भारतीय संस्कृति में, ईश्वर की उपासना की अनेक पद्धतियां रही हैं। किसी ने निराकार की, किसी ने विष्णु जी की, किसी ने शिव, किसी ने देवी की, किसी ने श्री राम, श्री कृष्ण आदि अवतारों की उपासना की है। यहां तक कि जल, पृथ्वी, गौ, वृक्षों आदि को भी भगवान माना गया है। भारतीय संस्कृति में यह तो सभी मानते हैं कि सारे रूपों का श्रोत एक शक्ति ही है जिसको कहते हैं ( परब्रह्म पमेश्वर)। उपासक अपने संस्कारों के अनुसार किसी भी रूप में उस परम शक्ति की उपासना कर सकता है। उसकी उपासना अंततोगत्वा उसी एक परब्रह्म परमेश्वर की ही उपासना होती है। साधक जिस इष्ट को मानता है उसी के रूप में परब्रह्म परमेश्वर को देखता है। अर्थात वह परब्रह्म परमेश्वर को उसी अपने इष्ट देव के रूप में ही देखता है और यह भी जानता है कि कण कण में उसी का वास है। यह भी कि उसके सिवाय और कुछ भी नहीं है। श्री व्यास जी ने 18 पुराणों की रचना इस लिए ही की होगी कि इन महान ग्रंथों के अनुसार, भिन्न भिन्न प्रकार के साधक अपने अपने इष्ट की उपासना करते हुए उस परम पुरुष परमात्मा तक पहुंच सकें। फिर इससे अंतर नहीं पड़ता कि आप किस इष्ट की उपासना कर रहे हैं। क्योंकि सभी रूप एक परमशक्ति के ही हैं। जिस रुप में भी साधक पूर्ण श्रद्धा और विश्वास के साथ समर्पण कर देता है, उसी रूप में उसको उस परब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है।
श्री शिवपुराण महात्म्य
शिव का अर्थ ही कल्याणकारी है। इस लिए यह तो स्पष्ट ही है कि शिव कल्याणकारी हैं। शिव पुराण ही नहीं चारों वेद और स्मृतियों आदि सभी ग्रंथों ने सदा शिव की महिमा गाई है। शिव को अनादि, अजन्मा, अव्यक्त, स्रष्टा, पालक, संहारक, परम तत्व, स्वयंभू, मंगलमय, सर्व सिद्धिदायक एवं सर्वश्रेष्ठ कहा गया है। विष्णु जी और ब्रह्मा जी भी महादेव जी की उपासना करते हैं। शिवपुराण में भी भगवान शिव को परब्रह्म परमेश्वर ही माना है। शिवपुराण में भगवान शिव के स्वरूप की महिमा और उपासना का विस्तार से वर्णन मिलता है।
शौनक जी ने महा ज्ञानी सूत जी से प्रश्न किया कि हे सूत जी ज्ञान और वैराग्य सहित भक्ति से प्राप्त होने वाले विवेक की वृद्धि कैसे होती है? काम आदि मानसिक विकारों का निवारण कैसे किया जाता है ? कलयुगी जीवों को दैवी गुणों से युक्त बनाने के सर्वश्रेष्ठ उपाय क्या हैं। कृपया ऐसा साधन बताएं जिसके करने से सदाशिव की प्राप्ति हेतु चित्त शुद्ध एवं निर्मल हो जाए।
शौनक जी के लोक कल्याण के लिए पूछे गए इन प्रश्नों से प्रसन्न होकर सूत जी ने कहा कि सम्पूर्ण शास्त्रों के सिद्धांत से सम्पन्न, भक्ति आदि को बढ़ाने वाला, भगवान शिव को संतुष्ट करने वाला, कानों के लिए रसायन, अमृत स्वरूप, दिव्य, एक परम उत्तम ग्रंथ है जिसका नाम है शिव पुराण। यह पूर्व काल में स्वयं भगवान शिव द्वारा वर्णित, काल के त्रास का विनाश करने वाला शास्त्र है जिसका गुरुदेव व्यास जी ने सनत कुमार मुनियों से उपदेश पाकर कलयुग में भूतल पर उत्पन्न होने वाले जीवों के कल्याण के लिए प्रतिपादन किया था। अब मैं उस परम पवित्र ग्रंथ का वर्णन करता हूं। तुम ध्यान पूर्वक श्रवण करो।
वत्स, शिव पुराण ऐसा उत्तम शास्त्र है जिसे भगवान शिवजी का ही वांग्मय स्वरूप समझना चाहिए। श्रद्धा और विश्वास के साथ इसका पठन और श्रवण करके मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है, जीवन में बड़े बड़े उत्कृष्ट भोगों का उपभोग कर के अंत में शिवलोक को प्राप्त कर लेता है। श्रीशिव पुराण के चौबीस हजार श्लोक हैं। इसकी सात संहिताएं हैं। यह ग्रंथ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप चारों पुर्शार्थों को देने वाला है।
देवराज को शिवलोक की प्राप्ति
सूत जी आगे इस ग्रंथ का महत्व बताते हुए कुछ ऐसे लोगों की उदाहरण देते हैं जिनको शिव पुराण सुनने से शिवलोक की प्राप्ति हुई। इनमे सब से पहली कथा देवराज की है। सूत जी कहते हैं कि प्राचीन काल में एक देवराज नामक ब्राह्मण था। वह अज्ञानी और दरिद्र था एवं वैदिक धर्म से विमुख भी था। वह सत्कर्मों से भ्रष्ट हो चुका था। वह वैश्यावृत्ति में तत्पर, ठग, लोगों का धन छीनने वाला तथा कुमार्गगामी था।
एक दिन दैवयोग से घूमता हुआ प्रतिष्ठानपुर (झूसी- प्रयाग) में जा पहुंचा। वह एक शिवालय में ठहर गया। वहां उसे ज्वर आ गया। उसी शिवालय में शिव पुराण की कथा हो रही थी। ज्वर के कारण वहीं पर पड़ा पड़ा कथा का श्रवण करता रहता था। एक मास के बाद ज्वर से अत्यंत पीड़ित होकर उसकी मृत्यु हो गई। यमराज के दूत उसे पाशों में बांधकर यमलोक ले गए। इतने में ही शिवलोक से भगवान शिव के पार्षद गण आ गए। उनके गौर अंग कर्पूर के समान उज्जवल थे। हाथ में त्रिशूल थे और गले में रुद्राक्ष की मालाएं सुशोभित हो रही थीं। उनके सम्पूर्ण अंग भस्म से उद्भासित हो रहे थे। उनको देखकर धर्मग्य धर्मराज ने उनका विधिपूर्वक पूजन किया और ज्ञान दृष्टि से सारा वृतांत जान लिया। शिवदूत उस ब्राह्मण को वहां से शिवलोक ले गए और वहां जाकर उन्होंने ब्राह्मण को सांब सदाशिव के हाथों में दे दिया।
चंचुला तथा उसके पति बिंदुग का उद्धार
सूत जी ने आगे कहा कि हे शौनक जी अब मैं तुम्हें शिव भक्ति बढ़ाने वाली एक और कथा कहता हूँ। ध्यान से सुनो।
प्राचीनकाल में समुद्र के निकटवर्ती प्रदेश में एक वाष्कल नामक गांव था। वहां रहने वाला बिंदुग नामक ब्राह्मण बड़ा ही अधम दुरात्मा और महापापी था। उसकी चंचुला नामक सुंदर पत्नी थी जो सदा उत्तम धर्म के पालन में लगी रहती थी। वह पापी अपनी पत्नी को छोड़ कर वैष्यागामी हो गया था। उधर उसकी स्त्री काम से पीड़ित होने पर भी स्वधर्मनाश के भय से क्लेश सहकर भी दीर्घकाल तक धर्म से भ्रष्ट नहीं हुई। परंतु दुराचारी पति के आचरण से प्रभावित हो आगे चलकर वह स्त्री भी दुराचारिणी हो गई।
बिंदुग की मृत्यु होने पर वह नरक में जा पड़ा। बहुत दिनों तक यातनाएं सहने के उपरांत उसे विंद्यपर्वत पर एक भयंकर पिशाच की योनि प्राप्त हुई। उसकी पत्नी बहुत समय तक अपने पुत्रों के साथ रही। एक दिन दैव योग से किसी पुण्य पर्व के आने पर वह भाई बंधुओं के साथ गोकर्ण क्षेत्र में गई। तीर्थ के जल में स्नान किया। वहां उसने कथा भी सुनी। कथावाचक व्याभिचारिणी स्त्रियों को यमराज द्वारा दी जाने वाली सजा के बारे में बता रहे थे। यह सुनकर वह भय के मारे कांपने लगी। उसने ब्राह्मण के आगे हाथ जोड़ कर अपने उद्धार के लिए मार्ग बताने के लिए अनुनय विनय की। ब्राह्मण को उस स्त्री पर दया आ गई। ब्राह्मण ने कहा कि हे ब्राह्मण पत्नी तुम शिव भगवान की शरण में जाओ। शिव की कृपा होने से सारा पाप तत्काल नष्ट हो जाता है। शिव कथा सुन कर ही तुम्हारी बुद्धि इस तरह पश्चाताप से युक्त एवं शुद्ध हो गई है। साथ ही तुम्हारे मन में विषयों के प्रति वैराग्य हो गया है। केवल पश्चाताप से ही प्रायश्चित संभव है। शिव पुराण की कथा सुनने से चित्तशुद्दि होती है। मनुष्यों के शुद्ध चित्त में जगदम्बा पार्वती सहित शिव भगवान विराजमान रहते हैं। इस उत्तम कथा का श्रवण करना समस्त मनुष्यों के लिए कल्याण का बीज है। यह भव बंधन रूपी रोग का नाश करने वाली है। कथा को सुनकर फिर अपने हृदय में उसका मनन एवं निद्ध्यसन करना चाहिए। चित्त शुद्ध हो जाने पर ज्ञान और वैराग्य के साथ भक्ति निश्चय ही प्रकट होती है। तत्पश्चात शिव के अनुग्रह से दिव्य मुक्ति प्राप्त होती है। स्त्री के प्रार्थना करने पर ब्राह्मण ने उसको शिवपुराण की सम्पूर्ण कथा सुनाई। उसका चित्त शुद्ध हो गया। तब वह नित्य कथा का मनन और शिव भक्ति करने लगी। अब वह पूर्णतया विशुद्ध हो गई। उसने भगवान शिव में लगी रहने वाली उत्तम बुद्धि पाकर शिव के सच्चिदानंद मय स्वरूप का बारंबार मनन एवं चिंतन आरंभ किया। तत्पश्चात समय के पूरे होने पर भक्ति ज्ञान और वैराग्य से युक्त हुई। उसने अपना शरीर बिना किसी कष्ट के त्याग दिया। इतने में त्रिपुर शत्रु भगवान शिव का भेजा हुआ दिव्य विमान उसे लेने पहुंचा और उसे तत्काल शिवपुरी में पहुंचा दिया। वह दिव्यांगना हो गई थी। शिव लोक पहुंचकर उसने सनातन देवता त्रिनेत्र धारी महादेव जी के दर्शन किए। सभी मुख्य मुख्य देवता उनकी सेवा में खड़े थे। श्री गणेश जी, भृंगी, नंदीश्वर तथा वीरभद्र आदि उनकी सेवा में उत्तम भक्ति भाव से उपस्थित थे। उनकी अंग कांति करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशित हो रही थी। कंठ में नील चिन्ह शोभा पाता था। उनके पांच मुख और प्रत्येक मुख में तीन तीन नेत्र थे। मस्तक पर अर्ध चंद्राकार मुकुट शोभा देता था। वामांग भाग में गौरी देवी शोभायमान थीं, जो विद्युत पुंज के समान प्रकाशित थीं। गौरी पति महादेव जी की कांति कपूर के समान गौर थी और उनका सारा शरीर श्वेत भस्म से भासित था। शरीर पर श्वेत वस्त्र शोभा पा रहे थे। दर्शन करके वह बड़े प्रेम, आनंद और संतोष से युक्त हो विनीत भाव से खड़ी हो गई। पार्वती जी ने उसे अपनी सखी बना लिया। तब वह अक्षय सुख का अनुभव करने लगी।
तुम्बुरु द्वारा शिवकथा सुनाकर बिंदुग का उद्धार
चंचुला ने पार्वती जी से प्रार्थना की कि हे गिरी राज नंदिनी आप समस्त सुखों को देने वाली और ब्रह्मा, विष्णु आदि सभी देवताओं द्वारा सेव्य हो। आप ही संसार की सृष्टि, पालन और संहार करने वाली हैं। तीनों गुणों का आश्रय भी आप ही हैं। आप ही पराशक्ति हैं। इस तरह स्तुति से पार्वती जी को प्रसन्न करके पूछा कि हे दीन वत्सले मेरे पति बिंदुग इस समय किस योनि में हैं ? मैं अपने पति से जिस प्रकार संयुक्त हो सकूं वैसा ही उपाय कीजिए। उनकी मृत्यु मुझसे पहले ही हो गई थी। ना जाने वे किस गति को प्राप्त हुए हैं।
इस पर पार्वती जी ने कहा कि हे चंचुला तेरा पति बिंदुग जो कि अपने कर्मों के कारण लंबे समय तक नरक को भोग कर अब विंध्य पर्वत पर भयानक पिशाच योनि में रह रहा है और अनेकों दुःख झेल रहा है। यह सुन कर चंचुला बहुत दुखी हो गई। उसे दुखी देख कर पार्वती जो को दया आ गई। उन्होंने भगवान शिव की उत्तम कीर्ति का गान करने वाले गंधर्व राज तुम्बुरु को बुला कर सारी बात बताई और आदेश दिया कि वह बिंदुग को यतनपुर्वक पवित्र शिव पुराण की कथा सुनाए। कथा से उसका हृदय शुद्ध हो जाएगा और वह शीघ्र ही प्रेत योनि का परित्याग कर देगा। उसके बाद विमान पर बैठा कर उसे मेरी आज्ञा से तुम शिव के समीप ले आओ।
आज्ञा अनुसार गंधर्व राज तुम्बुरु विंध्य पर्वत पर गए। वहां पर पिशाच को ब्लात पाषों से बांध कर शिवपुराण की पवित्र कथा सुनाई गई। और भी बहुत सारे देवता आदि कथा सुनने आए। कथा सुनने के उपरांत पिशाच का हृदय शुद्ध हो गया। उसने पिशाच योनि का परित्याग कर दिया। विशुद्ध हो जाने पर उसे भी शिव लोक की प्राप्ति हुई। उसे वहां पार्षद बना दिया गया। दोनों पति पत्नी सनातन धाम में अविचल निवास पाकर सुखी हो गए।
ॐ नमः शिवायः
श्री शिवपुराण महात्म्य
शिव का अर्थ ही कल्याणकारी है। इस लिए यह तो स्पष्ट ही है कि शिव कल्याणकारी हैं। शिव पुराण ही नहीं चारों वेद और स्मृतियों आदि सभी ग्रंथों ने सदा शिव की महिमा गाई है। शिव को अनादि, अजन्मा, अव्यक्त, स्रष्टा, पालक, संहारक, परम तत्व, स्वयंभू, मंगलमय, सर्व सिद्धिदायक एवं सर्वश्रेष्ठ कहा गया है। विष्णु जी और ब्रह्मा जी भी महादेव जी की उपासना करते हैं। शिवपुराण में भी भगवान शिव को परब्रह्म परमेश्वर ही माना है। शिवपुराण में भगवान शिव के स्वरूप की महिमा और उपासना का विस्तार से वर्णन मिलता है।
शौनक जी ने महा ज्ञानी सूत जी से प्रश्न किया कि हे सूत जी ज्ञान और वैराग्य सहित भक्ति से प्राप्त होने वाले विवेक की वृद्धि कैसे होती है? काम आदि मानसिक विकारों का निवारण कैसे किया जाता है ? कलयुगी जीवों को दैवी गुणों से युक्त बनाने के सर्वश्रेष्ठ उपाय क्या हैं। कृपया ऐसा साधन बताएं जिसके करने से सदाशिव की प्राप्ति हेतु चित्त शुद्ध एवं निर्मल हो जाए।
शौनक जी के लोक कल्याण के लिए पूछे गए इन प्रश्नों से प्रसन्न होकर सूत जी ने कहा कि सम्पूर्ण शास्त्रों के सिद्धांत से सम्पन्न, भक्ति आदि को बढ़ाने वाला, भगवान शिव को संतुष्ट करने वाला, कानों के लिए रसायन, अमृत स्वरूप, दिव्य, एक परम उत्तम ग्रंथ है जिसका नाम है शिव पुराण। यह पूर्व काल में स्वयं भगवान शिव द्वारा वर्णित, काल के त्रास का विनाश करने वाला शास्त्र है जिसका गुरुदेव व्यास जी ने सनत कुमार मुनियों से उपदेश पाकर कलयुग में भूतल पर उत्पन्न होने वाले जीवों के कल्याण के लिए प्रतिपादन किया था। अब मैं उस परम पवित्र ग्रंथ का वर्णन करता हूं। तुम ध्यान पूर्वक श्रवण करो।
वत्स, शिव पुराण ऐसा उत्तम शास्त्र है जिसे भगवान शिवजी का ही वांग्मय स्वरूप समझना चाहिए। श्रद्धा और विश्वास के साथ इसका पठन और श्रवण करके मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है, जीवन में बड़े बड़े उत्कृष्ट भोगों का उपभोग कर के अंत में शिवलोक को प्राप्त कर लेता है। श्रीशिव पुराण के चौबीस हजार श्लोक हैं। इसकी सात संहिताएं हैं। यह ग्रंथ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप चारों पुर्शार्थों को देने वाला है।
देवराज को शिवलोक की प्राप्ति
सूत जी आगे इस ग्रंथ का महत्व बताते हुए कुछ ऐसे लोगों की उदाहरण देते हैं जिनको शिव पुराण सुनने से शिवलोक की प्राप्ति हुई। इनमे सब से पहली कथा देवराज की है। सूत जी कहते हैं कि प्राचीन काल में एक देवराज नामक ब्राह्मण था। वह अज्ञानी और दरिद्र था एवं वैदिक धर्म से विमुख भी था। वह सत्कर्मों से भ्रष्ट हो चुका था। वह वैश्यावृत्ति में तत्पर, ठग, लोगों का धन छीनने वाला तथा कुमार्गगामी था।
एक दिन दैवयोग से घूमता हुआ प्रतिष्ठानपुर (झूसी- प्रयाग) में जा पहुंचा। वह एक शिवालय में ठहर गया। वहां उसे ज्वर आ गया। उसी शिवालय में शिव पुराण की कथा हो रही थी। ज्वर के कारण वहीं पर पड़ा पड़ा कथा का श्रवण करता रहता था। एक मास के बाद ज्वर से अत्यंत पीड़ित होकर उसकी मृत्यु हो गई। यमराज के दूत उसे पाशों में बांधकर यमलोक ले गए। इतने में ही शिवलोक से भगवान शिव के पार्षद गण आ गए। उनके गौर अंग कर्पूर के समान उज्जवल थे। हाथ में त्रिशूल थे और गले में रुद्राक्ष की मालाएं सुशोभित हो रही थीं। उनके सम्पूर्ण अंग भस्म से उद्भासित हो रहे थे। उनको देखकर धर्मग्य धर्मराज ने उनका विधिपूर्वक पूजन किया और ज्ञान दृष्टि से सारा वृतांत जान लिया। शिवदूत उस ब्राह्मण को वहां से शिवलोक ले गए और वहां जाकर उन्होंने ब्राह्मण को सांब सदाशिव के हाथों में दे दिया।
चंचुला तथा उसके पति बिंदुग का उद्धार
सूत जी ने आगे कहा कि हे शौनक जी अब मैं तुम्हें शिव भक्ति बढ़ाने वाली एक और कथा कहता हूँ। ध्यान से सुनो।
प्राचीनकाल में समुद्र के निकटवर्ती प्रदेश में एक वाष्कल नामक गांव था। वहां रहने वाला बिंदुग नामक ब्राह्मण बड़ा ही अधम दुरात्मा और महापापी था। उसकी चंचुला नामक सुंदर पत्नी थी जो सदा उत्तम धर्म के पालन में लगी रहती थी। वह पापी अपनी पत्नी को छोड़ कर वैष्यागामी हो गया था। उधर उसकी स्त्री काम से पीड़ित होने पर भी स्वधर्मनाश के भय से क्लेश सहकर भी दीर्घकाल तक धर्म से भ्रष्ट नहीं हुई। परंतु दुराचारी पति के आचरण से प्रभावित हो आगे चलकर वह स्त्री भी दुराचारिणी हो गई।
बिंदुग की मृत्यु होने पर वह नरक में जा पड़ा। बहुत दिनों तक यातनाएं सहने के उपरांत उसे विंद्यपर्वत पर एक भयंकर पिशाच की योनि प्राप्त हुई। उसकी पत्नी बहुत समय तक अपने पुत्रों के साथ रही। एक दिन दैव योग से किसी पुण्य पर्व के आने पर वह भाई बंधुओं के साथ गोकर्ण क्षेत्र में गई। तीर्थ के जल में स्नान किया। वहां उसने कथा भी सुनी। कथावाचक व्याभिचारिणी स्त्रियों को यमराज द्वारा दी जाने वाली सजा के बारे में बता रहे थे। यह सुनकर वह भय के मारे कांपने लगी। उसने ब्राह्मण के आगे हाथ जोड़ कर अपने उद्धार के लिए मार्ग बताने के लिए अनुनय विनय की। ब्राह्मण को उस स्त्री पर दया आ गई। ब्राह्मण ने कहा कि हे ब्राह्मण पत्नी तुम शिव भगवान की शरण में जाओ। शिव की कृपा होने से सारा पाप तत्काल नष्ट हो जाता है। शिव कथा सुन कर ही तुम्हारी बुद्धि इस तरह पश्चाताप से युक्त एवं शुद्ध हो गई है। साथ ही तुम्हारे मन में विषयों के प्रति वैराग्य हो गया है। केवल पश्चाताप से ही प्रायश्चित संभव है। शिव पुराण की कथा सुनने से चित्तशुद्दि होती है। मनुष्यों के शुद्ध चित्त में जगदम्बा पार्वती सहित शिव भगवान विराजमान रहते हैं। इस उत्तम कथा का श्रवण करना समस्त मनुष्यों के लिए कल्याण का बीज है। यह भव बंधन रूपी रोग का नाश करने वाली है। कथा को सुनकर फिर अपने हृदय में उसका मनन एवं निद्ध्यसन करना चाहिए। चित्त शुद्ध हो जाने पर ज्ञान और वैराग्य के साथ भक्ति निश्चय ही प्रकट होती है। तत्पश्चात शिव के अनुग्रह से दिव्य मुक्ति प्राप्त होती है। स्त्री के प्रार्थना करने पर ब्राह्मण ने उसको शिवपुराण की सम्पूर्ण कथा सुनाई। उसका चित्त शुद्ध हो गया। तब वह नित्य कथा का मनन और शिव भक्ति करने लगी। अब वह पूर्णतया विशुद्ध हो गई। उसने भगवान शिव में लगी रहने वाली उत्तम बुद्धि पाकर शिव के सच्चिदानंद मय स्वरूप का बारंबार मनन एवं चिंतन आरंभ किया। तत्पश्चात समय के पूरे होने पर भक्ति ज्ञान और वैराग्य से युक्त हुई। उसने अपना शरीर बिना किसी कष्ट के त्याग दिया। इतने में त्रिपुर शत्रु भगवान शिव का भेजा हुआ दिव्य विमान उसे लेने पहुंचा और उसे तत्काल शिवपुरी में पहुंचा दिया। वह दिव्यांगना हो गई थी। शिव लोक पहुंचकर उसने सनातन देवता त्रिनेत्र धारी महादेव जी के दर्शन किए। सभी मुख्य मुख्य देवता उनकी सेवा में खड़े थे। श्री गणेश जी, भृंगी, नंदीश्वर तथा वीरभद्र आदि उनकी सेवा में उत्तम भक्ति भाव से उपस्थित थे। उनकी अंग कांति करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशित हो रही थी। कंठ में नील चिन्ह शोभा पाता था। उनके पांच मुख और प्रत्येक मुख में तीन तीन नेत्र थे। मस्तक पर अर्ध चंद्राकार मुकुट शोभा देता था। वामांग भाग में गौरी देवी शोभायमान थीं, जो विद्युत पुंज के समान प्रकाशित थीं। गौरी पति महादेव जी की कांति कपूर के समान गौर थी और उनका सारा शरीर श्वेत भस्म से भासित था। शरीर पर श्वेत वस्त्र शोभा पा रहे थे। दर्शन करके वह बड़े प्रेम, आनंद और संतोष से युक्त हो विनीत भाव से खड़ी हो गई। पार्वती जी ने उसे अपनी सखी बना लिया। तब वह अक्षय सुख का अनुभव करने लगी।
तुम्बुरु द्वारा शिवकथा सुनाकर बिंदुग का उद्धार
चंचुला ने पार्वती जी से प्रार्थना की कि हे गिरी राज नंदिनी आप समस्त सुखों को देने वाली और ब्रह्मा, विष्णु आदि सभी देवताओं द्वारा सेव्य हो। आप ही संसार की सृष्टि, पालन और संहार करने वाली हैं। तीनों गुणों का आश्रय भी आप ही हैं। आप ही पराशक्ति हैं। इस तरह स्तुति से पार्वती जी को प्रसन्न करके पूछा कि हे दीन वत्सले मेरे पति बिंदुग इस समय किस योनि में हैं ? मैं अपने पति से जिस प्रकार संयुक्त हो सकूं वैसा ही उपाय कीजिए। उनकी मृत्यु मुझसे पहले ही हो गई थी। ना जाने वे किस गति को प्राप्त हुए हैं।
इस पर पार्वती जी ने कहा कि हे चंचुला तेरा पति बिंदुग जो कि अपने कर्मों के कारण लंबे समय तक नरक को भोग कर अब विंध्य पर्वत पर भयानक पिशाच योनि में रह रहा है और अनेकों दुःख झेल रहा है। यह सुन कर चंचुला बहुत दुखी हो गई। उसे दुखी देख कर पार्वती जो को दया आ गई। उन्होंने भगवान शिव की उत्तम कीर्ति का गान करने वाले गंधर्व राज तुम्बुरु को बुला कर सारी बात बताई और आदेश दिया कि वह बिंदुग को यतनपुर्वक पवित्र शिव पुराण की कथा सुनाए। कथा से उसका हृदय शुद्ध हो जाएगा और वह शीघ्र ही प्रेत योनि का परित्याग कर देगा। उसके बाद विमान पर बैठा कर उसे मेरी आज्ञा से तुम शिव के समीप ले आओ।
आज्ञा अनुसार गंधर्व राज तुम्बुरु विंध्य पर्वत पर गए। वहां पर पिशाच को ब्लात पाषों से बांध कर शिवपुराण की पवित्र कथा सुनाई गई। और भी बहुत सारे देवता आदि कथा सुनने आए। कथा सुनने के उपरांत पिशाच का हृदय शुद्ध हो गया। उसने पिशाच योनि का परित्याग कर दिया। विशुद्ध हो जाने पर उसे भी शिव लोक की प्राप्ति हुई। उसे वहां पार्षद बना दिया गया। दोनों पति पत्नी सनातन धाम में अविचल निवास पाकर सुखी हो गए।
ॐ नमः शिवायः
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