर के पास आए। उन्होंने प्रसन्नचित से अल्का पति की ओर देखा। वे शिवलिंग में मन को एकाग्र करके स्थिर भाव से बैठे थे। भगवान शिव ने कहा कि ' हे अल्कापते! मैं वर देने के लिए उद्यत हूँ। तुम अपना मनोरथ बताओ।'
   जब कुबेर ने आंखें खोली वह तेज को सहन नहीं कर पाया। कुबेर ने भगवान शिव से ऐसी दृष्टि मांगी जिस से वह उनके दर्शन कर सके। भगवान ने उसकी यह इच्छा पूर्ण कर दी। उसने आंखें फाड़ फाड़ कर पहले उमा जी की ओर देखना आरंभ किया। वह मन ही मन सोचने लगा कि भगवान के समीप यह सर्वांग सुंदरी कौन है। इसने कौनसा ऐसा तप किया है जो मेरी भी तपस्या से बढ़ गया है। बार बार यही कहते हुए वह जब क्रूर दृष्टि से उनकी ओर देखने लगा तो उसकी बाईं आंख फूट गई।
पार्वती जी के पूछने पर भगवान शिव ने उनसे कहा कि यह तुम्हारी ओर क्रूर दृष्टि से नहीं देख रहा, यह तुम्हारी तप संपत्ति का वर्णन कर रहा है। यह तुम्हारा पुत्र है।
भगवान शिव ने कुबेर को निधियों के स्वामी और गुह्यकों के राजा होने, यक्षों, किन्नरों और राजाओं के भी राजा होकर पुन्यजनों के पालक और सब के लिए धन के दाता होने का वरदान दिया। भगवान ने यह भी कहा कि उनसे उसकी मित्रता सदा बनी रहेगी और वे सदा उसके निकट निवास करेंगे। भगवान ने कुबेर को कहा कि वो पार्वती जी के चरणों में गिरकर प्रणाम करे क्योंकि पार्वती जी उसकी माता हैं। पार्वती जी ने प्रसन्न होकर यज्ञ दत्त कुमार से कहा --- ' वत्स! भगवान शिव में तुम्हारी सदा निर्मल भक्ति बनी रहे। एक आंख फूट जाने के उपरांत अब तुम एक ही पिंगल नेत्र से युक्त रहो। बेटा! मेरे रूप के प्रति ईर्ष्या करने के कारण तुम कुबेर नाम से प्रसिद्ध होंगे। इसके बाद भगवान अन्तर्ध्यान हो गए।
   इस तरह कुबेर ने भगवान शंकर की मैत्री प्राप्त की और अलकापुरी के पास जो कैलाश पर्वत है, वह भगवान शंकर का निवास हो गया।
                         ॐ नम: शिवाय्

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