गुरुवार, 30 जुलाई 2020

शिव पुराण (कामदेव प्राकट्य) लेख सँख्या - 9

   भगवान सदाशिव का निराकार से साकार होना
     ब्रह्मा जी ने नारद जी को शिव कथा सुनाते हुए आगे कहा कि पूर्व काल में भगवान शिव निर्गुण, निर्विकल्प, निराकार, शक्तिरहित, चिन्मय तथा सत् और असत् से विलक्षण स्वरूप में प्रतिष्ठित थे। फिर वे ही प्रभु सगुण ओर शक्तिमान् होकर विशिष्ट रूप धारण करके स्थित हुए।  उनके साथ भगवती उमा विराजमान थीं।
     उनके बाएं अंग से भगवान विष्णु, दाएं अंग से ब्रह्मा एवं हृदय से रूद्रदेव प्रकट हुए। यही तीनों त्रिदेव कहलाए। ब्रह्मा जी ने सृष्टि रचना, विष्णु जी ने सृष्टि पालन तथा रूद्रदेव जी ने संहार का कार्य सँभाल लिया।
इस तरह भगवान शिव ही तीन रूप धारण करके स्थित हुए। ब्रह्मा जी ने उन्हीं की आराधना करके सभी प्रकार की सृष्टि का कार्य आरम्भ कर दिया। ब्रह्मा जी ने प्रजा पतियों, ऋषियों, देवताओं, असुरों एवं मानव आदि सभी प्रकार की सृष्टि बनाई। 
                    कामदेव प्राकट्य
     इसी तरह ब्रह्मा जी के मन से एक बहुत मनोहर पुरुष प्रकट हुआ। वह अत्यंत सुंदर और मनमोहक था। जब उसने ब्रह्मा जी से अपने बारे में पूछा कि वह कौन सा कार्य करे, तो ब्रह्मा जी ने उसे कहा कि वो अपने इसी स्वरूप से तथा फूल से बने हुए पांच बाणों से स्त्रियों और पुरुषों को मोहित करते हुए सृष्टि के सनातन कार्य को चलाए। यह भी कहा कि समस्त चराचर त्रिभुवन में देवता आदि कोई भी जीव उसका तिरस्कार करने में समर्थ नहीं होगा। समस्त प्राणियों का मन उसके पुष्पमय बाण का सदा अनायास ही अद्भुत लक्ष्य बन जाएगा और वो उन्हें निरंतर मदमत्त किए रहेगा। उस पुरुष का नामकरण ब्रह्मा जी के मरीचि आदि पुत्रों ने किया।
                नामकरण तथा विवाह
     ऋषियों ने उसका नाम मन को मथने वाला होने के कारण, ' मन्मथ', काम रूप होने के कारण, ' काम ', लोगों को मादमत्त बना देने के कारण ' मदन ', बड़े दर्प से उत्पन्न होने के कारण दर्पक तथा सदर्प होने के कारण कंदर्प रक्खा और उसे सर्वव्यापी होने का आशीर्वाद दिया। तथा उसका सभी स्थानों पर अधिकार होने की बात भी कही।
     तब प्रजापति दक्ष ने अपने ही शरीर से उत्पन्न करके अपनी पुत्री रति का विवाह काम देव से कर दिया।
                      नमः शिवाय
    

गुरुवार, 18 जून 2020

शिव पुराण - यज्ञ दत्त ( कुबेर ) की कथा, लेख संख्या - 08

           यज्ञ दत्त कुमार पर भगवान शिव की कृपा
   कांपिल्य नगर में यज्ञ दत्त नाम से एक प्रसिद्ध ब्राह्मण रहते थे जो बड़े सदाचारी थे। उनके एक पुत्र हुआ जिसका नाम गुण निधि था। वह बड़ा ही दुराचारी था। पिता ने उसे घर से निकाल दिया। एक दिन भूखा होने के कारण, नैवेद्य चुराने की इच्छा से एक शिव मंदिर में गया। वहां उसने अपने वस्त्र को जला कर उजाला किया। यह मानो उसके द्वारा भगवान शिव के लिए दीप दान किया गया हो। चोरी में पकड़े जाने पर उसे प्राण दंड मिला। उसके पापों के कारण उसे यमदूतों ने पकड़ कर बांध दिया। इतने में ही भगवान शंकर के पार्षद वहां आ गए और उन्होंने उसे छुड़ा दिया। शिवगणों के संग से उसका हृदय शुद्ध हो गया था। अत: वह उन्हीं के साथ तत्काल शिवलोक में चला गया।
   पहले राजा तथा फिर अल्कापुरी का स्वामी बनना
   कालांतर में वह कलिंगराज अरिंदम का पुत्र हुआ। वहां उसका नाम था दम। वह बहुत बड़ा शिव भक्त हुआ। राजा बन जाने पर भी उसने शिव मंदिरों में बहुत सारे दीप दान की व्यवस्था की। आजीवन इसी धर्म का पालन किया। दीपदान की वासना से युक्त होने के कारण उन्होंने शिवालयों में बहुत से दीप जलवाए। उसके फलस्वरूप जन्मांतर में वे रत्न मय दीपों की प्रभा के आश्रय होकर अल्का पुरी के स्वामी हुए। इस प्रकार भगवान शिव के लिए किया हुआ थोड़ा सा भी पूजन या आराधन
 समयानुसार महान फल देता है।   
                         शिव से मित्रता
   वह यज्ञ दत्त का पुत्र, जो प्रकाश का दान करने वाला था, कुबेर के रूप में अत्यंत दुस्सह तपस्या करने लगा। दीप दान मात्र से मिलने वाली शिव भक्ति के प्रभाव को जानकर वह शिव की चित्तप्रकाशिका काशिपुरी में गया और अपने चित्तरूपी रत्न मय प्रदीपों से ग्यारह रुद्रो को उद्बोधित करके अनन्य भक्ति एवं स्नेह से संपन्न हो वह तन्मयता पूर्वक शिव के ध्यान में मग्न हो निश्चल भाव से बैठ गया।
   जो शिव की एकता का महान पात्र है, तप रूपी अग्नि से बढ़ा हुआ है, काम क्रोध आदि महा विघ्न रूपी पतंगों के आघात से शून्य है, प्राण निरोध रूपी वायु शून्य स्थान में निश्चल भाव से प्रकाशित है, निर्मल दृष्टि के कारण स्वरूप से भी निर्मल है तथा सद्भाव रूपी पुष्पों से जिसकी पूजा की गई है, ऐसे शिवलिंग की प्रतिष्ठा करके वह तब तक तपस्या में लगा रहा जब तक उसके शरीर में केवल अस्थि और चर्म मात्र ही अवशिष्ट नहीं रह गए। इस प्रकार उसने दस हजार वर्षों तक तपस्या की।
   तदनन्तर विशालाक्षी पार्वती देवी के साथ भगवान विश्वनाथ कुबेर के पास आए। उन्होंने प्रसन्नचित से अल्का पति की ओर देखा। वे शिवलिंग में मन को एकाग्र करके स्थिर भाव से बैठे थे। भगवान शिव ने कहा कि ' हे अल्कापते! मैं वर देने के लिए उद्यत हूँ। तुम अपना मनोरथ बताओ।'
   जब कुबेर ने आंखें खोली वह तेज को सहन नहीं कर पाया। कुबेर ने भगवान शिव से ऐसी दृष्टि मांगी जिस से वह उनके दर्शन कर सके। भगवान ने उसकी यह इच्छा पूर्ण कर दी। उसने आंखें फाड़ फाड़ कर पहले उमा जी की ओर देखना आरंभ किया। वह मन ही मन सोचने लगा कि भगवान के समीप यह सर्वांग सुंदरी कौन है। इसने कौनसा ऐसा तप किया है जो मेरी भी तपस्या से बढ़ गया है। बार बार यही कहते हुए वह जब क्रूर दृष्टि से उनकी ओर देखने लगा तो उसकी बाईं आंख फूट गई।
पार्वती जी के पूछने पर भगवान शिव ने उनसे कहा कि यह तुम्हारी ओर क्रूर दृष्टि से नहीं देख रहा, यह तुम्हारी तप संपत्ति का वर्णन कर रहा है। यह तुम्हारा पुत्र है।
भगवान शिव ने कुबेर को निधियों के स्वामी और गुह्यकों के राजा होने, यक्षों, किन्नरों और राजाओं के भी राजा होकर पुन्यजनों के पालक और सब के लिए धन के दाता होने का वरदान दिया। भगवान ने यह भी कहा कि उनसे उसकी मित्रता सदा बनी रहेगी और वे सदा उसके निकट निवास करेंगे। भगवान ने कुबेर को कहा कि वो पार्वती जी के चरणों में गिरकर प्रणाम करे क्योंकि पार्वती जी उसकी माता हैं। पार्वती जी ने प्रसन्न होकर यज्ञ दत्त कुमार से कहा --- ' वत्स! भगवान शिव में तुम्हारी सदा निर्मल भक्ति बनी रहे। एक आंख फूट जाने के उपरांत अब तुम एक ही पिंगल नेत्र से युक्त रहो। बेटा! मेरे रूप के प्रति ईर्ष्या करने के कारण तुम कुबेर नाम से प्रसिद्ध होंगे। इसके बाद भगवान अन्तर्ध्यान हो गए।
   इस तरह कुबेर ने भगवान शंकर की मैत्री प्राप्त की और अलकापुरी के पास जो कैलाश पर्वत है, वह भगवान शंकर का निवास हो गया।
                         ॐ नम: शिवाय्

मंगलवार, 16 जून 2020

शिव पुराण (सृष्टि वर्णन) लेख संख्या - 07


                  सृष्टि रचना
      ब्रह्मा जी ने आगे नारद जी को बताया कि जब उन्होंने सृष्टि रचना आरंभ करने के लिए भगवान  शिव  और  विष्णु  जी  का ध्यान करते हुए पहले से रचे हुए जल में अपनी अंजलि डालकर जल को ऊपर की ओर उछाला।  इससे  वहां  एक  अंड  प्रकट हुआ जो चौबीस तत्वों का समूह भी  कहा  जाता है। वह विराट आकार वाला अंड जड़ रूप ही था। ब्रह्मा जी ने बारह वर्षों तक भगवान विष्णु जी का चिंतन किया।  फिर  श्री  हरि  प्रकट  हुए और ब्रह्मा जी द्वारा अंड को चेतन करने की  विनती  करने  पर स्वयं ही उस अंड में प्रवेश कर गए जिससे वो  अंड  सचेतन  हो गया। पाताल से लेकर सत्य लोक तक की अवधि वाले उस अंड के रूप में वहां साक्षात श्री हरि ही विराजने लगे। तब उस विराट अंड में व्यापक होने से ही वे प्रभु वैराज पुरुष कहलाए। 
     पंचमुख महादेव ने केवल अपने रहने के  लिए  कैलास नगर का निर्माण किया, जो सब लोकों से ऊपर  सुशोभित  होता  है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का नाश हो जाने पर भी बैकुंठ और कैलाश का कभी नाश नहीं होता। ब्रह्मा जी सत्य  लोक  का  आश्रय  लेकर रहते हैं। 
     उसके बाद ही ब्रह्मा जी ने भिन्न भिन्न प्रकार की सृष्टि उत्पन्न की। सबसे पहले अविद्या, उसके बाद स्थावर संज्ञक  वृक्ष  आदि फिर मनुष्य, भूत आदि कई प्रकार की सृष्टि उत्पन्न की गई। 
      द्विजात्मक सर्ग में सनक आदि ऋषि कुमारों  की सृष्टि हुई। उनका मन सदा भगवान शिव में ही  लगा  रहता है।  ब्रह्मा  जी द्वारा आदेश देने पर भी उन्होंने सृष्टि विस्तार का कार्य स्वीकार नहीं किया। इस पर ब्रहा जी क्रोधित हो गए। और उन पर मोह छा गया। उन्होंने भगवान विष्णु का स्मरण किया। श्री विष्णु जी शीघ्र ही आ पहुंचे। उन्होंने ब्रह्मा जी को समझाते  हुए  भगवान शिव की तपस्या करने के लिए प्रेरित किया। तब  ब्रह्मा  जी  ने भगवान शिव की घोर तपस्या की। तब ब्रह्मा जी की भौहों और नासिका के मध्य भाग से सर्वेश्वर भगवान अर्धनारीश्वर  रूप  में प्रकट हुए। ब्रह्मा जी  ने सिर झुका कर भगवान शिव से प्रार्थना की कि हे प्रभु आप भांति भांति के जीवों की सृष्टि कीजिए।    उनकी  यह बात सुनकर उन देवाधिदेव महेश्वर रुद्र ने अपने  ही समान बहुत से रुद्र गणों की सृष्टि की। तब ब्रह्मा जी ने कहा कि हे देव आप ऐसे जीवों की उत्पत्ति कीजिए जो जन्म और  मृत्यु के भय से युक्त हों। उनकी बात सुनकर महादेव जी  हंसते  हुए कहने लगे कि विधाता! मैं ऐसी सृष्टि नहीं करूंगा जो जन्म और मृत्यु के भय से युक्त हो। मैं तो दुःख के सागर में  डूबे  हुए  उन जीवों का उद्धार मात्र करूंगा। हे प्रजापते! दुःख  के  सागर  में डूबे हुए सारे जीवों की सृष्टि तो तुम ही करो। मेरी आज्ञा से इस कार्य में प्रवृत्त होने के कारण तुम्हें माया नहीं बांध सकेगी।      इतना कहकर श्रीमान भगवान नील लोहित महादेव अपने सभी पार्षदों के साथ वहां से तत्काल तिरोहित हो गए। 
     फिर ब्रह्मा जी ने शब्द तन्मात्रा आदि  सूक्ष्म पांचों  भूतों  का परस्पर सम्मिश्रण करके उनसे स्थूल आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी की सृष्टि की। पर्वतों, समुद्रों और वृक्षों आदि को भी उत्पन्न किया। कला से लेकर युग परियंत काल विभाग की भी रचना की। उत्पत्ति और विनाश वाले और भी बहुत सारे पदार्थों का निर्माण किया।
   तब ब्रह्मा जी ने अपने नेत्रों से मरीचि, हृदय से  भृगु, सिर  से अंगिरा, व्यान वायु से पुलह, उदान वायु से पुलस्त्य, समान वायु से वशिष्ठ, अपान से कृतु, कानों से अत्रि, प्राणों से दक्ष, गोद से नारद, छाया से कर्दम तथा संकल्प से धर्म  को  उत्पन्न  किया।
     इसके बाद ब्रह्मा जी ने अपने विभिन्न अंगों  से  देवता, असुर आदि के रूप में असंख्य पुत्रों की सृष्टि करके  उन्हें  भिन्न  भिन्न शरीर प्रदान किए। तब ब्रह्मा जी ने शिव की कृपा से स्वयं को ही दो भागों में विभक्त करके अपने दो रूप बना लिए। आधे शरीर से वे पुरुष और आधे से स्त्री बन गए। तब उस पुरुष ने उस स्त्री के गर्भ से सर्व साधन समर्थ उत्तम जोड़े को उत्पन्न  किया। उस जोड़े में जो पुरुष  था  वही  स्वायंभुव  मनु के  नाम  से  प्रसिद्ध हुआ। और जो स्त्री हुई वह शतरूपा कहलाई।  इनसे आगे फिर मैथुन जनित सृष्टि शुरू हुई।
    मनु और शतरूपा के प्रियव्रत और उत्तान पाद नामक दो पुत्र हुए। तथा आकूति, देवहूति और प्रसूति नामक तीन कन्याएं हुईं।
आकूति का विवाह प्रजापति रुचि, देवहूति का ऋषि कर्दम और प्रसूति का विवाह प्रजापति दक्ष से हुआ। उनकी  संतान  से  ही आगे समस्त चराचर जगत व्याप्त है। 
                           ॐ नम: शिवाय

बुधवार, 20 मई 2020

शिव पुराण ( पूजा विधि तथा उसका फल) लेख संख्या- 6

   शिव पुराण के अनुसार शौणिक आदि ऋषियों के प्रश्न करने पर शिव पूजा विधि के बारे में बात करते हुए श्री सूत जी कहते हैं कि पूर्व काल में ब्रह्मा जी ने नारद जी  को  बताया  था  कि  भगवान शिव का रूप सुखमय, निर्मल एवं सनातन  है।  उत्तम भक्ति भाव से  शिव का  पूजन करने से  मनोवांछित  फलों की प्राप्ति होती है और सभी दुःख दूर होते हैं।
  पूजा करने वाला मनुष्य प्रात:काल ब्रह्म मुहूर्त में  उठकर  गुरु तथा जगदम्बा पार्वती जी के साथ शिव का स्मरण करके तीर्थों का चिंतन एवं भगवान विष्णु का ध्यान  करे।  फिर  ब्रह्मा  का, देवताओं का और संतों आदि का  स्मरण  चिंतन  करके  स्तोत्र पाठ पूर्वक शंकर जी का विधि पूर्वक नाम ले और  फिर  नित्य क्रिया से निवृत होकर धुले हुए  वस्त्र  धारण  करे।  फिर  सुंदर एकांत स्थल में बैठ कर संध्या विधि  का अनुष्ठान  करे।  उसके बाद पूजा का कार्य आरंभ करे।
   मन को सुस्थिर करके पूजा गृह में प्रवेश करे। वहां पूजा  की सामग्री लेकर सुंदर आसन् पर बैठे। पहले  न्यास  आदि  करके क्रमशः महादेव जी की पूजा करे।
   शिव की पूजा से पहले गणेश जी की तथा कार्तिकेय जी की पूजा करे। द्वार पालों की और दिक पालों की  भी  भली  भांति पूजा करके माता जगदम्बा पार्वती जी की पूजा करे  और  तब देवता के लिए पीठ स्थान  की  कल्पना  करे।  अथवा  अष्टदल कमल बनाकर पूजा द्रव्य के समीप बैठे और उस कमल पर ही भगवान शिव को समासीन करे।
   तत्पश्चात तीन आचमन करके पुन: दोनों  हाथ  धोकर,  तीन प्राणायाम करके, मध्यम प्राणायाम अर्थात कुंभक करते समय त्रिनेत्र धारी भगवान शिव का इस प्रकार ध्यान करे ----
उनके पांच मुख तथा दस भुजाएं हैं, शुद्ध  स्फटिक  के  समान उज्जवल कांति है, सब प्रकार के आभूषण उनके श्री अंगों को विभूषित करते हैं तथा वे व्याघ्र चर्म की चादर ओढ़े हुए हैं। इस तरह भावना करे कि मुझे भी इनके  समान  ही  रूप  प्राप्त  हो जाए। ऐसी भावना करके मनुष्य सदा के लिए अपने पापों  को भस्म कर डाले। इस प्रकार भावना  द्वारा  शिव  का  ही  शरीर धारण करके उन परमेश्वर का आवाहन करे और आसन दे।
   शरीर शुद्धि करके मूल मंत्र का क्रमशः न्यास करे अथवा वह सर्वत्र प्रणव से ही शंगन्यास करे। ' ॐ अध्येत्यदि ' रूप से वह संकल्प वाक्य का प्रयोग करके फिर पूजा आरंभ करे।
   वह  पाद्य,अर्घ्य और आचमन के लिए पात्रों को तैयार करके रक्खे और  भिन्न भिन्न प्रकार के नौ कलश स्थापित करे।  उन्हें कुशाओं से ढक कर रक्खे। कुशाओं से ही  जल  लेकर  उनका प्रोक्षण करे। तत्पश्चात वह उन सभी पात्रों में शीतल जल डाले। देख भाल कर उन सब में प्रणव मंत्र के द्वारा  निम्नांकित द्रव्यों को डाले।
   वह खस और चंदन को पाद्य पात्र में रक्खे। चमेली के  फूल, शीतल चीनी, कपूर, बड़  की  जड़  तथा  तमाल - (इन सबको कूट छन कर चूर्ण बना लें) को आचमन वाले पात्र में डाल  ले। इलायची और चंदन को तो सभी पात्रों में डालना चाहिए।
   उसको चाहिए   देवाधिदेव महादेव के  पार्श्व भाग में  नंदीश्वर का पूजन करें। गंध, धूप तथा भांति भांति के दीपों  द्वारा  शिव की पूजा करे।  लिंग शुद्धि  करके प्रसन्नता पूर्वक मंत्र समूहों के आदि में प्रणव तथा अंत में नाम: पद जोड़कर उनके द्वारा  इष्ट देव के लिए यथोचित आसन की कल्पना  करे। फिर  प्रणव  से पद्मासन की कल्पना करके यह भावना करे कि इस कमल का पूर्व दल साक्षात आणिमा नामक ऐश्वर्य रूप एवं  अविनाशी है। दक्षिण दल लघिमा है। पश्चिम दल महिमा है। उत्तर दल प्राप्ति है। अग्नि कोण का दल प्राकाम्य है। नैरऋत्य कोण ईशित्व है। वायव्य कोण वशित्व है। ईशान कोण का दल सर्वज्ञत्व है और उस कमल की कर्णिका को सोम कहा जाता है। सोम के नीचे सूर्य हैं। सूर्य के नीचे अग्नि है और अग्नि के नीचे धर्म आदि के स्थान हैं।
   क्रमशः ऐसी कल्पना करने के पश्चात वह  चारों दिशाओं  में अव्यक्त, महत्तत्व, अहंकार तथा  उनके  विकारों  की  कल्पना करे। सोम के अंत में सत्व, रज और तम  इन  तीनों  गुणों  की कल्पना करे।
   इसके बाद 'सद्योजातं प्रपद्मि' इत्यादि मंत्र से  परमेश्वर  शिव का आवाहन करे। 'ॐ वामदेवाय  नम:' इत्यादि  वामदेव - मंत्र से उन्हें आसन पर विराजमान करे। फिर 'ॐ तत्पुरुषाय विद्महे ' इत्यादि रुद्र गायत्री द्वारा इष्टदेव का सानिध्य प्राप्त करके उन्हें ' आघोरेभ्योअथ ' इत्यादि अघोर मंत्र से वहां निरुद्ध करे। फिर ' ईशान: सर्वविद्यनाम ' इत्यादि मंत्र से आराध्य देव  का  पूजन करे।
   पाद्य और आचमनीय अर्पित करके अर्घ्य दे।
   तत्पश्चात गंध और चंदन मिश्रित जल से विधि पूर्वक रुद्र देव को स्नान कराए।
   फिर पंचगव्य निर्माण की विधि से पांचों द्रव्यों को  एक  पात्र में लेकर और  प्रणव से ही अभिमंत्रित करके  उन मिश्रित गव्य पदार्थों द्वारा भगवान को नहलाए।
   तत्पश्चात वह प्रथक प्रथक दूध, दही, मधु, गन्ने के  रस  तथा घी से नहलाकर समस्त अभीष्टों  के  दाता और  हितकारी  एवं पूजनीय महा देव जी का प्रणव के उच्चारण पूर्वक पवित्र द्रव्यों द्वारा अभिषेक करे।
   पवित्र जलपात्रों में मंत्रोच्चारण पूर्वक जल डाले।  डालने  से पहले साधक श्वेत वस्त्र से उस जल को यथोचित रीति से  छान ले। उस जल को तब तक दूर ना करे जब तक इष्टदेव को चंदन ना चढ़ा ले। तब सुंदर अक्षतों द्वारा प्रसन्नतपूर्वक शंकर जी  की पूजा करे। उनके ऊपर कुश,  अपामार्ग,  कपूर,  चमेली,  चंपा, गुलाब, श्वेत कनेर, बेला, कमल, शंख पुष्प, कुश, धतूरा, मंदार, द्रोण पुष्प (गूमा), तुलसी दल, (कई  लोग  तुलसी  दल  अर्पित करने से मना करते हैं। परंतु इसका कोई प्रमाण नहीं  है।  शिव पुराण के रुद्र संहिता  भाग  में  तुलसी  दल  अर्पित  करने  की अनुमति दी गई है), बिल्पत्र और उत्पल आदि भांति  भांति  के अपूर्व पुष्प एवं चंदन, आदि चढ़ाकर पूजा करे।
   परमेश्वर शिव के ऊपर जल की धारा गिरती रहे। जल से भरे भांति भांति के  पात्रों  द्वारा  महेश्वर  को  नहलाए। मंत्रोच्चारण पूर्वक पूजा समस्त फलों को देने वाली  होती  है।  इसके  लिए मृत्युंजय मंत्र से, पंचाक्षर मंत्र से  अथवा  दूसरे  शांति  मंत्रों  से पूजा करनी चाहिए।
   फिर भगवान शंकर के ऊपर चंदन और फूल  आदि  चढ़ाए। प्रणव से ही मुखवास (तांबूल) आदि अर्पित करें।  शिवलिंग के मस्तक पर प्रणव मंत्र से ही पूजन करें। धूप, दीप, नैवेद्य, सुंदर तांबूल एवं सुरम्य आरती द्वारा याथोक्त  विधि  से  पूजा  करके स्तोत्रों तथा अन्य नाना प्रकार के मंत्रों द्वारा उन्हें नमस्कार करें। फिर अर्घ्य देकर भगवान के  चरणों  में  फूल  बिखेरें।   साष्टांग प्रणाम करके देवेश्वर शिव की आराधना करे। फिर हाथ में फूल लेकर खडा हो जाए और दोनों हाथ  जोड़कर  निम्नांकित  मंत्र द्वारा सर्वेश्वर शंकर की पुन: प्रार्थना करे ---
  अज्ञानाध्यदि वा ज्ञानाज्जप पूजादिकं मया।
  कृतं तदस्तु सफलं कृपया तव शंकर।।
'कल्याणकारी शिव! मैंने अनजाने में अथवा जान  बूझकर  जो जप पूजा आदि सत्कर्म किए हों, वे  आपकी  कृपा  से  सफल हों।'
इसके बाद पुष्प चढ़ाकर स्वस्तिवाचन, नाना प्रकार की आशी:  प्रार्थना, मार्जन इत्यादि करे। फिर नमस्कार करके अपराध  के लिए क्षमा प्रार्थना करते हुए पुन: आगमन के लिए  मंत्रों  द्वारा विसर्जन करना चाहिए।
   फिर भाव से विभोर हो इस प्रकार प्रार्थना करे ---
शिवे भक्ति: शिवे भक्ति: शिवे भक्तिर्भवे।
अन्यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम।।
 'प्रत्येक जन्म में मेरी शिव में भक्ति हो, शिव में भक्ति हो, शिव में भक्ति हो, शिव के  सिवा  कोई  दूसरा  मुझे  शरण देने वाला नहीं। महादेव! आप ही मेरे लिए शरण दाता हैं।'
   इस प्रकार भक्ति भाव सहित शिव पूजा करने वाले की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।
                       ॐ नमः शिवाय

   

सोमवार, 4 मई 2020

शिवपुराण (ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र प्राकट्य) लेख संख्या 5

         ब्रह्मा जी द्वारा नारद जी को शिव कथा सुनाना
 ब्रह्मलोक पहुंच कर नारद जी ने अपने  पिता  ब्रह्मा  जी  को सादर प्रणाम किया और शुद्ध बुद्धि से बड़े  ही  सरल  भाव  से कहने लगे,  हे  परब्रह्म  परमात्मा  को  जानने  वाले  पितामह! जगतप्रभो! आपके कृपा प्रसाद से मैंने भगवान विष्णु के उत्तम महात्म्य का पूर्णतया ज्ञान प्राप्त  किया  है।  भक्ति  मार्ग,  ज्ञान मार्ग, अत्यंत मुश्किल तपो मार्ग तथा तीर्थ मार्ग  का  भी  वर्णन सुना है। परंतु शिव तत्व का ज्ञान मुझे अभी तक नहीं हुआ  है। मैं भगवान शंकर की पूजा विधि और भगवान शिव के  चरित्रों, उनके स्वरूप - तत्व, प्राकट्य, विवाह, गृहस्थ धर्म सब के  बारे में जानने की इच्छा लेकर ही आपकी शरण में आया हूँ।
   ब्रह्मा जी ने कहा हे नारद तूने तो लोक कल्याण की ही  बात पूछी है।  इस लिए मैं आवश्य ही शिव कथा कहता हूँ,  जिसके सुनने से सम्पूर्ण लोकों के समस्त पापों का क्षय  हो  जाता  है। तुम ध्यान से श्रवण करो।
                             प्रलय काल
  जिस समय समस्त चराचर जगत नष्ट हो गया था, और सर्वत्र केवल अंधकार ही अंधकार था। ना सूर्य दिखाई देते थे और ना चंद्रमा, ना कोई ग्रह ना नक्षत्र, ना दिन ना रात। केवल  आकाश मात्र शेष था।  दूसरे किसी तेज़ की उपलब्धि  नहीं  होती  थी। तब एक मात्र ' सत ' ही शेष था, जिसे  योगिजन  अपने  हृदय आकाश के भीतर निरंतर देखते हैं। वह  सत,  मन  का  विषय नहीं है। वाणी की भी वहां तक कभी पहुंच नहीं  होती है।  वह नाम तथा रंग रूप से भी शून्य है। वह ना स्थूल है  ना  कृष, ना हृस्व है ना दीर्घ तथा ना लघु है ना गुरु। उसमें ना कभी वृद्धि ही होती है ना ह्रास। श्रुति भी उसके बारे में इतना ही कहती है कि वह ' है '। उसका कोई विशेष विवरण देने में असमर्थ हो जाती है। वह सत्य, ज्ञान स्वरूप, अनंत,  परम आनंदमय,  सर्वव्यापी परम ज्योति स्वरूप, अप्रमेय, आधार रहित, निर्विकार, निर्गुण, निराकार,   योगिगम्य,  सब  का  एकमात्र  कारण,  निर्विकल्प, माया शून्य,  निरारंभ, उपद्रव रहित, अद्वितीय, अनादि, संकोच - विकास से शून्य तथा चिन्मय है।
          परब्रह्म निराकार शिव द्वारा साकार रूप धारण
   कुछ काल के बाद सृष्टि का समय आने पर परब्रह्म  ने  स्वयं ही द्वितीय की इच्छा प्रकट की -- उसके भीतर एक  से  अनेक होने का संकल्प हुआ। तब उस  निराकार  परमात्मा  ने  लीला शक्ति से अपने लिए मूर्ति (आकार) की कल्पना की। जो  स्वयं निराकार परब्रह्म है उसी की मूर्ति सदाशिव हैं।  वही  ईश्वर  हैं।
                    स्वरूपभूता  शक्ति की सृष्टि
   अपने विग्रह से ही सदाशिव ने  स्वयं  ही  एक  स्वरूप  भूता शक्ति की सृष्टि की, जो उनके अपने  श्री अंग  से  कभी  अलग होने वाली नहीं थीं। उस परा शक्ति को प्रधान प्रकृति, गुणवती, माया, बुद्धि तत्व की जननी तथा विकार रहित बताया गया है। उसी शक्ति को अंबिका, सर्वेश्वरी,  त्रिदेव  जननी,  नित्या  और मूल कारण भी कहा गया है। उसकी आठ भुजाएं हैं। मुख  पर एक सहस्र चंद्रमाओं कि कांति है।  नाना  प्रकार  के  आभूषण श्रीअंगों की शोभा बढ़ाते हैं। नाना प्रकार के गुणों से संपन्न  हैं। अनेक प्रकार के अस्त्र शास्त्र धारण करती हैं। उनके नेत्र  खिले हुए कमल के समान खुले हैं। वह अचिंत्य  तेज  से  जगमगाती रहती हैं। सब की माता हैं। एक होकर भी अपनी  ही  माया  से अनेक हो जाती हैं।
   सदाशिव ही ईश्वर हैं, उन्हें ही शंभु और महेश्वर भी कहते  हैं। उन्होंने मस्तक पर आकाश गंगा को धारण किया हुआ है  और उनके भालदेश में चंद्रमा शोभा पाते हैं। उनके पांच मुख हैं एवं प्रत्येक मुख पर तीन तीन नेत्र हैं। सदा प्रसन्न  रहने  वाले  सदा शिव की दस भुजाएं हैं। शिव त्रिशूल धारी हैं। उनका कर्पूर  के समान गौर वर्ण है। वे सारे अंगों में भस्म रमाए रहते हैं। उन्होंने उसी समय शिवलोक (काशी) का निर्माण किया।  पहले  पहल भगवान ने इस स्थान का नाम आनंद वन  रक्खा  था,  बाद  में अविमुक्त नाम से प्रसिद्ध हुआ।
          विष्णु जी एवं उनसे आगे सभी तत्वों का प्राकट्य
   तभी सृष्टि को बनाने और बढ़ाने के लिए भगवान शिव जी ने अपने वाम भाग के दसवें अंग पर अमृत मल दिया।  तभी  उस स्थान से सुंदर, शांत, सत्वगुण की  अधिकता  वाला,  गंभीरता के अथाह सागर वाला एक  पुरुष  प्रकट  हुआ।  क्षमा  नामक गुण से युक्त उस पुरुष का श्याम वर्ण था और कमल के समान नेत्र थे।  दो सुवर्ण सी कांति वाले रेशमी पीताम्बर  पहन  रक्खे थे। किसी से परास्त ना होने वाला वह पुरुष अपने प्रचंड  भुज दंडों से सुशोभित हो रहा था।
   भगवान शिव ने उन्हें विष्णु नाम दिया और तपस्या करने  के लिए कहा। विष्णु जी ने घोर तपस्या की। तपस्या से  ही  उनके अंगों से कई जलधाराएं बहने लग गईं। सूना आकाश  जल  से व्याप्त हो गया। थके हुए विष्णु जी ने स्वयं उस जल में विश्राम किया। उस समय विष्णु के सिवा दूसरी कोई प्राकृत वस्तु  नहीं थी। पानी में रहने के कारण ही नीर से विष्णु का नाम नारायण हुआ। नारायण से ही आगे सभी तत्व प्रकट हुए।
   प्रकृति से महतत्व, महतत्व से तीनों गुण, इन तीनों  गुणों  के भेद से त्रिविध अहंकार की उत्पत्ति हुई। तब  अहंकार  से  पांच तनमत्राएं हुईं। और उनसे पांच भूत प्रकट हुए। उसी  समय  ही ज्ञानेंद्रियों और कर्मेंद्रियों का प्रादुर्भाव हुआ। इन  चौबीस  तत्वों को ग्रहण करके परम पुरुष नारायण, भगवान शिव  की  इच्छा से सो गए।
                      ब्रह्मा जी का प्रकट होना
    ब्रह्मा जी नारद मुनि जी को बता  रहे  हैं  कि  जब  भगवान विष्णु जी जल में सो रहे थे उस  समय  उनकी  नाभि  से  एक कमल की उत्पत्ति हुई जो कि  कई  योजन  लंबा  था।  करोड़ों सुर्यों के समान उसकी कांति  थी।  भगवान  सांब  सदाशिव  ने अपने दाहिने अंग से ब्रह्मा जी को प्रकट किया और  कमल  में रख दिया। माया से मोहित ब्रह्मा जी ना जान सके  कि  उनका प्राकट्य कैसे हुआ। कमल की नाल में नीचे  तक  सैकड़ों  वर्षों तक वो अपने बनाने वाले पिता को ढूंढते रहे  परंतु  कुछ  पता नहीं कर पाए। फिर आकाशवाणी हुई ' तप ' ( तपस्या करो )। उसको सुनकर उस समय पिता के दर्शन पाने के लिए ब्रह्मा जी ने बारह वर्ष तपस्या की।
             अग्नि स्तंभ एवं ' ओ३म् ' शब्द का प्राकट्य
    तब वहां पर भगवान विष्णु प्रकट हुए। इससे ब्रह्मा  जी  को बड़ा हर्ष हुआ। बात चीत शुरू हुई तो भगवान शिव की  लीला से दोनों में विवाद हो गया। इसी  समय  दोनों के  मध्य  में एक अग्नि स्तंभ प्रकट हुआ। उस अग्नि स्तंभ का अंतिम  छोर  पार करने विष्णु जी नीचे और ब्रह्मा जी ऊपर की ओर दूर तक गए परंतु दोनों को कोई छोर ना मिल सका  और दोनों  उसी स्थान पर वापिस आए। तब दोनों ने अपने चित्त को स्वस्थ करके उस अग्नि स्तंभ को प्रणाम किया और कहने लागे कि  हे  महेशान! आप शीघ्र ही हमें अपने यथार्थ रूप का  दर्शन  कराइए।  उसी समय वहां  से ' ओ३म् ', '  ओ३म् ' ऐसा शब्द रूप नाद प्रकट हुआ, जो स्पष्ट रूप से सुनाई देता था।
         परब्रह्म शिव द्वारा स्वयं प्रकट होकर ज्ञान देना
    इसके बाद वहीं पर उमा सहित पंच मुख भगवान  शिव  का प्राकट्य हुआ। उन्होंने अपने स्वरूप  का  विवेचन  किया  और ब्रह्मा आदि तीनों देवताओं की  एकता  का  प्रतिपादन  किया। भगवान ने दोनों को बताया कि विष्णु मेरे बाएं और  ब्रह्मा  मेरे दाहिने अंगों से प्रकट हुए हैं। हे ब्रह्मा! तुम  मेरी  आज्ञा  पालन करते हुए जगत की सृष्टि करो। और  हे वत्स विष्णु!  तुम  उस सृष्टि का पालन करो। हे वत्स ब्रह्मा! मेरा  ऐसा  ही  रुद्र नामक रूप तुम्हारी भृकुटी से प्रकट होगा। वो मेरे जैसा ही होगा  और उसमें मेरे ही गुण होंगे। वो ही सृष्टि के संहार का  कार्य  करेगा। वास्तव में तुम तीनों एक ही हो। वास्तव  में  मैं  ही  भिन्न  भिन्न तीनों रूपों में प्रकट होता हूँ। तीनों लोकों का पालन करने वाले श्री हरि विष्णु भीतर से तमोगुण और बाहर से सत्वगुण  धारण करते हैं। त्रिलोकी का संहार करने वाले रूद्रदेव भीतर से  सत्व गुण और बाहर से तमोगुण धारण करते हैं  तथा  त्रिभुवन  की सृष्टि करने वाले ब्रह्मा जी बाहर से भी और भीतर  से  भी  पूर्ण रजोगुणी हैं। परंतु शिव गुणातीत हैं। भगवान ने कहा हे विष्णु! तुम मेरी आज्ञा से सृष्टिकर्ता पितामह का प्रसन्नता पूर्वक पालन करो; ऐसा करने से तीनों लोकों में पूजनीय हो जाओगे।
                      तीनों देवियों का प्राकट्य
   यह जो उमा नाम से विख्यात परमेश्वरी प्रकृति देवी  हैं, इन्हीं की शक्ति भूूता वाग्देवी ब्रह्माजी का  सेवन  करेंगी।  और  फिर इन प्रकृति देवी की दूसरी शक्ति प्रकट होंगी वे  लक्ष्मी  रूप  से भगवान विष्णु का आश्रय लेंगी। फिर प्रकृति देवी  काली  नाम से तीसरी शक्ति के रूप में प्रकट होंगी जो शिव के ही  अंशभूत रुद्र को प्राप्त होंगी। इसके उपरांत भगवान शिव, श्री हरि  को,  सृष्टि की रक्षा का भार एवं भोग व मोक्ष के दान  का  अधिकार देकर स्वयं   अन्तर्ध्यान  हो गए।
                         ॐ नमः शिवाय

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2020

शिवपुराण (नारद मोह भंग कथा) लेख संख्या 4

                       नारद मोह भंग कथा
   व्यास जी भगवान शिव की वंदना करके तथा भगवती माता एवं गणेश जो नमस्कार करने के उपरांत आगे की कथा प्रारंभ करते हैं। शौनिक आदि ऋषियों के प्रश्नों का उत्तर देते हुए सूत जी कहते हैं कि भगवान शंकर जी के गुणों का वर्णन सात्विक, राजस और तामस तीनों ही प्रकृति के मनुष्यों को सदा आनंद ही प्रदान करने वाला है। हे ब्राह्मणों मैं अब आपको यथा बुद्धि शिव लीला का वर्णन करता हूँ।
   एक बार महामुनि नारद जी, जो  कि  ब्रह्मा जी के  पुत्र हैं, ने विनीतचित हो तपस्या में मन लगाया। हिमालय पर्वत  में  कोई एक गुफा थी, जो बड़ी शोभा से संपन्न दिखाई देती थी।  उसके निकट देवनदी गंगा जी निरंतर वेगपूर्वक बहती थीं।  वहां  एक महान दिव्य आश्रम था। दिव्यदर्शी नारद जी तपस्या  करने  के लिए उसी आश्रम में गए। उस गुफा को देखकर  मुनिवर  बहुत प्रसन्न हुए और सुदीर्घ काल तक वहीं तपस्या करते रहे। उनका अंत: करण शुद्ध था। चिर काल के  लिए  वो  समाधि  में  चले गए।
   उनकी ऐसी तपस्या का समाचार पाकर  देवराज  इन्द्र  कांप उठे। वो मानसिक संताप से विह्वल हो गए। इन्द्र ने  सोचा  कि नारद मुनि उनका राज्य छीन लेना चाहते हैं। यह सोचकर  इन्द्र ने उनकी समाधि भंग करने के लिए कामदेव को  भेजा।  परंतु उन्हें इसमें सफलता नहीं मिली।
   हे ऋषियो, ऐसा होने में जो कारण था वो सुनो। उसी आश्रम में पहले समय में भगवान शिव ने उत्तम  तपस्या  की  थी  और कामदेव को भस्म कर डाला था। तब  रति के प्रार्थना करने पर महादेव जी ने कहा कि कुछ समय बाद कामदेव जीवत तो  हो जाएंगे परंतु इस आश्रम पर इनका कोई प्रभाव नहीं होगा। इस लिए यह कहा जा सकता है की नारद जी ने कामदेव को  शिव भगवान के कारण ही जीता था।  इसमें  कोई  संशय  नहीं  है। परंतु नारद जी भगवान शिव की माया के कारण इस बात को नहीं जान पाए और उन्हें अपनी जीत का  अभिमान  हो  गया।
   अब अपनी इस जीत की प्रसन्नता में नारद जी  सबसे पहले  भगवान रुद्र के पास पहुंचे। प्रसन्नता से मुस्कुराते हुए  भगवान रुद्र  को सारी कथा सुना दी। भगवान ने कहा कि हे नारद तुम बहुत ही ज्ञानवान हो। इस लिए मैं  तुम्हें  कहता  हूँ  कि अपनी सिद्धियों का वर्णन किसी के पूछने पर भी नहीं करना  चाहिए। इस लिए अब तुम किसी से भी इस बात की चर्चा  मत  करना। नारद जी पर तो भगवान की माया का पर्दा पड़ा हुआ था। इस लिए उन्होंने भगवान की आज्ञा  को  हितकर  नहीं  माना  और यही सब बताने अपने पिता ब्रह्मा जो के पास चले गए।
   ब्रह्मा जी ने जब नारद जी को सुना तो वो जान गए कि नारद को अभिमान हो गया है। उन्होंने  भी  नारद को  समझाया  कि इस बात की चर्चा भूल कर भी भगवान विष्णु से ना करें। परंतु जब व्यक्ति को अभिमान हो जाता है तो उससे अपनी प्रसन्नता कहां छिपाई जाती है। नारद जी ने अपने पिता जी की बात भी नहीं मानी और वहां से सीधे  भगवान विष्णु जी  के  पास  चले गए।
    भगवान विष्णु से क्या छिपा था। वो तो सब जानते  ही  थे। नारद जी उनके प्रिय  भक्त हैं और भक्त के मन में जब भगवान अहंकार का अंकुर फूटता हुआ देखते हैं तब वे  शीघ्र ही अपने प्रिय भक्त के अभिमान को  हर लेते हैं।  नारद  के वहां पहुंचते ही विष्णु जी ने नारद जी  का बहुत सम्मान किया। उन्हें  बैठने  के लिए अपना ही आसान दे दिया और साथ ही  बहुत  प्रशंसा भी कर दी। बस फिर क्या था नारद जी ने अभिमान पूर्वक वह सारी की सारी कथा कह सुनाई। विष्णु जी ने कहा कि हे नारद जी आपने तो बहुत ही उत्तम कार्य किया  है।  नारद  जी  विदा लेकर चले गए।
   जब नारद जी जा रहे थे, उनके रास्ते में भगवान  विष्णु और भगवान शिव की प्रेरणा से एक माया की नगरी का निर्माण  हो गया। वह नगरी अलकापुरी से भी सुंदर जान पड़ती  थी।  वहां के राजा का नाम सीलनिधि था। वहां  सीलनिधि की कन्या का स्वयंवर भी होने वाला था। इस लिए नगर को और भी  अधिक सजाया गया था। नारद जी यह सब  देखकर  मोहित  हो  गए। जब राजा को पता चला कि नारद जी उसके नगर  में  आए  हैं तो उसने उनका बहुत आदर सत्कार किया। उनके चरण धोकर आसन दिया और बताया कि हे मूनिवर मेरी एक कन्या  भी  है जिसका नाम श्रीमती है उसका स्वयंवर होने वाला  है।  हे मुने! आप मेरी इस कन्या के भविष्य एवं भावी  वर  के  बारे  बताने की कृपा करें। जैसे ही नारद जी ने कन्या का हाथ देखा, उनके मन में काम भावना ने घर कर लिया।  नारद  जी  ने  राजा  को बताया कि यह कन्या बहुत ही  भागयशाली है।  इसका  वर तो भगवान के ही जैसा होगा। यह कह कर नारद  जी ने  विदा  ले ली।
   बाहर आकर सोचने लगे कि मैं कौन सा उपाय करूं जिससे  वह कन्या मेरे गले में वरमाला डाल दे और मेरी उससे शादी हो जाए। फिर वे सोचने लागे कि यदि  भगवान  विष्णु  मुझे  कुछ समय के लिए अपना रूप प्रदान कर दें तो  आवश्य  ही  कन्या मेरी सुंदरता को देख कर मेरे गले में वरमाला डाल  देगी।  ऐसा सोचकर उन्होंने  भगवान  विष्णु  जी  का  स्मरण  किया।  जब भगवान प्रकट हुए तो नारद जी ने  उन्हें  सारी  बात  बता  कर कहा कि वो  उसे  अपना  मोहिनी  रूप  प्रदान  करें।  भगवान विष्णु जी ने कहा कि है नारद मैं तुम्हारा हित साधन उसी तरह करूंगा जैसे वैद्य अत्यंत पीड़ित  रोगी  का  करता  है;  क्योंकि तुम मुझे बहुत प्रिय हो। इतना कह कर अपनी माया से  इन्होंने नारद को शरीर तो अपने जैसा ही प्रदान कर दिया परंतु  ऊपर चेहरा वानर का लगा दिया।
   जब नारद जी स्वयंवर सभा में पहुंचे  तो  वहां  भगवान शिव के दो गण भी आए हुए थे। उन्होंने नारद जी का बहुत उपहास किया। जब स्वयंवर हुआ तो कन्या ने वरमाला भगवान  विष्णु जी के गले में डाल दी। जब स्वयंवर हो गया तो दोनों पार्षदों ने नारद जी को दर्पण में उनका वानर रूप  दिखलाया और  कहा हे मुने! तुम व्यर्थ ही काम से मोहित हो रहे हो  और  सौंदर्य  के बल से राजकुमारी को पाना चाहते हो। अपना वानर के समान घृणित मुंह तो देख लो। नारद जी को बड़ा विस्मय  और  क्रोध हुआ। वे शिव की माया से मोहित थे। दर्पण में अपने  मुख  को देखकर क्रोधित हो उठे। दोनों शिव गणों को शाप देते हुए बोले -- अरे! तुम दोनों ने मुझ ब्राह्मण का  उपहास  किया  है।  अतः तुम ब्राह्मण के वीर्य से उत्पन राक्षस हो जाओ।
   नारद जी उसी समय क्रोध की  अग्नि  में  जलते  हुए  विष्णु लोक को गए। उनका ज्ञान नष्ट हो गया था। इस लिए वे दुर्वचन पूर्ण व्यंग्य सुनान लगे।
   नारद जी ने कहा -- हरे! तुम बड़े दुष्ट, कपटी और  विश्व  को मोह में डालने वाले हो। दूसरों का उत्कर्ष तो  तुमसे  सहा  नहीं जाता। तुमने स्त्री के लिए मुझे व्याकुल किया है। तुम मनुष्य हो जाओ और स्त्री के वियोग का दुख भाेगो।  तुमने  जिन  वानरों के समान मेरा मुंह बनाया था, वे ही उस समय तुम्हारे सहायक हों। तुम्हें स्त्री के वियोग का दुख प्राप्त  हो।  अज्ञान  से  मोहित मनुष्य के समान तुम्हारी स्थिति हो। श्री हरि ने  शंभु  की  माया की प्रशंसा करते हुए उस शाप को स्वीकार कर लिया।
   तभी महालीला करने वाले शंभु ने अपनी उस  विश्व  मोहिनी माया को, जिसके कारण ज्ञानी नारद मुनि भी  मोहित  हो  गए थे, खींच लिया। उस माया के तिरोहित होते ही नारद जी पहले जैसे ही शुद्ध बुद्धि से युक्त हो गए। नारद जी भगवान विष्णु के चरणों में गिर पड़े और  बोले, हे नाथ माया से मोहित  होने  के कारण मेरी बुद्धि बिगड़ गई थी।  इस  लिए  मैंने  आपके  लिए बहुत दूर्वचन कहे हैं। आपको शाप  तक  दे  डाला  है। अब  मैं निश्चय ही नरक में पडूंगा। मैं आपका दास हूं प्रभु। अब मैं क्या उपाय और क्या प्रायश्चित करूं, जिससे मेरा पाप समूह नष्ट हो जाए। तब विष्णु जी ने कहा, तात खेद ना करो। तुम  मेरे  श्रेष्ठ भक्त हो। सुनो, तुमने मद में आकर भगवान शिव की बात नहीं मानी थी। तुम अपने मन में यह दृढ़ निश्चय कर लो कि यह सब कुछ भगवान शिव की इच्छा से ही हुआ है। भगवान शिव तीनों गुणों से परे हैं। वे सच्चिदानंद निर्गुण और  निर्विकार  हैं। वे  ही अपनी माया को लेकर ब्रह्मा, विष्णु और महेश इन  तीन  रूपों में प्रकट होते हैं। निर्गुण अवस्था में उन्हीं का नाम  शिव  है।  वे ही परमात्मा, महेश्वर, परब्रह्म, अविनाशी, अनंत  और  महादेव आदि नामों से कहे जाते हैं।
   तुम अब भगवान शंकर के सुयश का  गान  करो, सदा  शिव के शतनाम स्तोत्र का पाठ करो। उन्हीं की उपासना और भजन करो। उन्हीं के यश को सुनो और गाओ। प्रतिदिन उन  की  ही  पूजा अर्चा करते रहो। भगवान शिव के  नाम  रूपी  नौका  का जो आश्रय लेते हैं, वे संसार सागर से पार हो जाते हैं। अब तुम जाओ और भगवान शिव का ध्यान करते हुए पहले उनके तीर्थ स्थानों के दर्शन करो और तत्पश्चात ब्रह्मलोक में जाकर  अपने पिता ब्रह्मा जी से भगवान शिव की भक्ति का ज्ञान  प्राप्त  करो और शिव भक्त होकर मोक्ष के भागी बनो।
   भगवान श्री हरि के अंतर्धान हो जाने पर मुनिश्रेष्ठ  नारद  जी शिवलिंगों का भक्ति पूर्वक दर्शन करते हुए  पृथ्वी  पर  विचरने लगे। उनके चित्त को  शुद्ध  हुआ  जानकर  वे  दोनों  शिव गण जिनको नारद जी द्वारा शाप मिला था, नारद जी के पास  आए और क्षमा याचना करने लगे। नारद जी  ने  दया  करके  उनको कहा कि सुनिए, आप  दोनों भगवान शिव के गण हैं और बहुत सम्माननीय हैं। मेरी बुद्धि भृष्ट हो गई थी।  अब  तुम  दोनों  मेरे द्वारा दिए शाप से उद्धार की बात सुनिए। तुम दोनों ही मुनीवर  विश्रवा   के वीर्य  से  जन्म  ग्रहण  करके  सम्पूर्ण  दिशाओं  में प्रसिद्ध ( कुंभकर्ण और रावण) के रूप में रक्षाश राज  का  पद प्राप्त करेंगे और शिव के ही दूसरे रूप भगवान विष्णु के  हाथों मृत्यु पाकर फिर अपने पद पर प्रतिष्ठित हो जाएंगे।
    तब नारद जी ने काशी पुरि समेत सभी शिव तीर्थ स्थानों के दर्शन किए और ब्रह्म लोक की ओर चल दिए।
                           ॐ नमः शिवाय
 
   

रविवार, 12 अप्रैल 2020

शिवपुराण (शिवलिंग की स्थापना) लेख संख्या - 3

                       शिवलिंग की स्थापना
   सूत जी कहते हैं कि अनुकूल एवं शुभ समय में किसी पवित्र तीरथ में, नदी आदि के तट पर अपनी  रुचि  के  अनुसार  ऐसे स्थान पर शिवलिंग की स्थापना करनी चाहिए जहां नित्य  प्रति पूजन हो सके।
   पार्थिव द्रव्य से, जलमय  द्रव्य  से  अथवा  तैजस  पदार्थ  से अपनी रुचि के अनुसार कल्पोक्त लक्षणों से युक्त शिवलिंग का निर्माण करके इसकी पूजा करने से पूरा पूरा फल  प्राप्त  होता है।
   यदि चल प्रतिष्ठा करनी हो तो इसके लिए छोटा सा शिवलिंग अथवा विग्रह श्रेष्ठ माना  जाता  है।  और  यदि  अचल  प्रतिष्ठा करनी हो तो स्थूल शिवलिंग अथवा  विग्रह  अच्छा  माना  गया है।
   शिवलिंग का पीठ गोल, चौकोर,  त्रिकोण  अथवा  खाट  के पाए की भांति  ऊपर  नीचे  मोटा  और  बीच  में  पतला  होना चाहिए।
   जिस  द्रव्य ( मिट्टी,  लोहे, पत्थर आदि )  से   शिवलिंग  का निर्माण हो, उसी द्रव्य से ही उसका  पीठ  भी  बनाना  चाहिए।
परंतु बाण लिंग के लिए यह नियम नहीं है।
   लिंग की लंबाई यजमान की 12 अंगुल से और चर लिंग  की लंबाई यजमान की एक अंगुल से कम नहीं होनी चाहिए। परंतु अधिक होने में दोष नहीं है।
   देवालय देवगणों की मूर्तियों से अलंकृत हो। उसका  गर्भग्रह बहुत ही सुंदर, सुदृढ और दर्पण के समान स्वच्छ होना चाहिए। उसे नौ प्रकार के रत्नों से विभूषित किया गया  हो।  उसमें  पूर्व और पश्चिम दिशा में दो द्वार हों।
   जहां स्थापना करनी हो उस स्थान के गर्त  में  नीलम,  लाल वैदुर्य, श्याम, मरकत, मोती, मूंगा,  गोमेद  और  हीरा - इन  नौ रत्नों को तथा अन्य महत्व पूर्ण द्रव्यों को वैदिक मंत्रों  के  साथ छोड़ें। सद्योजात आदि पांच  वैदिक  मंत्रों  द्वारा  शिवलिंग  का पांच स्थानों में क्रमशः पूजन करके अग्नि में हविष्य की  अनेक आहुतियां दे और परिवार सहित शिव पूजा करके  गुरु  स्वरूप आचार्य को धन से तथा सभी बंधुओं को मनचाही  वस्तुओं  से संतुष्ट करे। याचकों  को  जड़ (सुवर्ण, गृह एवं भू संपत्ति) तथा चेतन (गौ आदि) वैभव प्रदान करे।
   स्थावर एवं जंगम सभी प्रकार के जीवों को यत्नपूर्वक संतुष्ट करके वैदिक मंत्रों का उच्चारण करते हुए  परम  कल्याणकारी महादेव जी का ध्यान करे। तत्पश्चात नादघोश  से युक्त महामंत्र ओंकार (ॐ) का उच्चारण कारके शिवलिङ्गं की  स्थापना  कर के उसे पीठ से संयुक्त करे।  इसी  प्रकार वहां मूर्ति की भी उसी तरह स्थापना की जाए।
   फिर वैदिक विधि से पूजा की जाए। तब से  नित्य  प्रति  उस शिवलिंग की पूजा की जानी चाहिए।
   यदि चर लिंग है तो षोडशोपचार  पूजन  किया  जाए।  जैसे आवाहन, आसन, अर्घ्य, पद्य, पाध्यांग  आचमन,  स्नान,  वस्त्र एवं यज्ञोपवीत, गंध, पुष्प,  धूप,  दीप, नैवेद्य,  तांबूल  समर्पण, निराजन, नमस्कार और विसर्जन - यह सोलह उपचार हैं।  यह सब यथा शक्ति नित्य करें।
   स्थापना से संबंधित मुख्य बातें ही यहां  इस  लेख  में  लिख रहा हूँ। अन्यथा शिव पुराण ग्रंथ में तो इतने विस्तार से  बताया गया है कि उसे पूरा लिखने के लिए तो पूरी पुस्तक ही लिखनी पड़ेगी। मुख्य बात यह है कि शिवलिंग  की  स्थापना  विधिवत करनी चाहिए और शिवलिंग की पूजा नित्य प्रति  करने  से  ही पूर्ण फल की प्राप्ति होती है।
            विद्येश्वर संहिता के दूसरे मुख्य बिंदु
   विद्येश्वर संहिता में आगे मोक्षदायक पुन्यक्षेत्रों का  वर्णन  भी किया गया है जिसमें पवित्र नदियां जैसे सिंधु, सतलज,  नर्मदा सरस्वती, गंगा, कृष्णा आदि जिनके तटों पर  महान  पुरषों  के तपस्या करने से कई पुण्य क्षेत्र बन गए हैं। वहां पर जाकर  भी पुण्य कर्म करने  चाहिएं।  नैमिशारण्य  एवं  बद्रिकाश्रम  आदि कई  पुण्य क्षेत्रों की महिमा बताई गई है।
काल विशेष में विभिन्न नदियों के जल में स्नान आदि करने  के उत्तम फल के बारे में भी बताया गया है।
   इसके इलावा इस विद्येश्वर  संहिता  में  सदाचार,  शौचाचार, स्नान, भस्म धारण, संध्या वंदन, प्रणव जप, गायत्री जप, दान, न्यौता: धनोपार्जन तथा अग्निहोत्र आदि की विधि एवं  महिमा का वर्णन किया गया है।
   इसके बाद विद्येश्वर संहिता में अग्नि यज्ञ, देव यज्ञ, ब्रह्म  यज्ञ आदि का वर्णन किया गया है। इसमें यह भी स्पष्ट  किया  गया है कि सातों वारों का निर्माण भी भगवान शिव  ने ही  किया  है और साथ ही उनमें देव अराधना से विभिन्न प्रकार के फलों की प्राप्ति का वर्णन भी किया गया है।
   इसके बाद देश, काल, पात्र, और दान आदि का विचार और रुद्राक्ष धारण की महिमा तथा उसके विविध भेदों का वर्णन भी मिलता है।
   बताया गया है कि विद्येश्वर संहिता सम्पूर्ण सिद्दिओं  को  देने वाली तथा भगवान शिव की आज्ञा से नित्य मोक्ष  प्रदान  करने वाली है।
                        ॐ नमः शिवाय
       
 
 
 


   

गुरुवार, 9 अप्रैल 2020

शिवपुराण (परिचय) लेख संख्या - 2

                          विद्येश्वर संहिता
                      शिवपुराण का परिचय
   पूर्व काल में भगवान शिव ने एक ही पुराण ग्रंथ ग्रथित किया था जिसकी श्लोक संख्या सौ करोड़  थी।  जिसमें  शिव पुराण के एक लाख श्लोक हैं। इस शिव पुराण के  बारह भेद या खंड हैं। सृष्टि के आदि में निर्मित  हुआ  वह पुराण - साहित्य अत्यंत विस्तृत था।
   फिर द्वापर आदि युगों  में  द्वैपायन व्यास  आदि  ऋषियों  ने जब पुराण का अठारह भागों में विभाजन कर दिया, उस समय सम्पूर्ण पुराणों का संक्षिप्त  स्वरूप  केवल  चार लाख  श्लोकों का  रह गया।  उस समय  उन्होंने शिवपुराण का चौबीस हजार श्लोकों में प्रतिपादन किया। यही  इसके श्लोकों की  संख्या है। यह वेद तुल्य पुराण सात संहिताओं में बंटा हुआ है।
1. विद्येश्वर संहिता 2. रुद्र संहिता 3. शत रुद्र संहिता 4. कोटि रुद्र  संहिता  5. उमा  संहिता  6. कैलास  संहिता  7. वायवीय संहिता।
   शिव पुराण वेद के तुल्य प्रामाणिक तथा सबसे  उत्कृष्ट  गति प्रदान करने वाला, जीव समुदाय  के  लिए  उपकारक,  त्रिविध ताप का नाश करने  वाला और  विज्ञानमय  है। यह  धर्म, अर्थ काम और मोक्ष प्रदान करने वाला है। यह  पुराण  ईर्ष्या  रहित अंत: करण वाले विद्वानों के लिए जानने योग्य है।  जो बड़े  ही आदर से इसे पढ़ता और सुनता है, वह भगवान शिव का  प्रिय होकर परम गति को प्राप्त कर लेता है।
                साध्य - साधन आदि का विचार
   वेदांतसार सर्वस्वरूप  अद्भुत  शिवपुराण  की  कथा  आरंभ करते हुए सूत जी कहते हैं कि शिव पुराण में  भक्ति, ज्ञान और वैराग्य - इन तीनों का प्रीति पूर्वक गान किया गया है।  वर्तमान कल्प के आरंभ में छ: कुलों के महा ऋषियों को  सम्पूर्ण  तत्वों से परे परात्पर पुराण पुरुष के बारे में बताते हुए  ब्रह्मा  जी  ने  कहा  था  कि जहां से, मन सहित वाणी, उन्हें ना  पाकर  लौट  आती है  तथा जिनसे ब्रह्मा,  विष्णु,  रुद्र और  इन्द्र  आदि  से  युक्त  यह  सम्पूर्ण जगत  समस्त  भूतों  एवं  इन्द्रियों  के  साथ पहले प्रकट  हुए  हैं, वे ही यह देव, महादेव सर्वग्य एवं  सम्पूर्ण जगत  के  स्वामी  हैं। ये ही सबसे उत्कृष्ट हैं।  इनका  भक्ति  से ही  साक्षात्कार  होता  है।  दूसरे  किसी  उपाय  से कहीं उनका दर्शन नहीं  होता।  रुद्र, हरि, हर तथा अन्य देवेश्वर सदा  उत्तम भक्ति भाव  से  उनका  दर्शन करना चाहते हैं। भगवान शिव में भक्ति होने  से  मनुष्य  संसार बंधन से मुक्त हो जाता है। देवता के कृपा प्रसाद से उनमें भक्ति होती है और भक्ति से देवता का  कृपा  प्रसाद  प्राप्त  होता  है।  यह ठीक उसी तरह  है जैसे कि अंकुर से बीज और बीज से  अंकुर पैदा होता है। शिव  पद की प्राप्ति ही साध्य है और उनकी सेवा  ही  साधन  है।  जो  इच्छा रहित है वही  साधक   है।  वेदोक्त   कर्म  का  अनुष्ठान  करके उसके  महान फल को भगवान शिव के  चरणों  में  अर्पण कर देना ही परमेश्वर  पद  की  प्राप्ति  है। वही मुक्ति भी ही।
   भक्ति के साधन अनेक प्रकार के  हैं।  कान  से  भगवान  के नाम - गुण और लीलाओं का श्रवण, वाणी द्वारा उनका कीर्तन तथा मन के द्वारा उनका  मनन - इन  तीनों  को  महान  साधन कहा गया है। इन तीन साधनों को ही मुक्ति का  उपाय  बताया गया है।  ऋषियों ने सूत जी से पूछा कि हे सूत जी  जो  मनुष्य श्रवण आदि तीनों साधनों को करने में असमर्थ हो  वह  मनुष्य किस उपाय का अवलंबन करके मुक्त हो सकता है?
          भगवान शिव के लिंग एवं साकार विग्रह की
                          पूजा का महत्व
   सूत जी कहते हैं कि ऐसा व्यक्ति जो उपरोक्त साधन करने में असमर्थ है वह भगवान शंकर के  लिंग  एवं  मूर्ति की  स्थापना करके नित्य ही उसकी पूजा करे।  सूत जी आगे  कहते  हैं  कि केवल भगवान शिव की ही पूजा लिंग और मूर्ति दोनों रूपों  में की जाती है क्योंकि एकमात्र भगवान शिव  ही  ब्रह्म रूप  होने के कारण निष्कल (निराकार) कहे  गए  हैं।  रूपवान  होने  के कारण उन्हें सकल (साकार) भी कहा गया है। शिवलिंग उनके निष्कल स्वरूप का प्रतीक है तथा मूर्ति रूप उनके सकल रूप का प्रतीक है।
 ब्रह्मा जी और विष्णु जी को लिंगपूजन का महत्व बताना
   सूत जी कहते हैं कि एक बार ब्रह्मा और विष्णु जी द्वारा अंत रहित भीषण  अग्निस्तम्भ (ज्योतिर्मय स्तंभ) की  गहराई  और ऊंचाई की थाह लेने की चेष्टा की गई। जब  वे  ऐसा  नहीं  कर पाए तो वहीं पर महादेव जी प्रकट  हुए।  जब  विनम्र  भाव  से दोनों ने शंकर जी की पूजा की तो भगवान शिव ने मुस्करा कर कहा, -- आज का दिन बड़ा महान दिन है। इसमें  तुम्हारे  द्वारा जो आज मेरी पूजा हुई है, इससे मैं तुम लोगों पर  बहुत  प्रसन्न हूँ। इसी कारण यह दिन बहुत पवित्र  और  महान - से - महान होगा। आज की यह तिथि शिवरात्रि के नाम से विख्यात होकर मेरे लिए परम प्रिय होगी। शिवरात्रि में जो  शिवलिंग  की  पूजा करेगा वह पुरुष जगत की सृष्टि  और  पालन  आदि  कार्य  भी कर सकता है। जैसे पूर्ण चंद्रमा का उदय समुद्र  की  वृध्दि  का अवसर है, उसी प्रकार यह शिवरात्रि तिथि मेरे  धर्म  की  वृध्दि का समय है। पहले मैं जब ज्योतिर्मय स्तंभरूप से प्रकट  हुआ था, वह समय मार्गशीर्ष मास में आर्द्रा नक्षत्र से युक्त  पूर्णमासी या प्रतिपदा है। जो पुरुष मार्गशीर्ष मास  में  आर्द्रा  नक्षत्र  होने पर पार्वती सहित मेरा दर्शन करता है अथवा मेरी मूर्ति या लिंग की ही झांकी करता है, वह मेरे लिए कार्तिकेय से  भी  अधिक प्रिय है। उस दिन को मेरे दर्शन मात्र से  पूरा  फल  प्राप्त  होता है। यदि दर्शन के साथ साथ मेरा  पूजन भी  किया जाता है  तो इतना अधिक फल प्राप्त होता है कि उसका वाणी द्वारा  वर्णन नहीं हो सकता।
   वहां पर मैं लिंगरूप से प्रकट होकर बहुत बड़ा हो  गया  था। अत: उस लिंग के कारण ही यह भूतल  लिंगस्थान के  नाम  से प्रसिद्ध हुआ। जगत के लोग इसका दर्शन और पूजन कर सकें इसके लिए यह अनादि और अनंत  ज्योतिस्तंभ  अत्यंत  छोटा हो जाएगा। इसके यहां प्रकट होने  के  कारण  इस  स्थान  का नाम अरुणाचल प्रसिद्ध होगा।
   ब्रहमभाव मेरा निराकार और महेश्वर्भाव साकार  रूप है।  मैं ही सबका आत्मा हूँ। इसके इलावा जगत सबंधी अनुग्रह आदि जो पांच कृत्य हैं वे सदा मेरे  ही  हैं  क्योंकि मैं ही सबका ईश्वर हूँ। लिंग की स्थापना मूर्ति की स्थापना से श्रेष्ठ है।  शिवलिंग के अभाव में सब ओर से मूर्तियुक्त  होने  पर  भी  वह  स्थान  क्षेत्र नहीं कहलाता।
                   पांच कृत्यों का प्रतिपादन
   भगवान शिव बोले कि सृष्टि रचना, सृष्टि पालन, सृष्टि संहार, तिरोभाव और अनुग्रह - यही मेरे जगत संबंधी पांच कार्य हैं जो नित्य सिद्ध हैं। संसार की रचना का जो आरंभ है उसी को सर्ग या सृष्टि कहते हैं। मुझसे पालित होकर उसका सुस्थिर रूप  से रहना ही उसकी स्थिति है। उसका विनाश ही संहार  है।  प्राणों का उत्क्रमण (उन्नत होना) ही तिरोभाव कहलाता है। तथा  इन सब से छुटकारा (मोक्ष) मिल जाना ही अनुग्रह कहलाता है।       भक्तजन इन पांच कृत्यों को पांचों भूतों  में  देखते  हैं।  सृष्टि भूतल में, स्थिति जल में,  संहार  अग्नि  में,  तिरोभाव  वायु  में और अनुग्रह आकाश में स्थित है। पृथ्वी से सबकी  सृष्टि  होती है। जल से सबकी वृद्धि और जीवन रक्षा होती  है। आग  सभी को जला देती है। वायु सबको एक स्थान से दूसरे स्थान पर  ले जाती है। और आकाश सबको अनुग्रहित करता  है।  इन  पांच कृत्यों का भार वहन करने के लिए ही मेरे पांच मुख हैं। हे पुत्रो तुम दोनों ने तपस्या करके  प्रसन्न  हुए  मुझ  परमेश्वर  से  सृष्टि और स्थिति नामक दो कृत्य प्राप्त  किए  हैं।  इसी  प्रकार  मेरी विभूति स्वरूप रुद्र और महेश्वर ने दो अन्य उत्तम  कृत्य  संहार और तिरोभाव मुझसे प्राप्त किए हैं। परंतु अनुग्रह नामक कृत्य दूसरा कोई नहीं पा सकता। रुद्र और महेश्वर  अपने  कार्य  को भूले नहीं हैं। इसलिए मैंने उनके लिए  अपनी  समानता  प्रदान की है। वे रूप, वेष, कृत्य, वाहन, आसन और आयुध आदि में मेरे ही समान हैं।
               प्रणव एवं पंचाक्षर मंत्र की महत्ता
   भगवान शिव आगे कहते हैं कि सबसे पहले मेरे ही  मुख  से ओंकार (ॐ) प्रकट हुआ, जो मेरे स्वरूप का बोध कराने वाला है। ओंकार वाचक है और मैं वाच्य हूँ। यह मंत्र मेरा स्वरूप  ही है। मेरे ही पांचों मुखों से बारी बारी अकार, उकार, मकार, बिंदु और नाद का प्राकट्य हुआ। इन सभी अवयवों से  एकीभूत हो कर वह प्रणव ( ॐ ) नामक एक अक्षर हो गया।
   यह मंत्र शिव और शक्ति दोनों का बोधक  है।  इसी प्रणव से पंचाक्षर मंत्र की उत्पत्ति हुई है, जो मेरे सकल रूप  का  बोधक है। पंचाक्षर मंत्र है - ॐ नमः शिवाय। इसी मंत्र से मात्रिका वर्ण का, उसी से शिरोमंत्र सहित त्रिपदा गायत्री का और गायत्री  से आगे सम्पूर्ण वेद प्रकट हुए हैं। वेदों से ही भिन्न भिन्न कार्यों को सिद्ध करने के लिए करोड़ों मंत्र निकले हैं। परंतु इन प्रणव एवं पंचाक्षर से सम्पूर्ण मनोरथों की सिद्धि होती है।
   इस तरह से भगवान शिव ने ब्रह्मा और विष्णु जी के मस्तक पर करकमल रखकर धीरे धीरे उच्चारण करके उन्हें उत्तम मंत्र का उपदेश किया। इस तरह दोनों  को  मंत्र की  दीक्षा  दी।  यूं दोनों शिष्यों ने गुरु दक्षिणा के रूप में अपने आप को ही  शिव के लिए समर्पित कर दिया और  दोनों हाथ जोड़कर  जगत् के गुरु का स्तवन किया।
 हे शिव शम्भू हे परमेश्वर, नमस्कार निष्कल,  सर्वेश्वर।
 सर्वात्मा सभी के स्वामी, नमस्कार हे सकल महेश्वर।।
 प्रणव लिंग वाले हे स्वामी, प्रणव के दाता अन्तर्यामी।
 तुम से वेद मंत्र सब उपजे नमस्कार ब्रह्माण्ड के स्वामी।।
 पंच मुखी सबके दुख हरता सृष्टि स्थिति प्रलय के करता।
 तिरोभाव है कर्म तुम्हारा, भक्तजनों पर अनुग्रह करता।।
 पंच ब्रह्म स्वरूप है तेरा, सर्वात्मा ब्रह्म प्रभु मेरा।
 अनंत शक्तिओं का गुण तेरा, नमस्कार तू सद्गुरु मेरा।।
   इस तरह अपने गुरु महेश्वर की स्तुति करके ब्रह्मा और विष्णु जी ने उनके चरणों में  प्रणाम  किया। भगवान महेश्वर  ने दोनों को ज्ञान प्रदान किया, प्रणव  के जाप का  महत्व  बताया  और अन्तर्ध्यान हो गए।
                          ॐ नमः शिवाय
 
 
 

   
 
   

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2020

शिव पुराण (चंचुला और बिंदुग की कथा) लेख संख्या 01

भारतीय संस्कृति में, ईश्वर  की  उपासना की  अनेक  पद्धतियां रही हैं। किसी ने निराकार की, किसी ने  विष्णु जी  की, किसी ने शिव, किसी ने देवी की, किसी  ने श्री राम,  श्री कृष्ण  आदि अवतारों की उपासना की है। यहां  तक  कि  जल,  पृथ्वी,  गौ, वृक्षों आदि को भी भगवान माना गया है। भारतीय संस्कृति  में यह तो सभी मानते हैं कि सारे रूपों का श्रोत एक शक्ति ही  है जिसको कहते हैं ( परब्रह्म पमेश्वर)।  उपासक अपने संस्कारों के अनुसार किसी भी रूप में उस परम शक्ति की उपासना कर सकता  है।  उसकी  उपासना  अंततोगत्वा  उसी  एक परब्रह्म परमेश्वर की ही उपासना होती है। साधक जिस इष्ट को मानता है उसी के रूप में परब्रह्म परमेश्वर को  देखता है।  अर्थात  वह परब्रह्म परमेश्वर को उसी अपने इष्ट देव के रूप में ही देखता है और यह भी जानता है कि कण कण में उसी का वास  है।  यह भी कि उसके सिवाय  और  कुछ  भी  नहीं  है।  श्री व्यास जी ने 18 पुराणों की  रचना इस लिए ही की होगी  कि  इन महान  ग्रंथों  के अनुसार, भिन्न भिन्न  प्रकार के  साधक  अपने  अपने इष्ट  की उपासना करते  हुए  उस  परम  पुरुष  परमात्मा  तक पहुंच  सकें। फिर इससे अंतर नहीं पड़ता कि आप  किस  इष्ट  की  उपासना कर रहे हैं। क्योंकि सभी रूप एक परमशक्ति के ही हैं।  जिस रुप में  भी  साधक  पूर्ण  श्रद्धा और  विश्वास  के साथ समर्पण कर देता है, उसी रूप में उसको उस  परब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है।
                    श्री शिवपुराण महात्म्य
   शिव का अर्थ ही कल्याणकारी है। इस लिए यह तो  स्पष्ट ही है कि शिव कल्याणकारी हैं। शिव पुराण ही नहीं चारों वेद और स्मृतियों आदि सभी ग्रंथों ने सदा शिव की महिमा गाई है। शिव को अनादि, अजन्मा, अव्यक्त, स्रष्टा,  पालक,  संहारक,  परम तत्व, स्वयंभू, मंगलमय, सर्व  सिद्धिदायक  एवं  सर्वश्रेष्ठ  कहा गया है। विष्णु जी और  ब्रह्मा जी भी महादेव जी की  उपासना करते हैं। शिवपुराण में भी भगवान शिव  को  परब्रह्म  परमेश्वर ही माना है। शिवपुराण में भगवान शिव  के स्वरूप की  महिमा और उपासना का विस्तार से वर्णन मिलता है।
   शौनक जी ने महा ज्ञानी सूत जी से प्रश्न किया कि हे सूत जी ज्ञान और वैराग्य सहित भक्ति से प्राप्त  होने  वाले  विवेक  की वृद्धि कैसे होती है? काम आदि मानसिक विकारों का निवारण कैसे किया जाता है ? कलयुगी  जीवों  को  दैवी गुणों  से  युक्त बनाने के सर्वश्रेष्ठ  उपाय क्या हैं।  कृपया  ऐसा  साधन  बताएं जिसके करने से सदाशिव की प्राप्ति हेतु चित्त शुद्ध एवं  निर्मल हो जाए।
   शौनक जी के लोक कल्याण के लिए  पूछे गए इन  प्रश्नों  से प्रसन्न  होकर सूत जी ने कहा कि सम्पूर्ण शास्त्रों के सिद्धांत  से सम्पन्न, भक्ति आदि को बढ़ाने वाला, भगवान शिव  को  संतुष्ट करने वाला, कानों के लिए रसायन, अमृत स्वरूप, दिव्य,  एक परम उत्तम ग्रंथ है जिसका नाम है शिव पुराण। यह  पूर्व  काल में स्वयं भगवान शिव द्वारा वर्णित, काल के  त्रास  का  विनाश करने वाला शास्त्र है जिसका गुरुदेव व्यास जी ने  सनत कुमार मुनियों से उपदेश पाकर कलयुग में भूतल पर उत्पन्न होने वाले जीवों के कल्याण के लिए प्रतिपादन किया  था।  अब  मैं  उस परम पवित्र ग्रंथ का वर्णन करता हूं।  तुम  ध्यान  पूर्वक  श्रवण करो।
   वत्स, शिव पुराण ऐसा उत्तम शास्त्र है जिसे भगवान शिवजी का ही वांग्मय स्वरूप समझना चाहिए। श्रद्धा और विश्वास  के साथ इसका पठन और श्रवण करके मनुष्य सब पापों से  मुक्त हो जाता है, जीवन में बड़े बड़े उत्कृष्ट भोगों  का  उपभोग  कर के अंत में शिवलोक को प्राप्त कर लेता है।  श्रीशिव पुराण  के चौबीस हजार श्लोक हैं। इसकी  सात  संहिताएं  हैं।  यह  ग्रंथ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूप चारों पुर्शार्थों को देने वाला है।
               देवराज को शिवलोक की प्राप्ति
   सूत जी आगे इस ग्रंथ का महत्व बताते हुए कुछ  ऐसे  लोगों की उदाहरण देते हैं जिनको शिव पुराण सुनने से शिवलोक की प्राप्ति हुई। इनमे सब से पहली कथा देवराज की  है।  सूत  जी कहते हैं कि प्राचीन काल में एक देवराज  नामक  ब्राह्मण  था। वह अज्ञानी और दरिद्र था एवं वैदिक धर्म से  विमुख  भी  था। वह सत्कर्मों से भ्रष्ट हो चुका था। वह वैश्यावृत्ति में तत्पर, ठग, लोगों का धन छीनने वाला तथा कुमार्गगामी था।
   एक दिन दैवयोग से घूमता हुआ प्रतिष्ठानपुर (झूसी- प्रयाग) में जा पहुंचा। वह एक शिवालय में ठहर गया।  वहां  उसे  ज्वर आ गया। उसी शिवालय में शिव पुराण की कथा  हो  रही  थी। ज्वर के कारण वहीं पर पड़ा पड़ा कथा का श्रवण करता रहता था। एक मास के बाद ज्वर  से  अत्यंत  पीड़ित  होकर  उसकी मृत्यु हो गई। यमराज के दूत उसे पाशों में बांधकर यमलोक ले गए। इतने में ही शिवलोक से भगवान शिव के पार्षद  गण  आ गए। उनके गौर अंग  कर्पूर  के  समान  उज्जवल  थे।  हाथ में त्रिशूल थे और गले में रुद्राक्ष की मालाएं सुशोभित हो रही थीं। उनके सम्पूर्ण अंग भस्म से उद्भासित हो रहे थे। उनको देखकर धर्मग्य धर्मराज ने उनका  विधिपूर्वक  पूजन  किया  और  ज्ञान दृष्टि से सारा वृतांत जान लिया। शिवदूत उस ब्राह्मण  को  वहां से शिवलोक ले गए और वहां जाकर उन्होंने ब्राह्मण  को  सांब सदाशिव के हाथों में दे दिया।
           चंचुला तथा उसके पति बिंदुग का उद्धार
   सूत जी ने आगे कहा कि हे  शौनक जी  अब  मैं  तुम्हें  शिव भक्ति बढ़ाने वाली एक और कथा  कहता हूँ।  ध्यान  से  सुनो।
प्राचीनकाल में  समुद्र  के  निकटवर्ती  प्रदेश  में  एक  वाष्कल नामक गांव था। वहां रहने वाला बिंदुग नामक ब्राह्मण बड़ा ही अधम दुरात्मा और महापापी था।  उसकी चंचुला नामक सुंदर पत्नी थी जो सदा उत्तम  धर्म  के पालन में लगी रहती थी। वह पापी अपनी पत्नी को छोड़ कर वैष्यागामी हो गया था।  उधर उसकी स्त्री काम से  पीड़ित होने पर भी स्वधर्मनाश के भय से क्लेश सहकर भी  दीर्घकाल तक  धर्म से  भ्रष्ट नहीं हुई।  परंतु दुराचारी पति के  आचरण  से  प्रभावित हो  आगे चलकर  वह स्त्री भी दुराचारिणी हो गई।
     बिंदुग की मृत्यु होने पर वह नरक में जा पड़ा।  बहुत  दिनों तक यातनाएं सहने के उपरांत उसे विंद्यपर्वत पर एक  भयंकर पिशाच की  योनि प्राप्त  हुई। उसकी  पत्नी  बहुत  समय  तक अपने पुत्रों के साथ रही। एक दिन दैव योग से किसी पुण्य पर्व के आने पर वह भाई बंधुओं के साथ गोकर्ण क्षेत्र में गई।  तीर्थ के जल में स्नान किया। वहां उसने कथा भी सुनी। कथावाचक व्याभिचारिणी स्त्रियों को यमराज द्वारा दी जाने वाली सजा  के बारे में बता रहे थे। यह सुनकर वह भय के मारे  कांपने  लगी। उसने ब्राह्मण के आगे हाथ  जोड़  कर  अपने  उद्धार  के  लिए मार्ग बताने के लिए अनुनय  विनय की।  ब्राह्मण को  उस  स्त्री पर दया आ गई। ब्राह्मण ने कहा कि हे ब्राह्मण पत्नी तुम  शिव भगवान की शरण में जाओ। शिव की कृपा होने  से  सारा पाप तत्काल नष्ट हो जाता है। शिव कथा सुन कर ही  तुम्हारी  बुद्धि इस तरह पश्चाताप से युक्त एवं शुद्ध हो गई है। साथ ही  तुम्हारे मन में विषयों के प्रति वैराग्य हो गया है। केवल पश्चाताप से ही प्रायश्चित संभव है। शिव पुराण की  कथा  सुनने  से  चित्तशुद्दि होती है। मनुष्यों के शुद्ध चित्त में जगदम्बा पार्वती सहित  शिव भगवान  विराजमान रहते हैं। इस उत्तम कथा का श्रवण करना समस्त मनुष्यों के लिए कल्याण का  बीज  है।  यह भव  बंधन रूपी रोग का नाश करने वाली है। कथा को सुनकर फिर अपने हृदय में उसका मनन एवं निद्ध्यसन करना चाहिए।  चित्त  शुद्ध हो जाने पर ज्ञान और वैराग्य के साथ भक्ति  निश्चय  ही  प्रकट होती है। तत्पश्चात शिव के अनुग्रह से दिव्य  मुक्ति  प्राप्त  होती है। स्त्री के प्रार्थना करने पर ब्राह्मण ने  उसको  शिवपुराण  की सम्पूर्ण  कथा सुनाई। उसका चित्त शुद्ध हो गया। तब वह नित्य कथा का मनन और शिव भक्ति करने लगी। अब  वह  पूर्णतया विशुद्ध हो गई। उसने भगवान शिव में लगी  रहने  वाली  उत्तम बुद्धि पाकर शिव के सच्चिदानंद मय स्वरूप का बारंबार मनन एवं चिंतन आरंभ किया। तत्पश्चात समय के पूरे होने पर भक्ति ज्ञान और वैराग्य से युक्त हुई। उसने अपना शरीर  बिना  किसी कष्ट के त्याग दिया। इतने में त्रिपुर शत्रु भगवान शिव का  भेजा हुआ दिव्य विमान उसे लेने पहुंचा और  उसे  तत्काल  शिवपुरी में पहुंचा दिया। वह दिव्यांगना हो गई थी। शिव लोक पहुंचकर उसने सनातन देवता त्रिनेत्र धारी महादेव जी  के  दर्शन  किए। सभी मुख्य मुख्य देवता उनकी सेवा में खड़े थे। श्री गणेश जी, भृंगी, नंदीश्वर तथा वीरभद्र आदि उनकी सेवा में  उत्तम  भक्ति भाव से उपस्थित थे। उनकी अंग कांति करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशित हो रही थी। कंठ  में  नील  चिन्ह  शोभा  पाता  था।  उनके पांच मुख और प्रत्येक मुख में तीन तीन नेत्र थे।  मस्तक पर अर्ध चंद्राकार मुकुट शोभा देता था।  वामांग  भाग में  गौरी देवी शोभायमान थीं, जो विद्युत पुंज के समान  प्रकाशित  थीं। गौरी पति महादेव जी की कांति कपूर  के समान  गौर थी  और उनका सारा शरीर श्वेत  भस्म से  भासित  था।  शरीर  पर  श्वेत वस्त्र शोभा पा रहे थे। दर्शन करके वह  बड़े  प्रेम,  आनंद  और संतोष से युक्त हो विनीत भाव से खड़ी हो  गई।  पार्वती  जी ने उसे अपनी सखी बना लिया। तब वह अक्षय सुख का  अनुभव करने लगी।
        तुम्बुरु द्वारा शिवकथा सुनाकर बिंदुग का उद्धार
   चंचुला ने पार्वती जी से प्रार्थना की कि हे  गिरी  राज  नंदिनी आप समस्त सुखों को देने वाली और ब्रह्मा, विष्णु आदि  सभी देवताओं द्वारा सेव्य हो। आप ही संसार की सृष्टि, पालन  और संहार करने वाली हैं। तीनों गुणों का आश्रय  भी  आप  ही  हैं। आप ही पराशक्ति हैं। इस तरह स्तुति से पार्वती जी  को  प्रसन्न करके पूछा कि हे दीन वत्सले मेरे पति बिंदुग इस  समय  किस योनि में हैं ? मैं अपने पति से जिस प्रकार संयुक्त हो सकूं  वैसा ही उपाय कीजिए। उनकी मृत्यु मुझसे पहले ही हो गई थी।  ना जाने वे किस गति को प्राप्त हुए हैं।
   इस पर पार्वती जी ने कहा कि हे चंचुला तेरा पति बिंदुग  जो कि अपने कर्मों के कारण लंबे समय तक  नरक को  भोग  कर अब विंध्य पर्वत पर भयानक पिशाच योनि में रह  रहा है  और अनेकों दुःख झेल रहा है। यह सुन कर चंचुला  बहुत  दुखी  हो गई। उसे दुखी देख कर पार्वती जो  को  दया आ  गई।  उन्होंने भगवान शिव की उत्तम कीर्ति का गान करने  वाले  गंधर्व  राज तुम्बुरु को बुला कर सारी बात बताई और आदेश दिया कि वह बिंदुग को यतनपुर्वक पवित्र शिव पुराण की कथा सुनाए। कथा से उसका हृदय शुद्ध हो जाएगा और वह शीघ्र ही प्रेत योनि का परित्याग कर देगा। उसके बाद विमान पर बैठा  कर  उसे  मेरी आज्ञा से तुम शिव के समीप ले आओ।
   आज्ञा अनुसार गंधर्व राज तुम्बुरु विंध्य पर्वत  पर  गए।  वहां पर पिशाच को ब्लात पाषों से बांध कर  शिवपुराण  की  पवित्र कथा सुनाई गई। और भी बहुत सारे देवता  आदि  कथा  सुनने आए। कथा सुनने के उपरांत पिशाच का हृदय  शुद्ध  हो  गया। उसने पिशाच योनि का  परित्याग कर दिया।  विशुद्ध  हो  जाने पर उसे भी शिव लोक  की प्राप्ति  हुई।  उसे  वहां  पार्षद  बना दिया गया। दोनों पति  पत्नी  सनातन धाम में अविचल निवास पाकर सुखी हो गए।
                       ॐ नमः शिवायः
   

शुक्रवार, 24 जनवरी 2020

बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ ( राष्ट्रीय बालिका दिवस पर विशेष )

 मैं अशिक्षित से शिक्षित हुई, अबला से सबला।
पुरुष के कन्धे से कन्धा मिला,देश का भाग्य बदला।
पुरानी से लेकर नई तक, सब जिम्मेदारियां निभाती हूं।
ऑटो रिक्शा से लेकर, जहाज तक चलाती हूं।
सड़क पे चलते फिर भी, मेरी अस्मत क्यूं लुट जाती है।
उन नर रूपी दैत्यों को, फिर मौत, क्यूं नहीं आती है।
अस्मत लूटी, फूंक दिया, और मार दिया हथियारों से।
लड़की पूछ रही है, सभी समाज के ठेकेदारों से।
       आधी आबादी पर सदियों से  अत्याचार हो  रहा  है।  स्त्री को दूसरे दर्जे का नागरिक समझ कर और  उस की  उन्नति  में बाधक बन कर यह समाज  उसका  तो  नुकसान  कर ही  रहा है,दूसरी ओर पूरे समाज को  भी  पीछे  धकेल  रहा  है।  जिस समाज की नारी शिक्षित नहीं वो समाज हमेशा अधूरा ही रहता है। कहते हैं ना कि यदि परिवार की एक बेटी शिक्षित हो जाती है  तो एक नहीं बल्कि दो दो परिवारों को शिक्षित कर देती है।
       दुख होता है जब आज भी लोग  बेटी  को  अच्छी  शिक्षा देने के बजाए उसकी शादी की चिंता अधिक करते हैं।  उसकी शिक्षा पर खर्च करने के बजाए उसकी शादी के  लिए  धन  को संभाल संभाल कर रखते हैं। उसको अपने पैरों पर  खड़ा  होने में सहयोग देने के बजाय उसको पराई अमानत समझ कर एक अनजान परिवार में भेज देने की जल्दी करते हैं। वो  छोटी  सी परी जिसने आगे बढ़  कर  कल्पना चावला,  सानिया नेहवाल, सानीया मिर्जा आदि बनना था इसको कम उम्र  में  ही  गृहस्थ की बेड़ियां पहना दी जाती हैं।
        यहीं पर बस नहीं उससे भी बड़ा दुख तो इस  बात का है कि कई मनहूस प्राणी बेटी को पढ़ाने की बात तो दूर  बेटी  को पैदा होने से पहले ही उसकी जीवन लीला समाप्त कर  देते हैं। ऐसे लोग जिनकी इतनी घटिया और राक्षसी सोच है  और  जो बेटी को बोझ समझते हैं दरअसल वो स्वयं इस पृथ्वी पर बहुत बड़ा बोझ हैं। उनकी संवेदना मर चुकी है। वो आज तक समझ ही नहीं नहीं पाए कि जिस घर में बेटी पैदा नहीं  होती  वो  घर कितना निष्प्राण प्रतीत होता है। बेटी  ही  तो  घर  की  असली रौनक होती हैं। यह सब कुछ समझ पाना शायद उनके बस की बात भी नहीं है क्योंकि उनको तो स्वार्थ के आगे कुछ नज़र ही नहीं आता।  आज के युग का शायद सब  से  घृणित  अपराध बन गया है भ्रूण हत्या।
      रही सही कसर पूरी कर देते हैं नीच सोच  रखने  वाले  वो दरिंदे जो स्त्री को केवल वासना पूर्ति का साधन मान कर सारी मर्यादाओं को लांघ जाते हैं।
     वर्तमान सरकार की यह बहुत ही  कल्याण  कारी  योजना, बेटी ' पढ़ाओ बेटी बचाओ' अपने आप में एक अनूठी  योजना है जो बहुत पहले आ जानी चाहिए थी।  भारतीय  सरकार  के द्वारा इस योजना को 22 जनवरी, 2015 को कन्या  शिशु  के लिए  जागरूकता  का  निर्माण  करने  के  लिए  और  महिला कल्याण में सुधार करने के लिए शुरू किया गया था।
       इस योजना का उद्देश्य भ्रूण हत्या को रोकना, कन्या शिशु की रक्षा, शिक्षा के क्षेत्र में  महिलाओं की  भूमिका को  बढ़ाना, लिंग अनुपात को सही दिशा में बढ़ाना और छोटी  आयु  में  हो रहे विवाहों को रोकना आदि है।
      यह बात सही है कि केवल योजनाएं बना देने से बात नहीं बनती। इनको संकल्प पूर्वक लागू करना होता  है। और  खास करके वो योजनाएं जिनका संबंध लोगों की सोच  और उनकी मान्यताओं से हो, उनमें तो  और ज्यादा  सतर्कता,  जिम्मेदारी, कर्मठता और पक्के इरादे की आवश्यकता होती  है।  मुझे  तो पक्का विश्वास है कि सरकार और समाज के लोग पूरी तरह से संकल्प करके यदि इस योजना को  सफल  बनाने  का  प्रयास करेंगे तो सफलता का  कोई ना  कोई  मार्ग  आवश्य  ही  मिल जाएगा। कवि ने कहा है कि:
  सामने हो जब लक्ष्य हमारे, मन में गर विश्वास भरा हो
  कोई शंका हो ना मन में, चित्त हमारा पूर्ण खरा हो
  कितना भी मुश्किल हो चाहे, करने को जब तुल जाता है
  इच्छा जब संकल्प बने तो, एक झरोखा खुल जाता है

    

सोमवार, 20 जनवरी 2020

अंदर के रावण को कैसे जीतें

     हमारे अंदर हमेशा अच्छे और बुरे विचार  आते  और  जाते रहते हैं। हमारी मानसिक अवस्था सदा एक जैसी  नहीं  रहती। परंतु कुछ लोग ऐसे हुए हैं जिन्होंने प्रयत्न पूर्वक इस पर  कार्य किया और अपने अंदर  उठने  वाले  नकारात्मक  और  दुष्टता पूर्ण विचारों को नष्ट कर दिया। उन्होंने  अपने  अंदर  ऐसे  गुण भर लिए कि उनके अवगुण कम ही  नहीं  हुए  बल्कि  नष्ट  हो गए। जब किसी व्यक्ति की यह अवस्था बन जाती है तो  कहते हैं कि उसने अपने अंदर के रावण को जीत लिया है। ऐसे लोगों का संसार और अंतर मन दोनों बैकुंठ रूप  हो  जाते  हैं।  यही दर्शन हमें श्री रामचरितमानस में स्वामी  तुलसीदास जी  ने  भी दिया है।
 स्वामी तुलसी  दास जी द्वारा रचित श्री रामचरितमानस  में श्री राम रावण युद्ध के समय जब विभीषण ने देखा कि  रावण  तो युद्ध के लिए सब प्रकार  की  सामग्री लेकर और रथ पर सवार हो कर आया है और श्री राम जी के पास तो रथ भी नहीं है तो उसने बड़े ही अधीर। होकर, स्नेह  पूर्वक  भगवान राम  जी  से प्रार्थना करते हुए प्रश्न किया कि:-
                नाथ न रथ नहीं तन पद त्राना।
                केहि बिधी जितब बीर बलवाना।।
 हे रघुवीर, रावण तो रथ पर सवार होकर आया है  परंतु आप के पास ना तो कोई रथ है ना शरीर  की  रक्षा के  लिए  कवच है और ना ही पांव में  जूते हैं। ऐसे आप इतने  बलवान  योद्धा को कैसे जीत पाएंगे?
इस पर  विभीषण को उत्तर देते हुए और  संपूर्ण  मानव  जाति को एक संदेश देने के लिए  श्री राम जी ने कहा कि:-
                सुनहुं सखा कह कृपा निधाना।
                जेहिं जय होई सो स्यंदन आना।।
हे मित्र विभीषण , जिस से विजय प्राप्त हो सकती है, मैं  ऐसा रथ ले आया हूँ।
                 सौरज  धीरज तेहिं रथ चाका,
                 सत्य सील दृढ ध्वाजा पताका।
अर्थात इस रथ रथ  की  विशेषताएं यह हैं  कि शौर्य  और  धैर्य इसके दो पहिए हैं। सत्य और  शील (सदाचार) इसके मजबूत  ध्वजा पताका हैं।
                 बल बिबेक दम परहित घोड़े।
                 छमा कृपा समता रजु जोड़े।।
                 ईस भजनु सारथि सुजाना।
                 बिरती चर्म संतोष कृपाना।।
                 दान परसु बुद्धि सक्ति प्रचंडा।
                 बर बिज्ञान कठिन कोदंडा।।
                 अमल अचल मन त्रोन समाना।
                 सम जम नियम सिलीमुख नाना।।
                 कवच अभेद बिप्र गुरु पूजा।
                 एही सम विजय उपाय ना दूजा।।
                 सखा धर्ममय अस रथ जाकें।
                 जीतन कह न कतहुं रिपु ताकें।।
बल, विवेक, दम (इन्द्रियों को नियंत्रण  में  रखना) और  दूसरों का हित इस रथ के चार घोड़े हैं। क्षमा, दया और समता  रूपी  तीन  रस्सियां  हैं जिनसे इनको रथ  के  साथ  जोड़ा  गया  है। ईश्वर  का भजन इसका समझदार सारथी  है।  वैराग्य  ढाल  है और संतोष तलवार है। दान फरसा और बुद्धि प्रचण्ड शक्ति है। विशुद्ध विज्ञान कठिन धनुष है। निर्मल और स्थिर मन तरकश के समान है। शम (मन को नियंत्रण में  करना)  यम  (अहिंसा) और नियम आदि इस तरकश के तीर हैं।  विप्र और  गुरु  जनों की सेवा ही अभेद्य कवच है। इसी से विजय मिलती है।  इसके अतिरिक्त दूसरा कोई उपाय नहीं है। हे मित्र!जिसके  पास  इस प्रकार का धर्ममय रथ है, उसके लिए जीतने को कहीं  शत्रु  ही नहीं है। अर्थात उसका कोई शत्रु रहता ही नहीं है।
           महाअजय संसार रिपु, जीत सके सोई बीर।
           जाकें अस रथ होई दृढ, सुनहुं सखा मतिधीर।।
राम जी  विभीषण को  कहते हैं  कि  हे  धीरबुद्धि  वाले  सखा सुनो, जिस के पास इस प्रकार  का  रथ  है वो तो  महा  अजय संसार रूपी शत्रु (आवागमन का चक्र)  को  भी  जीत   सकता है। अर्थात रावण तो उसके सामने कुछ भी नहीं।
     इस दर्शन से पता चलता है कि हम व्यर्थ ही वाक  युद्ध  के द्वारा अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने  का   प्रयत्न  करते  रहते   हैं। एक दूसरे के प्रति घृणा, द्वेष आदि करते  हुए  भी अपने  आप को पवित्र और  विशुद्ध  दिखाने  का व्यर्थ  प्रयास  करते  रहते हैं। परंतु जो  करना  चाहिए  वो  नहीं  करते।  हमें  यह  समझ लेना चाहिए कि हमें  केवल  अपने आप  को  ही  ठीक  करना है,  दूसरों   को  नहीं  ऊपर   बताए   गुणों  (शौर्य,  धैर्य,  बल, विवेक, दृढता, सत्य, शील (सदाचार)  दम (इन्द्रिय  नियंत्रण),  दूसरों  का  हित  करना, क्षमा,  दया,  समता,  वैराग्य,  संतोष, दान, विशुद्ध वैज्ञानिक  बुद्धि, निर्मल  और  स्थिर  मन, अहिंसा और गुरु जनों कि सेवा का भाव) को धारण करके अपने अंदर के  राक्षस  को  जीत  लेना  है।  इतने  बड़े  ब्रह्मांड  में  इस  से बड़ा और कोई कार्य नहीं है।

गुरुवार, 9 जनवरी 2020

भजन

            भजन संख्या १. (हरि शरणम्)
 हरि शरणम् , हरि शरणम् , हरि शरणम् , हरि शरणम्।
 हरि शरणम् , हरि शरणम् , हरि शरणम् , हरि शरणम्।।
 प्रभु इतनी कृपा करना, संग संतों का दे देना।
 गुरु चरणों में मन लागे, व सेवा भाव दे देना।।
 हरि शरणम्............
 कृपा करना हरि मुझ पर, कथा में ध्यान हो मेरा।
 करूं किर्तन सदा तेरा, जुबान पे नाम हो तेरा।।
 हरि शरणम्...........
 मुझे वरदान दो कान्हा, तेरे गुण गाए यह वाणी।
 निहारूं रूप को तेरे, बहाऊं आंख से पानी।।
 हरि शरणम्...........
 उचित व्यवहार संयम ज्ञान, और वैराग्य दे देना।
 कभी पर दोष ना देखूं, मुझे संतोष दे देना।।
 हरि शरणम्.............
 जगत में तू दिखे ऐसी, मेरी दृष्टि बना देना।
 सरल छल हीन हो जाऊं, भरोसा तुझ में हो श्यामा।।
 हरि शरणम्.............

        भजन संख्या २. (जय मोहन माधव गिरधारी)
 जय मोहन माधव गिरधारी, केशव मुरलीधर बनवारी।
 जय मोहन माधव गिरधारी, केशव मुरलीधर बनवारी।।
 मन मंदिर में आन विराजो, राधा के संग श्याम।
 धुन वंशी की छेड़ो, मुझको संग नचाओ श्याम।।
 सर्वेश्वर मनमोहन तेरी, सूरत है प्यारी प्यारी।
 जय मोहन माधव गिरधारी..........
 कई जन्मों से भटक रही हूँ पद्मनाभ आ जाओ।
 वीराने मन में मनमोहन आ के रास रचाओ।।
 नयना तक तक हार गए हैं, मैं तेरे आगे हारी।
 जय मोहन माधव गिरधारी..........
 तेरी माया तू ही जाने और ना जाने कोई।
 जो ना तेरी ओर चली वो पकड़ के मस्तक रोई।।
 कृपा तेरी पर है मधुसूदन, निर्भर हैं बातें सारी।
 जय मोहन माधव गिरधारी...........

           भजन संख्या ३. (भज नारायण)
   भज नारायण, भज नारायण, नारायण भज रेे मन तू।
   भज नारायण, भज नारायण, नारायण भज रेे मन तू।।
   अत्याचारी लोगों के जब पाप कर्म बढ़ जाते हैं।
   भले लोग इन लोगों के पापों से जब भय खाते हैं।
   मानवता की रक्षा करने नारायण तब आते हैं।।
   भज नारायण भज नारायण..........
   वराह रूप रसातल से पृथ्वी को बाहर थे लाए।
   मन्वन्तर की रक्षा को थे मत्स्य रूप में हरि आए।
   सागर मंथन को नारायण कच्छप जैसे बन आए।।
   भज नारायण भज नारायण..........
   नृसिंह बन नारायण ने था हिरण्यकशिपु उद्धार किया।
   वामन रूप में देव बचाए बली पर भी उपकार किया।
   परशुराम अवतार में आकर पापियों का संहार किया।।
   भज नारायण भज नारायण..........
   राम चन्द्र जी ने रावण और कुंभकर्ण उद्धार किया।
   स्वयं कृष्ण ने लीलाओं से भक्तों पर उपकार किया।
   पाप मिटाया पृथ्वी से और धर्म का जय जयकार किया।।
   भज नारायण भज नारायण..........

        भजन संख्या ४ (श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारी)
    श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारी, हे नाथ नारायण वासुदेव।
    श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारी, हे नाथ नारायण वासुदेव।
               बड़ी ही सुंदर छवि है कान्हा,
               हो कैसे वर्णन कोई ना जाना।
               हृदय कमल में मेरे वीराजो,
               हे नाथ नारायण वासुदेव।।
    श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारी, हे नाथ नारायण वासुदेव।
               गले में वनमला सोहे सुंदर,
               मेघा सा रंग, सुंदर पीताम्बर।
               वक्ष स्थल पर मणि सुहाए,
               हे नाथ नारायण वासुदेव।।
    श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारी, हे नाथ नारायण वासुदेव।
               कानों में कुण्डल सर पे मुकुट है,
               चित को चुराए टेढ़ी भृकुटी है।
               अद्भुत यह क्या रूप की माधुरी है,
               हे नाथ नारायण वासुदेव।।
     श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारी, हे नाथ नारायण वासुदेव।
               चंदन से चर्चित श्री अंग सारा,
               अधरों पे बंसी चित्त का सहारा।
               बंसी बजैया गोपियन का प्यारा,
               हे नाथ नारायण वासुदेव।।
     श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारी, हे नाथ नारायण वासुदेव।

         भजन संख्या: ५ (यशोमती नंदन राधे श्याम)
     यशोमती नंदन, राधे श्याम, नंद  के  लाला  सुख के धाम।
     यशोमती नंदन, राधे श्याम, नंद के लाला  सुख के  धाम।।
     सर पर सुंदर मुकुट सुहावे, जो भी  देखे  अति सुख  पावे।
     कृष्ण नाम जो मुख से बोले, जीवन में वो कभी ना डोले।।
     देवकी पुत्र कृष्ण भगवान, नंद  के  लाला  सुख  के  धाम।
     यशोमती  नंदन, राधे श्याम, नंद के  लाला सुख के धाम।।
     अधरों  पे बंसी  क्या  सोहे,   रूप  माधुरी  मन  को  मोहे।
     लाखों काम देव भी क्या हैं, बाल कृष्ण की छवि जहां है।।
     गोपिअन के प्रियतम श्रीकांत, नंद के लाला सुख के धाम।
     यशोमती नंदन, राधे श्याम, नंद के लाला  सुख के  धाम।।
     मनमोहन  वासुदेव  सुदर्शन,   नयनम  में  तेरा  ही  दर्शन।
     भक्ति  दे  दो  हे  सर्वेश्वर,    चरणों  में  ले  लो  परमेश्वर।।
     ज्ञान विरक्ति का वरदान,  नंद  के  लाला  सुख  के  धाम।
     यशोमती नंदन, राधे श्याम, नंद के लाला  सुख के  धाम।।
     हृदय कमल में गोविंद आओ, केशव माधव दर्श दिखाओ।
     धुन मुरली की मुझे सुनाओ, राधा के संग  गोविंद आओ।।
     मन में बसो प्रभु आठों याम, नंद के लाला सुख  के  धाम।
     यशोमती नंदन, राधे श्याम, नंद के  लाला सुख के  धाम।।

         भजन संख्या ६. (भज मन सिया राम का नाम)
   भज मन सिया राम का नाम, अकारण कृपा करें मेरे राम।
   भज मन सिया राम का नाम, अकारण कृपा करें मेरे राम।

   भव भय हरने वाले राम, सब सुख करने वाले राम।
   काटें तीन ताप के फंदे, भले बुरे सब उसके बंदे,
   मेरे राम हैं सुख के धाम, भज मन सिया राम का नाम।
   भज मन सिया राम का नाम, अकारण कृपा करें मेरे राम।

   मोहिनी आंखों वाले राम, मुख, कर, पद सब कमल समान।
   लाखों कामदेव भी क्या हैं, राम चन्द्र की छवि जहां है।
   नीर भरे मेघा से श्याम, भज मन सिया राम का नाम।
   भज मन सिया राम का नाम, अकारण कृपा करें मेरे राम।

   सर पर सुंदर मुकुट सुहावे, जो मुख देखे अति सुख पावे।
   राम राम जो मुख से बोले, जीवन में वो कभी ना डोले।
   पार उतारें प्यारे राम, भज मन सिया राम का नाम।
   भज मन सिया राम का नाम, अकारण कृपा करें मेरे राम।

   दीन दुःखी की पीड़ा हरते, दैत्य सदा रघुवर से डरते।
   मन मंदिर में आओ राम, हृदय कमल पर बैठो राम।
   भक्ति का दीज्यो वरदान, भज मन सिया राम का नाम।
   भज मन सिया राम का नाम, अकारण कृपा करें मेरे राम।

बुधवार, 8 जनवरी 2020

गुरु वंदना

प्रथम गुरु जी की वंदना, फिर गणपति का ध्यान।
गुरु शरण बिन ना मिले पूर्ण ब्रह्म का ज्ञान।
सर्व प्रथम ब्रह्म ज्ञान प्रदान करने वाले गुरु जी की वंदना करता हूँ। उसके बाद कल्याण करता और विघ्नहर्ता  गणेश  जी  का ध्यान करता हूँ। जब तक मनुष्य  सच्चे  गुरु  की  शरण  ग्रहण नहीं करता तब तक उसे पूर्ण ब्रह्म का ज्ञान  प्राप्त  नहीं  होता।
ज्ञान हीन पर सतगुरु कृपा कीजिए आन।
निर्मल मन कर दास का दो भक्ति का दान।।
मुझ में बिल्कुल  भी ज्ञान नहीं है।  हे सतगुरु आप आकर  मुझ पर कृपा करें। आप मेरे चित्त को ऐसा निर्मल बना दें कि  उसमें भक्ति का प्रवेश हो जाए।
जय गुरुदेव ज्ञान भंडारी, हरहू नाथ मम संकट भारी।
ज्ञान विहीन मूर्ख मैं प्राणी, शरण तुम्हारी आया स्वामी।।
हे गुरुदेव आप ज्ञान  के  भंडार हैं  और  आप  ही  ज्ञान  प्रदान करने वाले हैं। आप मेरे तीनों तापों से होने वाले संकट दूर करो मैं तो मूर्ख हूं और अपना भला बुरा कुछ नहीं जानता।हे स्वामी आप मुझे अपनी शरण में ले लो।
गुरु बिन ना कोई पार लगावे, अंधा राही धोखा खावे।
गुरु देव हर देव तुम्हीं हो, ब्रह्मा, विष्णु, महेश तुम्हीं हो।।
जैसे एक अंधे व्यक्ति को रास्ता दिखाई नहीं देता उसी तरह ही  ब्रह्म ज्ञान रूपी आंखें ना होने के कारण मैं  अंधा  मुसाफिर हूँ  जो गुरु के रास्ता दिखाए बिना भव सागर  को  पार  नहीं  कर सकता। मेरे लिए सभी देवता आप में ही हैं। मेरे लिए आप ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं।
तुम्हीं पिता हो तुम्हीं हो माता, तुम्हीं सखा हो तुम्हीं हो भ्राता।
जगत पिता हो सबके स्वामी, सर्व व्यापक अन्तर्यामी।।
आप ही मेरे पिता, माता, और भ्राता हैं। मैं  आप  में  ही  परम पिता परमात्मा के दर्शन करता हूं। मेरे लिए  आप  ही  परब्रह्म परमेश्वर हैं जो कण कण में व्याप्त हैं। 
हर कोई निस दिन तुम्हें ध्यवे, तुम बिन ईश्वर कोई ना पावे।
वेद, शस्त्र महिमा तुद गावे, महापुरुष सब ध्यान लगावें।।
हे गुरुदेव जिस ईश्वर का सब लोग और बड़े बड़े  महापुरुष  भी नित्य ध्यान करते हैं और जिसकी वेद और शास्त्र  महिमा  गाते हैं उसको आप की कृपा के बिना  पाया  नहीं  का  सकता  इस लिए मैं आप को उसी परमात्मा का स्वरूप मानता हूँ।
गुरु नाम से मन हर्षाए, तन मन सब जागृत हो जाए।
अंतर के पट खुलते जाएं, ज्यों ज्यों गुरु का नाम ध्याएं।।
आप का नाम सुन कर मेरा मन हर्षित हो  जाता  है।  मेरा  तन मन सब जागृत हो जाता है। जो भी आप द्वारा  दिए  नाम  को जैसे जैसे लेता है वैसे वैसे उसके अंतर के पट खुलते जाते हैं।
गुरुदेव की महिमा भारी, गुरुदेव की लीला न्यारी।
कृपा गुरु की जब हो जावे, अवगुण सारे दूर भगावे।।
गुरु की महिमा अपरंपार है। उसकी लीला इतनी  न्यारी  है  कि गुरु अपने शिष्य पर कृपा करके उसके सारे  अवगुण  दूर  कर देता है।
चंचलता मन की हट जावे, ज्ञान ध्यान की दौलत पावे।
संग गुरु का जब हो जावे, आशिर्वाद मिले सुख पावे।।
गुरु के संग से ही शिष्य ज्ञान और ध्यान रूपी दौलत पा लेता है और उसके मन की चंचलता मिट जाती है।  गुरु के  आशिर्वाद से उसे असली सुख की प्राप्ति हो जाती है।
जगत पसारा समझ में आवे, अंतर मन में जोत जगावे। 
गुरु शरण में जो भी जावे, मिटे अंधेरा रौशनी पावे।।
गुरु की शरण ग्रहण  करने  से  शिष्य  के  मन  से  अज्ञान  का अंधकार समाप्त हो जाता है और  ज्ञान  का  नित्य  प्रकाश  हो जाता है जिस से उसे यह पता भी चल जाता है कि सारी  सृष्टि परमात्मा का ही विस्तार है। 
गुरुदेव का ध्यान लगावे, नाम दान गुरुदेव से पावे।
धन संपदा से ध्यान हटावे, हरि नाम की दौलत पावे।।
गुरुदेव से नाम का दान ग्रहण करके जब शिष्य गुरु  और  हरि का ध्यान करता है उसका ध्यान सांसारिक वस्तुओं  से  अपने आप दूर हो जाता है।
ध्यान मग्न संसार भुलावे, संकट मिटे बहुत सुख पावे।।
इष्ट देव साक्षात करावे, हरि नाम से सद्गति पावे।
गुरु द्वारा दिए गए ज्ञान और ध्यान से ही शिष्य के संकट मिटते हैं, नित्य सुख मिलता है, संसार से ध्यान हट जाता है और अंत में उसे इष्टदेव के दर्शन हो जाने से सद्गति  प्राप्त हो जाती है।
हरि चरणों की करे आरती, हरि चरणों में शीश निवावे। 
ब्रह्म रूप को याद करे, और ब्रह्म रूप ही खुद हो जावे।।
गुरु की कृपा से ही शिष्य इस योग्य हो पाता है कि वो  भगवान की आराधना कर सके, पूजा कर सके उसे याद करता रहे और एक दिन स्वयं भी उसी में मिल जाए।
गुरुदेव कल्याण करे, और गुरु देव ही कष्ट मिटावे।
गुरु देव ही शरण में ले, और गुरुदेव ही पार लगावे।।
यह सब कुछ गुरु कृपा से ही हो सकता है। इसी लिए कहा  है कि प्राणी का कल्याण करने वाला गुरु है, सारे कष्ट दूर  करने वाला और अपनी शरण में लेकर भव सागर से  पार  उतारने वाला भी गुरु ही है।
जो नर मन चित लाए के, करे गुरु का ध्यान।
कृपा करें गुरुदेव जी, संकट कटें तमाम।।
 जो व्यक्ति अपना चित्त गुरु के चरणों में  लगा देता है उस  पर गुरु स्वयं कृपा करते हैं उसे फिर सांसारिक और भवसागर का रास्ता पार करने के कष्टों की कोई चिंता नहीं  रह  जाती।  गुरु स्वयं ही उसको पार कर देते हैं।
                    गुरुदेव जी की आरती
जय जय जय गुरुदेव, स्वामी जय जय जय गुरुदेव।
गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णु,    जय गुरु देव  महेश।।  ॐ जय...
गुरु बिन घोर अंधेरा, गुरु बिन ज्ञान नहीं।
गुरु  शरण  बिन  बंदे,        पावे  मान  नहीं।।  ॐ जय...
कष्ट क्लेश सब मन के, पल में दूर करे।
ज्यों ही शिष्य जुबां पर, गुरुजी का नाम धरे।।  ॐ जय...
तन मन धन सब अर्पण, जो कर देता है।
नाम दान  पाकर  वो,    मोक्ष  पद  लेता  है।।   ॐ जय...
अहम् त्याग कर खुद को, गुरु जी की शरण करे।
गुरु  कृपा  से  वह,       भवसागर  पार  तरे।।   ॐ जय...
गुरु देव जी की आरती, जो कोई नर गावे।
गुरु कृपा  से  वह,    मनवांछित  फल  पावे।।   ॐ जय...