शनिवार, 28 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवत महापुराण लेख संख्या 38 (श्रीकृष्ण पत्नियों और वज्र नाभ का उद्धार)

                      परीक्षित - वज्र नाभ संवाद
       श्रीकृष्ण जी के अपने धाम को चले जाने के बाद  अर्जुन द्वारिका से सभी स्त्रियों को इंद्रप्रस्थ ले आए।  श्रीकृष्ण जी  के वंश में उनके पौत्र अनिरुद्ध के पुत्र वज्रनाभ को उन्होंने  मथुरा मंडल का राजा बना दिया।  पांडवों के स्वर्गारोहण के बाद श्री परीक्षित जी ने  अपना कर्तव्य समझते हुए  वाज्रनाभ के पास जाने का निर्णय किया। वहां पहुंचने पर वज्र नाभ बहुत प्रसन्न हुए और प्रणाम करके उनको महलों में ले गए।
       परीक्षित जी के कुशल क्षेम पूछने पर वज्र नाभ ने बताया कि यहां पर कोई प्रजा ही नहीं है।  जहां प्रजा ही नहीं वहां पर शासन किस पर करना है। मुझे तो पता ही नहीं कि सारी प्रजा कहां चली गई।  इस पर परीक्षित जी ने इसका उत्तर जानने के लिए नंद जी के गुरु महर्षि शांडिल्य जी को बुलाया।
               नित्य एवं वास्तविक लीला विहार
       परीक्षित जी द्वारा  निवेदन  करने पर  महर्षि शांडिल्य जी ने कहा कि इस स्थान का नाम व्रज है।  व्रज  शब्द  का  अर्थ है व्यापक और व्यापक तो केवल भगवान हैं। इस लिए व्रज नाम भगवान का ही है।  व्रज  में आज भी श्री कृष्ण  का  वास्तविक लीला विहार नित्य चलता रहता है।  परंतु सब लोग उनकी इस लीला को देखने के अधिकारी नहीं हैं।  इस  लिए  आपको यह स्थान निर्जन लग रहा है।  समय  आने  पर आपको श्री उद्धव  जी द्वारा श्रीमद्भागवत सुनाई जाने के  बाद  आपकी  भी  ऐसी स्थिति बन जाएगी जिस स्थिति में उस  लीला  के  दर्शन  आप कर पाओगे। तब तक हे वज्र नाभ  आप  इस  व्रज  का सेवन  करते  रहो  और यहां पर  बाहर से लोगों को  लाकर  बसाओ। इसके इलावा प्रभु  श्री कृष्ण  जी की  लीलाओं के  स्थानों  का पता लगा कर  उन स्थानों के  नाम भी  भगवान  द्वारा  की गई लीलाओं के नाम पर ही रखना।
            कालिंदी जी और श्रीकृष्ण पत्नियों का संवाद
     एक दिन श्रीकृष्ण विरह वेदना से व्याकुल श्रीकृष्ण जी की 16000 रानियां अपने  प्रियतम  की  चतुर्थ  पटरानी  कालिंदी (यमुना जी) को आनंदित देख कर पूछने लगीं कि  उसे  उनकी तरह विरह वेदना क्यों नहीं सता रही है। यमुना जी ने हंसते हुए उत्तर दिया कि अपनी आत्मा में ही रमण करने के कारण  प्रभु श्रीकृष्ण आत्मा राम हैं। उनकी आत्मा  हैं - श्री  राधा  जी।  मैं दासी की भांति श्री राधा जी की सेवा में रहती  हूँ।  यह  उनकी सेवा का ही प्रभाव है कि विरह  मुझे  स्पर्श  नहीं  कर  सकता। श्रीकृष्ण जी की सभी रानियां, श्री  राधा  जी  के  ही  अंश  का विस्तार हैं। राधा कृष्ण का नित्य संयोग है।  इसी  तरह  उनकी अंश होने के कारण सभी रानियों  को  भी  भगवान  का  नित्य संयोग प्राप्त रहता है। श्रीकृष्ण ही राधा और राधा जी श्रीकृष्ण हैं। उन दोनों का प्रेम ही वंशी है।  तथा  राधा  की  प्यारी  सखी चंद्रावली भी श्रीकृष्ण चरणों के नख रूपी चंद्रमाओं  की  सेवा में आसक्त रहने के कारण ही चंद्रावली नाम से कहीं जाती  है। मैंने श्री राधा जी में ही रुक्मिणी आदि का  समावेश  देखा  है। तुम लोगों का भी सर्वांश में श्री कृष्ण के साथ वियोग नहीं हुआ है। परंतु तुम इस रहस्य को इस  रूप  में  जानती  नहीं हो। इस लिए इतनी व्याकुल हो। जैसे गोपियों का विरह  उद्धव  जी  के द्वारा दिए गए ज्ञान से दूर हुआ था, उसी प्रकार  यदि  तुम  सब को उद्धव जी का सत्संग प्राप्त हो जाए, तो तुम सब भी  अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के साथ  नित्य  विहार  का  सुख  प्राप्त  कर लोगी। यमुना जी ने आगे कहा कि उद्धव जो साक्षात स्वरुप में बद्रिकाश्रम में ही रहते हैं।  परंतु  साधन  की  फलरूपा  भूमि - व्रज भूमि है,  इसे भी इसके रहस्यों सहित भगवान ने पहले ही उद्धव जी को दे दिया था। परंतु वह  फल  भूमि, श्री  कृष्ण जी के अन्तर्ध्यान हो जाने के साथ ही स्थूल  दृष्टि से  परे जा  चुकी है। अर्थात स्थूल शरीर से उसे देखा नहीं जा सकता। इस लिए उद्धव जी प्रत्यक्ष रूप से दिखाई नहीं पड़ते। फिर भी  गोवर्धन पर्वत के निकट भगवान की लीला सहचरी गोपियों की  विहार स्थली है। वहां की लता, अंकुर और बेलों के रूप में अवश्य ही उद्धव जी वहां निवास करते हैं। उद्धव जी को  श्रीकृष्ण  जी ने अपना उत्सव स्वरूप भी प्रदान किया है।  भगवान  का उत्सव उद्धव जी का अंग है। वह उससे अलग नहीं रह सकते।
     इस लिए अब तुम वज्र नाभ को लेकर जाओ  और  कुसुम सरोवर के पास ठहरो। संगीतमय कीर्तन के  महान  उत्सव को आरंभ करो। उनका दर्शन आवश्य होगा। वही आपके  मनोरथ को पूर्ण करेंगे।
     जब सच्चे भाव से संकीर्तन शुरू किया गया तो सभी  लोग एकाग्र हो गए। उन सब की दृष्टि और उनके मन की वृत्ति कहीं और ना जाती थी। लताओं से प्रकट होकर श्री  उद्धव  जी  भी सबके सामने आ गए। उनको उपस्थित देख  कर  सभी  प्रसन्न हो गए।
          उद्धव जी द्वारा भागवत कथा का महत्त्व बताना
     श्री उद्धव जी कहने लगे, "श्रीकृष्ण जी  का  प्रकाश  प्राप्त हुए बिना किसी को भी अपने स्वरूप का बोध नहीं हो  सकता जीवों के अंत: करण में जो श्रीकृष्ण तत्व  का  प्रकाश  है, उस पर सदा माया का पर्दा पड़ा रहता है।  श्रीकृष्ण  अवतार  वाले समय के इलावा यदि किसी और काल  में कोई  श्रीकृष्ण  तत्व का प्रकाश पाना चाहे तो उसे वह श्रीमद्भागवत से ही प्राप्त कर सकता है। श्रीमद्भागवत में श्रीकृष्ण साक्षात रूप में विराजमान रहते हैं। इसके पढ़ने, सुनने, सुनाने और इसके चिंतन करने  से ज्ञान, बल ,धन और आरोग्य की प्राप्ति भी होती है परंतु  इससे सब से उत्तम फल जो मिलता है वो है श्रीकृष्ण जी की  प्राप्ति।
अपनी ही माया से पुरुष रूप धारण  करने  वाले  परमात्मा  ने जब सृष्टि के लिए  संकल्प किया, तब  उनके  दिव्य  विग्रह  से तीन पुरुष: रजोगुण  की  प्रधानता  से  ब्रह्मा (सृष्टि निर्माण  के लिए), सत्वगुण  की  प्रधानता  से विष्णु (सृष्टि पालन करने के लिए) और  तमोगुण  की  प्रधानता  से  रुद्र  (सृष्टि के संहार के लिए) प्रकट हुए। परमात्मा  ने  ही  इन  तीनों को श्रीमद्भागवत का ज्ञान देते हुए कहा कि इसी ज्ञान की शक्ति से ही आप सभी अपने अपने कार्य कर सकोगे।  इसी  ज्ञान  से  वे  पूर्ण  रूप से सामर्थ हुए।
     वज्र नाभ ने अपने पुत्र प्रति बाहु को मथुरा का  राजा  बना दिया और एक महीने तक माताओं  के  साथ  ही  कथा  सुनी। सभी श्रोताओं ने अपने आप को भगवान के स्वरूप  में  स्थित देखा। माताएं विरह वेदना से छुटकारा पाकर श्रीकृष्ण  जी  के परमधाम में प्रविष्ट हो गईं। बाकी के सभी  श्रोतागण  भी  प्रभु श्रीकृष्ण जी की अंतरंग लीला में सम्मिलित  होकर  इस  स्थूल व्यावहारिक जगत से तत्काल अन्तर्ध्यान हो गए।  उनके  दर्शन आज भी भावुक भक्तों को हो जाते हैं।
     सूत जी कहते हैं कि जो लोग भगवत प्राप्ति की कामना से इस कथा को सुनेंगे और कहेंगे उनको भगवान  की  प्राप्ति  हो जाएगी और उनके दुखों का सदा के लिए अंत हो जाएगा।
                     जय श्री कृष्ण जी की
                              समाप्त
सभी पाठको का इस दास की ओर से लेखों को पढ़ने के  लिए और पसंद करने के लिए धन्यवाद। श्रीकृष्ण जी आपकी भक्ति और श्रद्धा को और बढ़ाते  हुए आप  सभी  पर अपनी  करुणा का अमृत बरसाते रहें। जय जय श्री राधे कृष्ण जी की।
                             धन्यवाद
 

शुक्रवार, 27 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवत महापुराण लेख संख्या 37 (यदुवंश संहार एवं श्रीकृष्ण स्वधाम गमन)

                     यदुवंश को ऋषियों का शाप
     भगवान श्री कृष्ण जी ने श्री बलराम जी के  साथ  मिलकर बहुत से दैत्यों और अन्य पापी योद्धाओं का संहार  कर  दिया। कौरवों और पांडवों में भी शीघ्र मार काट मचाने वाला अत्यन्त प्रबल ' कलह ' उत्पन्न करके पृथ्वी  का भार  उतार  दिया। श्री कृष्ण जी ने विचार किया कि बहुत सारे यदुवंशी  भी अति उग्र स्वभाव के हैं। कल को वे भी पृथ्वी पर उत्पात करेंगे। भगवान ने ऋषियों के शाप के बहाने अपने ही  कुल  का  संहार  करवा दिया। सब को समेट कर अपने धाम में ले गए।
     एक  बार  विश्वामित्र,  असित, कण्व, दुर्वासा, भृगु, अंगिरा, कश्यप, वामदेव, अत्रि, वशिष्ठ और नारद आदि ऋषि  द्वारिका के पास ही पिंडारक क्षेत्र में जाकर निवास करने  लगे थे।  एक दिन यदु वंश के कुछ  उद्दंड बालक  जांबवती  नंदन  सांब  को स्त्री वेष में सजाकर उनके पास ले गए  और  कहने  लगे  कि,  "यह सुंदरी गर्भवती है। हे महृषिओ आप हमें बताने  की  कृपा करें कि यह स्त्री कन्या को जन्म देगी या पुत्र को।" ब्राह्मणों  ने क्रोधित होकर कहा कि मूर्खो यह एक ऐसा मूसल पैदा  करेगी जो तुम्हारे कुल का नाश करने वाला होगा।  ऋषियों  का  शाप सुन कर वे डर गए। वहां से तो वे  चले  गए  परंतु  जब  पेट के कपड़े को खोल कर देखा तो एक मूसल  ही  निकला।  उन्होंने राज्य सभा में जाकर सारी बात  बताई।  उग्रसेन  ने  बिना  श्री कृष्ण जी से पूछे निर्णय ले लिया और आदेश दिया  कि  मूसल का चूरा बना कर समुद्र में डाल  दिया  जाए।  मूसल  का  चूरा बना दिया। परंतु एक छोटा टुकड़ा बच गया। सारा  चूरा  बाकी बचे टुकड़े समेत समुद्र में फैंक दिया गया। वो चूरा तो समुद्र के किनारे लग गया। वही चूरा थोड़े दिनों में एरक ( बिना गांठ की एक घास) के रूप में उग आया। जो लोहे का  टुकड़ा  बचा था उसे एक मछली निगल गई। जरा  नाम  के  एक  व्याध ने  इस मछली के पेट से  निकले  लोहे  को अपने  बाण  की  नोक पर लगा लिया। काल  रूप धारी  भगवान श्रीकृष्ण  ने  ऋषियों के इस शाप का अनुमोदन ही किया था।
                   उद्धव जी का बद्रिकाश्रम गमन
     उद्धव जी श्रीकृष्ण जी के परम भक्त थे। उनको भगवान ने उपदेश देकर बद्रिकाश्रम भेज दिया। उद्धव  जी  के  पूछने  पर भगवान ने एक सच्चे भक्त के लक्षण इस  तरह  से  बताए। श्री कृष्ण जी ने कहा," मेरे भक्त को चाहिए कि 1.अपने सारे कर्म मेरे लिए ही  करे, मेरा  स्मरण  करता  रहे।  कुछ  ही  दिनों  में उसका मन और चित्त मुझ में समर्पित हो  जाएंगे। 2. मेरे  प्रिय भक्तों के आचरण का अनुसरण करे। 3.मेरे  महोत्सवों को मन से मनाए। 4. सब में मुझे ही देखे। 5. लोक  लज्जा  को  छोड़ मेरा हो जाए। मेरे ऐसे भक्त के सारे संदेह अपने  आप  समाप्त हो जाते हैं। यही श्रेष्ठ साधन है। आत्म समर्पण से ही  मैं  प्राप्त हो जाता हूँ।
     भगवान की बातों को सुनने के बाद उद्धव  जी  ने  कहा, हे भगवान अब आप  मुझे  ऐसी आज्ञा  प्रदान  करें  जिससे  मेरी आपके चरण कमलों में अनन्य भक्ति बनी रहे।  श्रीकृष्ण जी ने कहा कि अब तुम मेरी आज्ञा से  बदरिक  वन में  चले  जाओ। वह मेरा ही आश्रम है। वहां मेरे चरण  कमलों  के  धोवन  गंगा जल से स्नान पान करना। किसी  भोग  की  इच्छा  ना  करना, अपने में मस्त रहना, मेरे स्वरूप के ज्ञान और अनुभव  में  डूबे रहना और भागवत धर्म के प्रेम में रम जाना। अंत में तुम तृगुण और उनसे संबंध रखने वाली हर गति  को  पार  करके  उनसे  परे मेरे परमार्थ स्वरूप में मिल जाओगे। उद्धव जी ने भगवान  की परिक्रमा की चरणों पर  सिर  को  रक्खा  और अश्रु  धारा  बहाते हुए विह्वल हो उठे।  बारंबार  प्रणाम  करके  और दिव्य  छवि  को धारण किए हुए बद्रिकाश्रम की ओर चल पड़े।
                         यदुकुल का संहार
      भगवान ने सुधर्मा सभा में यदुवंशियों को  कहा कि  हमारे अनिष्ट के सूचक भयंकर उत्पात होने लगे हैं। अब हमें  यहां दो घड़ी भी नहीं ठहरना चाहिए।  स्त्रियां, बच्चे  और  बूढ़े  यहां से शंखोद्वार क्षेत्र में चले जाएं, और हम लोग प्रभास क्षेत्र में  चलें। वहां पूजा दान आदि करेंगे।  श्री कृष्ण जी की बात सुन  करके सभी ने वैसा ही किया  जैसी  श्रीकृष्ण की आज्ञा थी।  प्रभास क्षेत्र पहुंच कर पूजा दान आदि किए गए परंतु भावी वश  तभी उनकी बुद्धि दैव ने हर ली। वे सभी मैरेयक  नामक  मदिरा का पान करने लगे। वे एक दूसरे से लड़ने झगड़ने लगे। जब अस्त्र समाप्त हुए तो मूसल के चूरे से  उत्पन्न  एरक  नामक घास जो हाथ में आते ही कठोर मुदगरों में परिणित हो गई थी से आपस में एक दूसरे पर वार करने लगे।  इस तरह से  आपस में लड़ते लड़ते सारे योद्धा एक दूसरे के हाथों मारे गए।
     श्री बलराम जी ने अपने आप को  आत्म स्वरूप में  स्थित कर लिया और मनुष्य शरीर का त्याग कर दिया।
                   श्रीकृष्ण जी का स्वधाम गमन
     श्रीकृष्ण जी चुप चाप पीपल के पेड़ के नीचे पृथ्वी पर बैठ गए और चतुर्भुज रूप धारण कर लिया। भगवान तब अग्नि के समान प्रकाशमान हो रहे थे।  उनके भीतर से  स्वर्ण  के समान एक ज्योति निकल रही थी।  दाहिनी जांघ पर  बायां  पांव रख कर बैठे हुए थे।  उनका लाल तलवा रक्त के समान चमक रहा था। जरा नाम का एक बहेलिया था। उसने  रगड़े हुए मूसल के बाकी बचे लोहे  के  टुकड़े से  अपने  बाण की गांसी  बना  ली थी। उस बहेलिए ने भगवान को हिरन समझ कर उस  तीर  से बींध दिया। परंतु जब वो उनके पास आया तो वह पूरी तरह से घबरा गया । वो सोच रहा था कि उसके हाथों  यह  बहुत  बड़ा पाप हो गया है। परंतु भगवान ने उसको सांत्वना देते हुए  कहा "तुम अपने आप को दोष ना दो क्योंकि यह सब कुछ  मेरी  ही आज्ञा से हुआ है।" भगवान ने उसको यह भी कह दिया कि वो अब स्वर्ग में जाकर निवास करे।  उसने  भगवान की  परिक्रमा की और सीधा स्वर्ग को चला गया।
   उधर से श्रीकृष्ण जी का सारथी दारुक भी आ  पहुंचा।  उसे भगवान ने कहा कि वो द्वारिका जाकर यहां जो कुछ घटा है वो और मेरे स्वधाम गमन की बात सब को सुना दे। द्वारिका समुद्र में डूब जाएगी। इस लिए तुम सभी को कहना कि वो मेरे माता पिता  को  साथ लेकर  परिवार सहित  अर्जुन  के  संरक्षण  में इंद्रप्रस्थ चले जाएं। तुम भागवत धर्म का आश्रय लो और  शांत हो जाओ। भगवान की आज्ञा का  पालन  करते हुए  दारुक ने श्री कृष्ण जी की परिक्रमा की और प्रणाम करके  द्वारिका  को चला गया। उधर गरुड़ जी और सारे आयुध भी  आकाश गमन कर गए।
     भगवान का शरीर मनुष्य की तरह स्थूल  शरीर  नहीं  होता है। केवल दिखाई ही वैसा पड़ता है। इस लिए भगवान सशरीर ही अपने धाम को चले गए। उनके साथ ही इस लोक से  सत्य, धर्म, धैर्य, कीर्ति और श्रीदेवी भी चली गईं।  भगवान को अपने धाम की ओर जाते हुए देख कर सभी  देवता  पुष्प वर्षा  करने लगे।
                     जय श्री कृष्ण जी की

श्रीमद्भागवत महापुराण लेख संख्या 36(गोप, गोपियों, बाबा नंद और यशोदा माता से भेंट)

                   बाणासुर का घमंड चकनाचूर
बाणासुर भगवान शिव का भक्त था और  उसने  उनको  प्रसन्न करके वर प्राप्त  कर  लिया था कि भगवान शिव  स्वयं उसके  नगर की रक्षा करें।  उसकी  एक  हज़ार भुजाएं थीं। इस बात का  उसे  बहुत  अभिमान  हो  गया  था।  तब  अभिमान  के  वशीभूत  होकर  उसने शिव भगवान  को  ही  कह  दिया  कि  मुझे तो  कोई  मेरी बराबरी का योद्धा ही  नहीं  मिल  रहा जो मेरा मुकाबला कर सके।  भगवान  शिवजी ने क्रोधित हो कर कहा," अरे मूढ़, जिस  समय  तेरी  यह  ध्वजा  टूट  कर  गिर जाएगी उस समय मेरे  ही समान महान  योद्धा से तेरा  सामना होगा और तेरा  अभिमान  चकनाचूर  हो जाएगा।"  बाणासुर की  ऊषा नाम की पुत्री थी। उसने स्वपन में एक दिन श्रीकृष्ण के  पौत्र अनिरुद्ध  को  देखा और  उस  पर  मोहित  हो  गई। उसकी  एक  सहेली थी  जिसका  नाम था  चित्रलेखा जो कि योगिनी थी। योगिनी ने ऊषा के आदेश पर अनिरुद्ध  का  पता लगाया और उसे सोते हुए ही द्वारिका से  उठा कर  शोणितपुर ले आई। इस तरह से ऊषा ने अनिरुद्ध को अपने जाल में फंसा लिया। वे दोनों अंतापुर में विहार करने लगे। जब इस  बात का पता बाणासुर को चला तो उसने अनिरुद्ध को नागपाश में बांध लिया।
       उधर जब श्रीकृष्ण जी ने इस बात को जाना  तो  उन्होंने  बाणासुर की चार भुजाएं छोड़  कर बाकी  सभी  भुजाएं  काट कर उसका घमंड चकनाचूर कर दिया और अनिरुद्ध और ऊषा को लेकर वापिस द्वारिका आ गए।
                     नृग राजा को स्वर्ग भेजना
इक्ष्वाकु पुत्र नृग एक बहुत दानी राजा था।  एक  बार धोखे  से उसने एक ही गाए दो बार दान कर दी थी। यमराज ने पूछा कि तुमने बहुत पुण्य के कार्य किए हैं।  परंतु  एक  तुमने  पाप  भी किया है। तुम पहले पुण्य का फल  चाहते  हो  या  पाप  का ? राजा ने कहा कि पहले उसे पाप का  ही  फल  दे  दिया  जाए। यमराज की आज्ञा से उसे उसी समय गिरगिट बनना पड़ा। श्री कृष्ण जी ने उसे स्पर्श करके उसको पाप मुक्त किया और  उसे स्वर्ग में जाने की आज्ञा दी।
             पौंड्रिक, काशी राज और द्विविद का उद्धार
पौंड्रिक ने अपने आप को असली  वासुदेव  घोषित  कर  दिया और श्री कृष्ण जी को युद्ध की चुनौती दे डाली।  श्रीकृष्ण  जी ने युद्ध में उसका वध  कर  दिया।  उधर  काशी  नरेश  के  पुत्र सुदक्षिण ने कृत्या को श्रीकृष्ण  जी  को  मारने  के लिए भेजा। भगवान ने उस क्रित्या के पीछे सुदर्शन चक्र छोड़ दिया। कृत्या ने उल्टा सुदक्षिण  को ही मार दिया और सुदर्शन चक्र ने काशी को जला डाला। उधर द्विविद एक वानर था जो  भौमासुर  का सखा था। उसमें दस हज़ार हाथियों का बल था।  उसने  अपने मित्र का बदला लेने  के  लिए  आक्रमण  किया।  परंतु वह भी बलराम जी के हाथों मारा गया।
                  जरासंध और शिशुपाल का वध
     एक दिन जरासंध द्वारा कैदी बनाए गए राजाओं  का  एक  दूत द्वारिका में श्रीकृष्ण जी के पास आया।  उसने उनकी और से उनकी  स्वतंत्रता के लिए  सहायता  मांगी।  श्रीकृष्ण  जी ने दूत को  कहा कि शीघ्र ही वे कुछ करेंगे। उधर उनको नारद जी ने  आकर  सलाह  दी कि इंद्रप्रस्थ में युधिष्ठिर जी भगवान की प्राप्ति  के  लिए  राजसूय  यज्ञ  करना  चाहते  हैं।  आप  कृपा करके उनकी  इस  अभिलाषा  का अनुमोदन कीजिए।  उद्धव जी ने भी श्रीकृष्ण जी को  कहा कि वहां जाने से  राजाओं की स्वतंत्रता का कार्य भी सम्पन्न हो  जाएगा। इस लिए वहां जाना चाहिए।  श्री  कृष्ण जी  इंद्रप्रस्थ गए।  वहां  पर  उनका  बहुत आदर सत्कार हुआ।
    वहां से एक दिन श्रीकृष्ण जी ने अर्जुन और भीम को अपने साथ लिया और तीनों ब्राह्मण वेश  में  जरासंध  के  पास  गए। उन्होंने राजा से द्वन्द युद्ध की याचना की।  जब  उसने  चुनौती स्वीकार कर ली तो भीम और जरासंध में द्वंद युद्ध हुआ।  कई दिन तक युद्ध होता रहा। कई  बार  भीम  ने  जरासंध  को  दो भागों में चीर कर विभाजित  कर  दिया।  परंतु  हर  बार  दोनों भाग फिर जुड़ जाते और वो जीवित होकर फिर से युद्ध करने लग जाता। एक दिन श्रीकृष्ण जी ने भीम को इशारा  करने  के लिए एक तिनके को बीच से  चीर  कर  उलटी  दिशा  में  फैंक दिया। भीम सेन इशारा समझ गए। इस बार उसने जरासंध को फिर से दो भागों में चीर कर बाईं दिशा वाला दाहिनी और दाईं दिशा वाला भाग  बाईं  दिशा  में  फैंक  दिया।  इसके  बाद  वो दोबारा जीवित नहीं हुआ।  जरासंध के मारे जाने के बाद सभी राजाओं को स्वतंत्र करवा दिया गया।
     जरासंध का वध करने के बाद श्रीकृष्ण, अर्जुन  और  भीम वापिस इंद्रप्रस्थ आ गए। राजसूय यज्ञ में बहुत बड़े  बड़े  ऋषि मुनि पधारे थे। परंतु फिर भी सभी ने  मिलकर   निर्णय  किया कि श्रीकृष्ण जी की ही सब से  पहले पूजा होनी चाहिए।  ऐसा इस लिए कि वे ही अग्र पूजा के असली अधिकारी हैं। वहां पर शिशुपाल भी था जो श्रीकृष्ण जी को शत्रु  मानता था।  वो इस लिए कि वो रुक्मिणी जी  से  विवाह  करना चाहता था।  परंतु श्री कृष्ण जी ने रुक्मिणी जी से विवाह कर  लिया  था।  दूसरा वह जरासंध का मित्र भी था। उसे श्रीकृष्ण जी की  अग्र  पूजा वाली बात पसंद नहीं आई और वह  उनको कई प्रकार के अप शब्दों से संबोधित  करने लगा।  उधर  शिशुपाल  श्रीकृष्ण  जी की बुआ का  लड़का  था  और  उनकी  बुआ  ने  श्रीकृष्ण  से  वचन  ले रक्खा था कि वो उसके सौ अपराध  क्षमा  कर  देंगे। वह जब सौ अपराध कर चुका था, उस समय भी  भगवान  ने  उसे  अवसर दिया  कि  वो  अपने  आप  पर  नियंत्रण कर  ले  परंतु  उसमें  कोई अंतर नहीं आया और  वो  श्रीकृष्ण  जी  के  विरूद्ध  और  भी अधिक  अप  शब्द  बोलने  लग  गया।  तब  भगवान  ने  अपना  सुदर्शन  चक्र  छोड़ा  और  शिशुपाल  का सिर धड़ से अलग कर दिया।  मरते  ही उसमें  से  एक ज्योति  निकल  कर  भगवान श्री कृष्ण जी में समा गई। 
                  दन्त्वक्र और विदुरथ का उद्धार
      अपने मित्र शिशुपाल और जरासंध के मारे  जाने  के  बाद दंतवक्र अकेला ही हाथ में गदा लेकर युद्ध  के  मैदान  में पहुंच गया। वह भी बहुत बलवान और अत्याचारी था। अत्याचारियों का अंत करने के लिए ही तो भगवान ने अवतार लिया था। श्री कृष्ण जी भी मैदान में आए और उससे युद्ध करते हुए उसका   वध कर दिया। शिशुपाल की ही तरह उसके  मरते  ही  सबके सामने उसके अंदर से एक ज्योति निकल कर श्रीकृष्ण में समा गई। दंतवक्र का भाई विदूरथ भी अपने भाई का बदला लेने के लिए आया परंतु वो भी भगवान के हाथों मारा गया।
            गोप, गोपियों एवं नंद, यशोदा जी से भेंट
    एक बार सर्वग्रास सूर्य ग्रहण लगा, जैसा कि प्रलय के समय
लगा करता है। सब लोग अपने अपने  कल्याण के  लिए  पुण्य आदि उपार्जन करने के लिए  सामान्य  पंचक तीर्थ कुरुक्षेत्र  में आए, जहां परशुराम जी ने  राजाओं की  रुधिर  धारा  से  पांच बड़े बड़े कुण्ड बना दिए थे।  भगवान परशुराम ने लोक मर्यादा की रक्षा के लिए वहीं पर बहुत बड़ा यज्ञ किया था।
    सभी यदुवंशी भी वहां आकर उपवास कर रहे थे।  वहां  पर यदुवंशियों के परम हितैषी बंधु नंद आदि गोप,  माता  यशोदा, एवं भगवान के दर्शन के लिए चिर काल से उत्कण्ठित गोपियां भी वहां पर आई हुई थीं। श्रीकृष्ण और बलराम  जी  ने  माता यशोदा तथा बाबा  नंद  जी  को  हृदय  से  लगाकर स्नेह प्राप्त किया और उनके चरणों में अपना  शीश  नवाकर उन्हें  प्रणाम किया। माता यशोदा ने चिर काल तक दोनों को अपनी  गोद में बैठा कर दुलार किया।
    गोपियों ने अपने नेत्रों के  रास्ते  भगवान  को अपने हृदय में धारण कर लिया। उनको अपने स्थूल शरीर  का तो पहले से ही कोई भान नहीं था, अब तो उनका लिंग शरीर  भी  नष्ट हो गया और वे भगवान से एक हो गईं। गोपियों की यह स्थिति  हो गई देख कर भगवान ने उन्हें ज्ञान  दिया।  उन्होंने  कहा," गोपिओ  कहीं तुम्हारे मन में यह आशंका तो नहीं  हो गई कि मैं अकृतज्ञ हूँ। निस्संदेह भगवान ही सब  प्राणियों  के  संयोग और  वियोग का कारण हैं। यह बड़े सौभाग्य की बात है  कि तुम  लोगों  को मेरा वह प्रेम प्राप्त हो चुका है जो मेरी ही प्राप्ति कराने वाला है
क्योंकि मेरे प्रति हुई प्रेम भक्ति  प्राणियों  को  अमृतत्व  अर्थात परमानंद धाम प्रदान करने में समर्थ है।  जितने  भी  पदार्थ  हैं उनके पहले, पीछे, बीच में  बाहर  और भीतर केवल मैं ही हूँ।
सभी प्राणियों के शरीर में पांचों  भूत (पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश) कारण रूप से स्थित हैं। परंतु मैं इन दोनों से परे अविनाशी सत्य हूँ। यह दोनों मेरे ही अंदर प्रतीत हो रहे हैं। तुम लोग ऐसा ही अनुभव करो।
    इसी उपदेश के बार बार स्मरण से गोपियों का  जीव कोश - लिंग शरीर पूर्णतया नष्ट हो गया और वे भगवान से एक ही हो गईं। वे भगवान को सर्वदा के लिए प्राप्त हो गईं।
    गोपियों ने कहा," हे कमलनाभ  जो  लोग  संसार के कुएं में गिरे हुए हैं उन्हें उससे निकालने के  लिए  आपके  चरण कमल ही एक मात्र अवलंबन हैं।  प्रभु  आप  ऐसी  कृपा  कीजिए कि आप का वह चरण कमल, घर गृहस्थ  के  काम करते रहने पर भी सदा सर्वदा हमारे हृदय में विराजमान रहे। हम एक क्षण के लिए भी उसे ना भूलें।
                        जय श्रीकृष्ण जी की
              

बुधवार, 25 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवत महापुराण लेख संख्या 35(श्रीकृष्ण जी के अन्य विवाह)

                        स्यमंतक मणि की कथा
           (जांबवती और सत्यभामा के साथ विवाह)
सत्राजित, भगवान सूर्य का बहुत बड़ा  भक्त था।  सूर्य भगवान ने प्रसन्न होकर उसे स्यमंतक मणि दी थी। जब वह मणि लेकर द्वारिका जी में आ रहा था, वह मणि इतनी  चमक  रही थी कि द्वारिका वासियों ने समझा कि सूर्य  ही  द्वारिका  में  आ रहे हैं। अपने घर पहुंच कर सत्रजित ने मणि को मंदिर में स्थापित कर दिया। वह मणि प्रति दिन आठ भार सोना पैदा करती थी। एक दिन ऐसे ही प्रसंग वश श्रीकृष्ण ने उसे कह दिया कि वो अपनी मणि  महाराज उग्रसेन को भेंट कर दे।  परंतु  उसने  मना  कर दिया।  एक दिन  सत्राजित  के भाई  प्रसेन  ने  उसको  गले  में डाला और घोड़े पर सवार होकर शिकार खेलने  जंगल में चला गया।
एक सिंह ने घोड़े सहित  उसे  मार  डाला। उस सिंह  को  ऋक्ष राज ने मार दिया और मनी अपनी गुफ़ा  में  जाकर  बच्चों  को दे दी। सत्राजित ने अपने भाई के वापिस ना आने  पर श्रीकृष्ण जी पर शक किया। उसने सोचा कि कृष्ण  ने  मणि  राजा  को देने की बात की थी, इस लिए उन्होंने ही उसके भाई  को  मारा है। जब श्रीकृष्ण जी को इस बात का पता चला  तो  वो  अपने ऊपर लगे कलंक को धोने  और  सच्चाई  का  पता  लगाने  के लिए जंगल में गए। पदचिन्हों को देखते हुए भगवान ऋक्ष राज जांबवान की गुफा तक जा पहुंचे। बाकी लोग तो बाहर ही  रहे परंतु श्रीकृष्ण ने अकेले ही गुफ़ा के अंदर प्रवेश  किया।  अंदर श्रीकृष्ण  और  जांबवान में 12 दिन  तक  युद्ध  चला। अंत  में एक दिन जांबवान को  ध्यान  आया  कि इतने  दिनों  तक  जो मनुष्य  उसका  मुकाबला  कर  रहा  है  वह  सिवाए  भगवान  के और कोई नहीं हो सकता। उसे वह  त्रेता युग  की  बात याद आ गई। उस समय भगवान राम को जांबवान ने कहा  था  कि युद्ध में उसे अपना बल प्रयोग करने का अवसर ही नहीं मिला। तब इस पर भगवान राम  ने  कहा  था,"जब  मैं  द्वापर  युग  में कृष्ण अवतार लूंगा, उस समय मैं  तुम  से  युद्ध  करूंगा।  तब तुम्हें अपने बल  का  प्रयोग  करने का  पूरा  अवसर  मिलेगा।" उसने भगवान को पहचान  लिया और  उनको  प्रणाम  किया। भगवान ने उसे आशीर्वाद दिया। जांबवान ने मणि तो  भगवान को दी ही साथ में अपनी पुत्री जांबवती का विवाह भी श्रीकृष्ण जी से कर दिया। वापिस आकर श्रीकृष्ण जी ने  सत्राजित  को दरबार में  बुलवाया  और  उसे  मणि  लौटा  दी। सत्राजित  को अपनी गलती का अहसास हो गया और  उसने  अपनी  गलती स्वीकार भी कर ली। यह  सोचकर  कि  उसकी  पुत्री  के  लिए श्रीकृष्ण जी से बढ़कर कोई वर नहीं हो  सकता  उसने  अपनी कन्या सत्यभामा का विवाह श्रीकृष्ण से कर दिया।
             श्रीकृष्ण जी  का कालिंदी जी से विवाह
एक बार भगवान पांडवों से  मिलने  इंद्रप्रस्थ  पधारे।  सात्यकी और बहुत सारे यदुवंशी भी उनके साथ पधारे। एक दिन यमुना जी के तट पर उन्होंने एक युवती को तपस्या करते  हुए  देखा। अर्जुन ने उस युवती से पूछा कि वो कौन  है  और  क्या चाहती हैं। कालिंदी ने कहा कि वह भगवान सूर्य देव की पुत्री  है  और भगवान विष्णु को पति रूप में प्राप्त करने के लिए तपस्या कर रही है। जब तक भगवान कृष्ण उस पर  प्रसन्न  नहीं  होते  तब तक वह अपनी तपस्या करती रहेगी।  भगवान  कृष्ण  तो  सब जानते ही थे। उन्होंने प्रसन्न  होकर  उन्हें रथ  पर  बैठाया  और इंद्रप्रस्थ में धर्मराज युधिष्ठिर जी के पास  ले  आए।  कुछ  दिन रहने के बाद  जब  वापिस  द्वारिका  आए  तो  विधिवत  उनसे विवाह किया।
                         मित्रविंदा से विवाह
अवंती (उज्जैन) के राजा थे  विंद और अनुविंद।  उनकी  बहन मित्रविंदा  भगवान श्रीकष्ण जी  को पति रूप में  प्राप्त  करना चाहती थीं। परंतु उसके भाई ऐसा नहीं  चाहते थे।  जब उसका स्वयंवर हुआ तो श्रीकृष्ण बलपूर्वक उसे हर लाए।
                    सत्या (नग्नजिवी) से विवाह
कौशल देश के राजा की एक अत्यन्त धार्मिक कन्या थी। राजा की प्रतिज्ञा थी कि जो कोई उसके सात दुर्दांत बैलों पर  विजय प्राप्त कर लेगा, वही उस कन्या से  विवाह  करेगा। परंतु  कोई भी राजा ऐसा करने में सफल नहीं  हो सका था। श्री कृष्ण जी भी वहां गए। राजा ने उनका आदर सत्कार किया।  भगवान ने खेल ही खेल में उन सात बैलों को नाथ लिया और फिर  सत्या से विधिपूर्वक विवाह किया।
                  भद्रा से श्री कृष्ण जी का विवाह
कैकेय  देश  की  राजकुमारी  थी  भद्रा।  उसका विवाह उसके संतरदन आदि  भाइयों ने श्री कृष्ण जी  से  करने  का  प्रस्ताव रक्खा था जो कि श्रीकृष्ण जी ने स्वीकार किया और  विधिवत भद्रा से भी विवाह कर लिया।
                        लक्षमणा से विवाह
यह मद्र प्रदेश के राजा की कन्या थी। उन्हें भगवान  श्री  कृष्ण जी ने जीता और विधि पूर्वक उनसे विवाह संपन्न किया।                            भगवान श्रीकष्ण की संतति
इस प्रकार भगवान श्री कृष्ण जी की कुल आठ पटरानियां थीं। आठों पटरानियों के दस दस पुत्र  हुए।  जिनमें मुख्य  नाम थे:-
प्रद्युम्न, भानु, सांब, वीर, श्रुत, कवि और सुबाहु। सबसे प्रमुख नाम  प्रद्युम्न  का  था।  उसकी  दो पत्नियां थीं, मायावती और रुकमवती। प्रद्युम्न का पुत्र हुआ अनिरुद्ध।
                    भौमासुर उद्धार और 16000
                        राज कन्याओं से विवाह             
भौमासुर ने वरुण का छत्र, माता अदिति के कुण्डल  और  मेरु पर्वत पर स्थित देवताओं का  मणि  पर्वत  नामक  स्थान  छीन लिया था। भगवान श्रीकृष्ण अपनी पत्नी  सत्यभामा  के  साथ गरुड़ पर सवार होकर भौमासुर की  राजधानी  प्राग्ज्योतिषपुर में गए। चारों ओर पहाड़ों की किलेबंदी थी। उसके  बाद  शस्त्रों का घेरा, फिर जल से भरी  गहरी  खाई  भी  थी,  उसके  बाद  आग या बिजली की चार दिवारी थी।  उसके भीतर वायु (गैस) को  बंद करके रक्खा गया था। उसके  भीतर  दस  हज़ार फंदे (जाल) भी  बिछा रक्खे थे।  भगवान ने  अपनी  शक्ति से  यह सारा कुछ नष्ट कर डाला। वहां पर एक दैत्य था जो उस स्थान का  रक्षक था। भगवान के पांचजन्य शंख की ध्वनि से उसकी नींद टूटी तो वह बाहर  निकला।  उसके  पांच  मुख थे  जिनके द्वारा  उसने भयंकर सिंघ नाद करते हुए  त्रिशूल  उठाया  और गरुड़ जी पर टूट पड़ा। तभी भगवान ने बाण छोड़ कर  त्रिशूल के तीन टुकड़े कर दिए। फिर श्रीकृष्ण  जी  ने  उसके  मुख  में बहुत से बाण मारे। खेल  ही खेल में  उसके  पांचों  सिर  काट  दिए।  उसके पुत्र और बाकी दैत्य भी मारे  गए।  दैत्य  के  मारे जाने के बाद स्वयं  भौमासुर  ने बाहर निकल कर भगवान  पर आक्रमण कर दिया परंतु  वह  भी  उनके  सामने  अधिक  देर  तक  टिक  नहीं  पाया और  शीघ्र  ही  भगवान  ने  उसका  भी सिर काट डाला।  उस  समय स्वयं पृथ्वी देवी  ने  भगवान  की स्तुति की। जब भगवान ने  महल  के  अंदर  प्रवेश  किया  तो  पहले उन 16000 राज कुमारी  कन्याओं  को उसकी  कैद से स्वतंत्र करवाया। उनको  देखते ही  सब की  सब  कन्याओं  ने  भगवान श्रीकृष्ण जी  पर  मोहित  हो कर  उनको  मन  ही मन अपना प्रियतम मानते हुए उनसे आग्रह  किया कि वो उन सभी को पत्नी रूप में स्वीकार करें।  श्रीकृष्ण जी ने  उनकी  विनती को स्वीकार करते हुए उन सभी को  द्वारिका  भेज  दिया  और स्वयं अमरावती  की  ओर  चल  पड़े।  अमरावती  पहुंचने  पर देवताओं के राजा इन्द्र ने भगवान की  स्तुति  की।  अदिति को उसके  कुण्डल  वापिस  किए।  सत्यभामा  जी  के  कहने  पर भगवान ने स्वर्ग से कल्प वृक्ष को साथ ले जाने के लिए उखाड़ कर गरुड़ पर रख लिया। जब देवताओं ने इसका विरोध किया तो उनको भी युद्ध में धूल चटाकर कल्प वृक्ष को साथ ले आए और सत्यभामा के बगीचे में लगा दिया। द्वारिका में  पहुंच  कर भगवान ने अपने अनेक  रूप  बना  कर  सभी  सोलह  हज़ार  कन्याओं के साथ पानी ग्रहण किया।
                           जय श्रीकृष्ण जी की

मंगलवार, 24 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवत महापुराण लेख संख्या 34(द्वारिका गमन एवं श्रीकृष्ण रुक्मिणी विवाह)

                          जरासंध से युद्ध
     कंस की दो रानियां अस्ति और प्राप्ति, कंस की  मृत्यु  होने के पश्चात अपने पिता मगध राज जरासंध के  पास  चली  गईं। क्रोध में राजा जरासंध ने 23 अक्षोहिनी  सेना  लेकर मथुरा को घेर लिया। उधर भगवान की आज्ञा से प्रेरित होकर  आकाश से सूर्य के समान चमकते हुए  दो  रथ, युद्ध  की  सारी  सामग्रियों और सार्थिओं समेत, आ पहुंचे।  भगवान  के  सारे  दिव्य और सनातन आयुध भी अपने आप वहां आकर  उपस्थित  हो गए। अब दोनों भाइयों  ने कवच  धारण  किए।  वे  छोटी  सी  सेना लेकर मथुरा से निकले। दारुक भगवान कृष्ण  का  सारथी था। तब भगवान ने  अपना पांचजन्य शंख बजाया।  शंख की ध्वनि ने शत्रु को डरा दिया। भगवान ने शारंग धनुष का टंकार किया।
तरकश में से बाण निकाल  कर, उन्हें धनुष पर  चढ़ाकर,  झुंड के झुंड बाण छोड़ते हुए जरासंध की चतुरंगिनी सेना का संहार करने लगे। बलराम जी  ने अपने मूसल की चोट  से  बहुतों को मार दिया। दोनों भाइयों ने थोड़े ही समय में शत्रु  सेना  को नष्ट कर डाला। जरासंध को मारा नहीं अपितु  एक  दीन  कि भांति छोड़ दिया। इससे उसे बहुत लज्जा हुई और  उसने  सब  कुछ छोड़ कर तपस्या करने की सोची।  परंतु  दूसरों के  बहकावे में आकर तपस्या करने का विचार छोड़ कर  वापिस  मगध  चला गया। इधर मथुरा में विजय उत्सव मनाया गया।
     उधर जरासंध ने दोबारा  से नई सेना तैयार  की  और  फिर उसी तरह आक्रमण किया  जिसका परिणाम  भी  पहले वाला ही  निकला।  इस  तरह  17 बार  23 अक्षौहिणी  सेना  लेकर जरासंध ने आक्रमण किया और हर बार सारी की  सारी  सेना का संहार भगवान द्वारा किया गया  परंतु हर बार  जरासंध को छोड़ दिया। ऐसा बताया गया है कि भगवान उसको  इस  लिए छोड़ देते थे ताकि वो बार बार पापियों की सेना इकट्ठी  कर के लाए और उन सभी पापियों को समाप्त किया जा सके जिसके लिए भगवान ने अवतार लिया था।
                    काल्यवन का भस्म होना
     जब अठहरवां संग्राम छिड़ने वाला था, तभी  नारद  जी की प्रेरणा से एक बहुत शक्तिशाली  योद्धा  काल्यवन  जिसका पूरे संसार में कोई मुकाबला नहीं कर सकता था, वह  तीन  करोड़ मलेछों की सेना लेकर मथुरा को घेरने आ गया।  दोनों  भाईयों ने यह सोच कर कि दो दो शत्रु इकट्ठे आक्रमण कर  रहे हैं, वहां से अपनी प्रजा को कहीं दूर सुरक्षित  स्थान पर ले जाने को  ही उचित माना। इसी उद्देश्य से विश्वकर्मा जी को कह कर  उन्होंने द्वारिका पुरी का निर्माण  करवाया।  सारे  सगे  संबंधियों  और प्रजा को पहले ही द्वारिका पुरी  में  भेज दिया।  उनकी  सुरक्षा का उत्तरदायित्व बलराम जी को सौंप कर काल्यवन द्वारा युद्ध के लिए ललकारने पर भगवान स्वयं गले में कमलों  की  माला पहने हुए, बिना  कोई  अस्त्र  शस्त्र  धारण  किए  नगर  के बड़े दरवाजे से बाहर निकल आए। काल्यवन  ने पहचान लिया कि यही कृष्ण है और निश्चय किया कि यदि  यह बिना  अस्त्र शस्त्र के पैदल ही आ रहा है तो वह भी बिना अस्त्र शस्त्र के पैदल ही मुकाबला करेगा। जब वह कृष्ण  की ओर  दौड़ा  तो  श्रीकृष्ण दूसरी ओर मुख करके दौड़ पड़े।  उसने सोचा कि श्रीकृष्ण डर कर भाग रहे हैं। वह चिल्लाता हुआ और  युद्ध कर - युद्ध कर कहता हुआ श्रीकृष्ण जी के पीछे पीछे दौड़ा।  श्रीकृष्ण भागते भागते उसे एक पहाड़ी की गुफ़ा में ले गए।  वह समझ रहा था कि कृष्ण डर कर छिपे हुए हैं। अंदर जाकर उसने  एक  व्यक्ति को सोता हुआ  देखा  जिसके  ऊपर  भगवान ने  अपना  वस्त्र डाल  दिया था। उसने सोचा कि यही कृष्ण है। उसने  उसे  यह कहते हुए कि " अरे कृष्ण,  तू डर कर भाग  रहा  था और अब यहां आकार सोने का बहाना कर रहा है। तू जानता  है  कि  मैं सोए हुए शत्रु पर  वार  नहीं  करता।  उठ और  मेरे  साथ  युद्ध कर।" ज़ोर ज़ोर से उस व्यक्ति को हिला कर  जगा  दिया। जैसे ही उस व्यक्ति ने उठ कर उसकी और देखा वैसे ही  काल्यवन  जल कर भस्म हो गया।
                            मुचकुंद की कथा
     परीक्षित जी के पूछने पर कि वह व्यक्ति कौन था,  शुकदेव जी ने बताया कि वह इक्ष्वाकु वंशी महाराजा मान्धाता  का पुत्र मुचकुंद था। एक बार जब  उन्होंने बहुत  समय तक राक्षसों से देवताओं की रक्षा  की  थी।  जब  कार्तिकेय  जी  देवताओं  के सेनापति  बन गए तो देवता  सुरक्षित  हो गए। तब देवताओं ने राजा को पुरस्कार  स्वरूप  कोई  वर  मांगने  को  कहा।  राजा ने कहा कि मैं युद्ध करता करता बहुत  थक गया हूँ।  इस लिए मुझे देर तक सोते रहने का वरदान दो। देवताओं ने कहा जाओ किसी सुरक्षित स्थान पर जाकर सो जाओ।  जो कोई  भी तुम्हें जगाएगा वह तुम्हारी दृष्टि उस पर पड़ते ही भस्म  हो  जाएगा। तब से वह राजा  उसी  गुफ़ा  में  सोया  हुआ था। काल्यवन के भस्म हो जाने के बाद श्रीकृष्ण जी ने प्रकट होकर मुचकुंद जी  को दर्शन दिए और  अगले  जन्म  में  मोक्ष  का  वरदान  देकर तपस्या करने भेज दिया।
                          श्रीकृष्ण द्वारिका गमन
     काल्यवन के भस्म हो जाने के बाद  श्रीकृष्ण  मथुरा  लौटे। काल्यवन की सेना का संहार किया और उनका सारा धन छीन कर द्वारिका लौट चले। उसी समय जरासंध  ने  अठाहरवीं बार आक्रमण कर दिया। श्रीकृष्ण पैदल ही भागे जैसे  डर  गए हों। भागते हुए वे प्रवर्षण पर्वत पर चढ़ गए। उस पर्वत को जरासंध ने आग लगा दी। वहां से भी दोनों भाई भाग निकले  और फिर द्वारिका पहुंच गए। जरासंध ने सोचा कि वे आग  में  जल  कर भस्म हो गए हैं। ऐसा सोच कर वो वापिस मगध चला गया।
                         बलराम रेवती विवाह
     पूर्व काल में एक राजा हुए कुकुद्मी (रैवत)। वो ब्रह्मा जी के पास यह जानने के लिए पहुंच गए कि उनकी कन्या  रेवती का वर कैसा होगा। पृथ्वी और ब्रह्मलोक के  समय  में  बहुत अंतर है। ब्रह्मा जी ने हंसते हुए कहा कि जब से तुम  आए  हो  पृथ्वी पर तो 27 चतर्युगी बीत चुकी है। अब  तुम  ऐसा करो  कि इस समय भगवान ने बलराम के  रूप में  अंशावतार  लिया है, तुम जाकर उनसे अपनी कन्या का विवाह कर दो।  कुकुद्मि (रैवत) ने ऐसा ही किया और श्री बलराम  जी  से  अपनी  कन्या रेवती का विवाह कर दिया और स्वयं तपस्या करने बद्रीक  आश्रम में चले गए।
                       श्रीकृष्ण रुक्मिणी विवाह
     विदर्भ देश के राजा थे भीष्मक। उसके पांच पुत्र और एक कन्या थी। उसके बड़े पुत्र का नाम था रुक्मी। कन्या का नाम था रुक्मिणी जो स्वयं भगवती लक्ष्मी जी का ही अवतार थीं। रुक्मिणी जी ने श्रीकृष्ण जी की लीलाओं के बारे में सुन रक्खा था। वो मन ही मन उनसे प्रेम करती थीं और उन्हें अपना पति मान रक्खा था। परंतु रुक्मिणी जी का बड़ा भाई रुक्मी कृष्ण जी से द्वेष करता था। वह रुक्मिणी जी का विवाह चेदि नरेश राजा दमघोष के पुत्र शिशुपाल से करना चाहता था। रुक्मिणी जी के माता पिता तो बेटी की भावनाओं को समझते थे परंतु रुक्मी ने ठान लिया था कि रुक्मिणी का विवाह शिशुपाल से ही होगा।
     रुक्मिणी उदास हो  गईं  और उन्होंने  एक ब्राह्मण के हाथ श्रीकृष्ण जी को एक संदेश भेजा। संदेश  में  लिखा  था,"आप के गुणों को सुनने वाले के अंग अंग के ताप मिट जाते हैं  और जन्म जन्म की जलन बुझ जाती है।  मेरा  चित्त  लज्जा  छोड़  आप में ही प्रवेश कर रहा है। आप अद्वितीय हैं।  मैंने  आपको पति रूप से वरण कर लिया है। मैं आपको आत्म समर्पण कर चुकी हूँ।  दूसरा कोई पुरुष मेरा  स्पर्श ना  कर  सके  इस  लिए आप मेरे विवाह से एक दिन पूर्व गुप्त रूप  से  आ जाइए और शिशुपाल और जरासंध की सेना को  मथ डालिए।  मैं आपको गिरिजा देवी के मंदिर में मिलूंगी।" तभी श्रीकृष्ण जी ने सारथी दारूक को बुलवाया और शीघ्र गामी घोड़ों  वाले रथ  पर  एक ही रात में वहां पहुंच गए। बारात  कुंडिनपुर  पहुंची।  जरासंध, दंतवक्र, विदूरथ आदि भी अपनी अपनी सेना लेकर  शिशुपाल के साथ पहुंचे थे। जब बलराम जी को इस बात का पता  चला तो वो भी उनके पीछे पीछे चल पड़े। भीष्मिक  द्वारा  श्रीकृष्ण जी का सत्कार किया गया। उन्हें एक  सुंदर  भवन में  ठहराया गया। जब रुक्मिणी जी मंदिर गईं तो वहां  से श्रीकृष्ण  ने उन्हें रथ में बैठा लिया और सबके सामने बलपूर्वक लेकर चल दिए।   शिशुपाल, उसके साथी राजा और रुक्मी ने उनके साथ युद्ध किया परंतु कृष्ण और बलराम  जी के  सामने  उनकी  एक ना चली। द्वारिका पहुंचकर श्रीकृष्ण जी का रुक्मिणी जी के साथ विधिवत् विवाह सम्पन्न हुआ।
                प्रद्युम्न का जन्म और शंबरासुर वध
     श्रीकृष्ण और रुक्मिणी जी का पुत्र हुआ प्रद्युम्न। प्रद्युम्न के रूप में कामदेव ने ही जन्म लिया  था। जब  भगवान  शिव  के क्रोध से कामदेव देह रहित हो गए थे तब रती जो  कामदेव की पत्नी थी के शिवजी से प्रार्थना और अनुनय  विनय  करने  पर शिवजी महाराज ने उसे वरदान दिया था कि  द्वापर में  जब श्री कृष्ण अवतार होगा तब  कामदेव  उनके  पुत्र  के रूप में जन्म लेकर शरीर प्राप्त करेंगे।
     उधर उसी समय में एक मायावी राक्षस था  शंबरासुर।  वह बहुत बलवान था जो किसी से नहीं मरता था। उसको  पता था कि उसका वध श्रीकृष्ण  जी  के  पुत्र  प्रद्युम्न  द्वारा  होगा। वह जन्म लेते ही उसे समाप्त कर देना चाहता था।  उसने  छोटे  से प्रद्युम्न को अपनी माया से उठा कर समुद्र में फैंक दिया।  परंतु भगवान की माया तो अपरम्पार है। उस बालक को  एक  बड़ी मछली ने निगल लिया। और भगवान की माया  से  प्रेरित  एक मछुआरा उसे पकड़ कर शंबरासुर की रसोई में ले आया।  वहां एक दासी थी मायावती जो कि वास्तव  में  कामदेव  की पत्नी रती ही थी। वो दासी सब जानती  थी। उसने  उस  बालक  को निकाला जो भगवान की माया से पूरी तरह सुरक्षित था। दासी ने उस बालक को पाला और सब प्रकार की विद्याओं में उसको पारंगत किया। इसी बालक  ने  शंबरासुर का  वध  किया। तब मायावती आकाश मार्ग से प्रद्युम्न को द्वारिकापुरी लेकर  आई। वहां पर नारद  की  ने  प्रकट  होकर  सबको  बताया  कि  यही प्रद्युम्न है। सभी ने  उनका  पूरा  सम्मान  और  सत्कार  किया। भगवान के अन्य विवाह कहां कहां और कैसे हुए, अगले  लेख में पढ़ें।
                        जय श्रीकृष्ण जी की

   
   

सोमवार, 23 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवत महापुराण लेख संख्या 33(गोपियों का विरह और उद्धव जी की व्रज यात्रा)

                   श्रीकृष्ण बलराम शिक्षा ग्रहण  
      वसुदेव जी ने अपने पुरोहित श्री गर्गाचार्य जी से दोनों पुत्रों का विधिवत यज्ञोपवीत संस्कार करवाया।  उसके  बाद  उनको गुरुकुल में निवास करने के लिए काष्यपगोत्री संदीपनी मुनि के पास भेजा जो आवंतिपुर (उज्जैन) में  रहते  थे।  उन्होंने अपने गुरुजी से  केवल 64 दिन  रात में पूरी की पूरी 64 कलाएं जैसे गान, वाद्य, नाट्य, चित्रकारी  आदि  सीख लीं। अपने गुरु द्वारा बताई गई गुरु दक्षिणा  देने  के  उपरांत वापिस मथुरा आ गए।
                      उद्धव जी की व्रज यात्रा
     उद्धव जी वृष्णिवंशियों में एक प्रधान पुरुष थे और साक्षात
बृहस्पति जी के शिष्य एवं परम बुद्धिमान थे। वह श्रीकृष्ण जी के प्यारे भक्त, सखा, एकान्त प्रेमी एवं मंत्री थे। वह बहुत  बड़े तत्व ज्ञानी और बुद्धिमान थे।
     एक दिन श्रीकृष्ण जी वृंदावन  की ओर मुख करके  उदास मुद्रा में ऐसे बैठे हुए थे जैसे उनको  वृंदावन की  गोधूलि का वो समय याद आ रहा हो जब वो  शाम  के  समय  गायों को  चरा कर वापिस घर आते थे। गांव की  सभी  ग्वालिनें  और  घर  में उनकी माता यशोदा उनका इंतजार कर रही होती थीं। भगवान प्रेम के वशीभूत होकर उन सभी लोगों को स्मरण कर  रहे  थे। उसी समय उधव जी का आना हुआ।  उन्होंने जब  भगवान से उदासी का कारण पूछा तो श्रीकृष्ण  जी ने उनको गोपियों और उनके माता पिता के  प्रेम  और  विरह के  बारे  में  बताया और कहा कि," मित्र व्रज जाओ, मेरे माता पिता को  आनंदित करो और गोपियों की विरह व्याधि मेरा संदेश  सुनाकर  दूर  करो।"
उद्धव जी तो पूर्ण ज्ञानी थे। उनको प्रेम का  क्या  पता  था। वो तो यह समझ रहे थे  कि  बेचारी  गोपियों  को  ज्ञान  की  परम आवश्यकता है। परंतु  भगवान  उद्धव  जी  को  सच्चे  प्रेम का पाठ पढ़ाना चाहते थे। वो  उनके  ज्ञान  का  अभिमान  भी  दूर करना चाहते थे। उद्धव जी ने कहा कि," मैं अभी जाता हूँ और उनको तत्व ज्ञान देकर उनकी विरह वेदना को समाप्त  कर  के शीघ्र वापिस आता हूँ। आप मुझे वहां जाने की आज्ञा दें।"
     रथ पर सवार होकर उद्धव जी नंद गांव  की ओर चल पड़े। जब वहां पहुंचे तो सूर्यास्त का  समय था।  गौएं लौट रही  थीं। गोधूलि उड़ रही थी। घर घर में गाएं  दुही जाने  लगी  थीं। गोप श्रीकृष्ण जी की लीलाएं गा रहे थे।
     उद्धव जी सीधे नंद बाबा के घर गए। नंद  बाबा  उन्हें  मिल कर बड़े प्रसन्न हुए। उनका  स्वागत  सत्कार  किया  गया  और खाना खिलाने के पश्चात कुशल क्षेम पूछी गई। नंद जी पूछ रहे थे कि क्या हमारा लाल हमें याद करता  है  या  नहीं।  स्वयं  ही कान्हा की लीलाओं का वर्णन करने लगे।  प्रेम  और  वात्सल्य भाव की बाढ़ सी आ गई। माता यशोदा की आंखों से  लगातार आंसू बह रहे थे। उद्धव जी यह सब देख कर आनन्द  मग्न  हो गए। उन्होंने दोनों को समझाया कि श्रीकृष्ण, भगवान्  हैं  और सर्वव्यापक हैं। कई प्रकार  से  उनके  बारे  में बड़ी  बड़ी   बातें बताई गईं। परंतु नंद बाबा और यशोदा के मन  में  उनके  लिए वही पुत्र भाव और वात्सल्य का समुद्र आंसुओं की धाराएं बन कर उनकी आंखों के रास्ते बह रहा है। उद्धव  जी ने  कहा  कि थोड़े ही दिनों में भगवान श्रीकृष्ण जी आप को आनंदित करने आएंगे। बातें करते करते यूं ही रात बीत गई।
     कुछ रात शेष रहने पर गोपियों ने उठ कर दीपक  जलाए,  वास्तुदेवता का पूजन कर सफाई करी और  दही  मथा।  सभी गोपियां यह सारा काम करती हुई साथ साथ श्री कृष्ण जी की लीलाओं को याद कर रही थीं।
     जैसे ही सूर्य उदय हुआ, उन्हें नंद जी के द्वार पर एक  सोने का रथ दिखाई दिया। किसी ने कहा कहीं  फिर  से  अक्रूर  तो नहीं आ गया। दूसरी ने कहा अब क्या लेने आया है। तीसरी  ने कहा अब क्या हमें लेजाकर कंस का पिंड दान करवाएगा।  वो यह बातें कर ही रही थीं कि उद्धव जी नित्य क्रिया से निवृत्त हो कर उधर आ पहुंचे।
                उद्धव और गोपियों की बातचीत
                          और भ्रमर गीत
     गोपियां सोच रही थीं कि यह  श्रीकृष्ण  जी  जैसी  आकृति वाला व्यक्ति कौन है। जैसे ही उद्धव जी उनके पास आए तो वे उन्हें घेर कर खड़ी हो गईं। जब पता  चला  कि  वो  कृष्ण  का संदेश लेकर आए हैं तब उन्होंने उनका अत्यन्त सत्कार किया। उन्होंने उनको आसन पर बैठाया और कहने लगीं:-
     हम जानती हैं, हे यदुनाथ के  पार्षद, आप  श्याम सुंदर का संदेश लेकर पधारे हैं। उन्होंने माता यशोदा और  पिता  नंद जी को सुख देने के लिए आपको यहां भेजा है।  परंतु  हमारे  साथ उनका प्रेम तो केवल स्वार्थ का ही था जैसे भौरों का  पुष्पों  से होता है। गोपियों के मन, वाणी और शरीर पूरी  तरह  श्रीकृष्ण में तल्लीन थे। वे श्रीकृष्ण की  सारी  लीलाओं  का  गान  करने लगीं और फिर आत्मविस्मृत हो कर रोने लगीं। एक गोपी  एक भौरे को गुन गुनाते हुए देख कर समझी कि जैसे श्रीकृष्ण ने ही उस भंवरे को उन्हें मनाने के लिए भेजा है। वो  कहने  लगीं कि तू भी तो कृष्ण जैसा ही कपटी है। उसने भी तो हमें  छोड़  कर मथुरा वासियों से नेह लगा लिया है। परंतु यदि तू कहे  कि  हम उसकी चर्चा क्यों करते हैं, तो सुन हम सच  कहती  हैं कि एक बार जिसको उससे प्रेम हो जाए वह उसे छोड़ नहीं  पाता। तूने कहना ही है तो कुछ और कह। अच्छा यह तो बता कि क्या वो कभी हम दासियों की भी बात करते हैं। क्या फिर से कोई ऐसा अवसर आएगा जब वो लौट कर हमारे पास आएंगे।
     उनकी तड़प देख कर उद्धव जी ने श्रीकृष्ण  जी का  संदेश सुनाया। उन्होंने कहा कि मैं श्रीकृष्ण जी  का  संदेश  लेकर  ही तुम्हारे पास आया हूँ।  भगवान  ने  तुम्हारे  लिए  कहा  है  कि,
"मुझसे तुम्हारा कभी वियोग नहीं हो सकता। जैसे सारे के सारे भौतिक पदार्थों में पञ्च भूत (आकाश, वायु, अग्नि, जल  और पृथ्वी) व्याप्त हैं, वैसे ही मैं मन, प्राण, पञ्च भूत, इन्द्रियां  और उनके विषयों का आश्रय हूँ।  वे  मुझमें  हैं  और  मैं उनमें हूँ। मैं स्वयं ही उनका रूप होकर  उनका  आश्रय  बन  जाता  हूँ।  मैं नमित्त बन कर अपने आप को रचता हूँ, पालता हूँ  और  फिर समेट लेता हूँ। आत्मा माया और माया के कार्यों से  प्रथक  है। वह विशुद्ध, ज्ञान स्वरूप, जड़ प्रकृति, अनेक जीव तथा  अपने ही अवांतर भेदों से रहित सर्वदा शुद्ध है। माया  की  कुल  तीन वृत्तियां  हैं:-  सुषुप्ती,  स्वपन  और  जागृत।  इनके  द्वारा  वही अखंड अनन्त बोध स्वरूप  आत्मा  कभी  प्राज्ञ,  कभी  तैजस और कभी विश्व रूप से प्रतीत होता है।
     जागृत अवस्था में इन्द्रियों के विषय भी स्वपन की तरह  ही मिथ्या होते हैं। इस लिए विषयों की बजाए मनुष्य  को  चाहिए कि वह मेरा साक्षात्कार करे।
     मैं तुम से दूर इस लिए हूँ कि  तुम  निरंतर  मेरा  ध्यान  कर सको। तुम लोग मेरा अनुस्मरण करोगी, तब  शीघ्र  ही सदा  के लिए मुझे प्राप्त हो जाओगी।"
     श्री शुकदेव जी कहते हैं कि यह सुनकर गोपियों  को  बड़ा आनंद हुआ। प्रेम से  भरकर  उन्होंने  उद्धव जी  से  कहा,"यदु वंशियों को सताने वाला  कंस  मारा  गया, अच्छा  हुआ।  परंतु क्या अब वो कभी हमारे पास आवेंगे? वैसे तो संसार में  किसी से आशा ना रखना ही सब से बड़ा  सुख  है, परंतु  यह  जानते हुए भी हम कृष्ण के लौटने की आशा  छोड़ने  में  असमर्थ  हैं। यही आशा तो हमारा जीवन है। हम करें भी तो क्या करें। यहां के कण कण में हमें वही दिखाई देते हैं।
     हे कृष्ण हमारे तो तुम ही व्रज नाथ हो। तुम ही हमारे सच्चे स्वामी हो। तुम्हारा यह सारा गोकुल जिसमें तुम्हारे माता पिता, ग्वाल बाल, गऊएं और गोपियां सभी हैं, दुःख के  अपार सागर में डूब रहा है। तुम हमें बचाओ, आओ!  हमारी  रक्षा  करो। हे गोविन्द हम डूब रही हैं, हमारी रक्षा करो।
     श्री शुकदेव जी कहते हैं कि जब श्रीकृष्ण जी के संदेश  के प्रभाव से विरह की व्यथा शांत हुई तो वे इन्द्र्यतीत भाग्वान श्री कृष्ण को अपने आत्मा के रूप  में  सर्वत्र  स्थित  समझ  चुकी थीं। तब वे उद्धव जी का और भी सत्कार  करने  लगीं।  उद्धव जी, जो कुछ  समय  के  लिए  संदेश  देकर उन्हें शांत करने के भाव से आए थे, कई महीनों तक वहीं रहे। वे श्री कृष्ण जी की लीलाएं सुनाकर  ब्रजवासियों को आनंदित करते रहते थे और  श्रीकृष्ण द्वारा व्रज में की गई लीलाओं को सुन कर  स्वयं  भी  आनंदित होते रहे।
एक दिन गोपियों का कृष्ण  जी  के  प्रति  प्रेम  देखकर  कहने लगे:-
     शरीर धारण गोपियों का, सफल एवं श्रेष्ठ है।
     प्रेम के इस भाव में ही, स्थित हो जाना श्रेष्ठ है।।
     तप, तपस्या, यज्ञ का, अभिमान कोई ना करे।
     गोपियों के प्रेम का, इक भाव उनसे श्रेष्ठ है।।
     ज्ञान अमृत का ना हो, फिर भी अमर करता है वो।
     सरल मन और भाव से, गोविंद भज ले श्रेष्ठ है।।
     कथा, कीर्तन, भजन से ही, रास सुख मिलता सदा।
     भाव भक्ति प्रेम से, गोपी हो जाना श्रेष्ठ है।।
     मुझको भी, झाड़ी - लता, व्रज की बना देना प्रभु।
     गोपियों की चरण धूलि, हर तरह से श्रेष्ठ है।।
     वेद वाणी और श्रुतिएं, ढूंढती अब तक जिन्हें।
     गोपियों ने पा लिया, पाने को को भी श्रेष्ठ है।।
     गोपियों की चरण धूलि, को मेरा प्रणाम है।
     कृष्ण लीला गान उनका, हर तरह से श्रेष्ठ है।।
 इतना कहकर उद्धव जी सबसे  आज्ञा  लेने  लगे।  गोपियों  ने संदेश दिया कि हमें अब मोक्ष नहीं चाहिए  अपितु हमें  जो  भी जीवन मिले उसमें केवल और केवल श्रीकृष्ण में  ही  उत्तरोत्तर प्रीति बढ़ती रहे। सभी व्रज वासियों से विदा लेकर उद्धव जी ने मथुरा की ओर प्रस्थान किया। वहां पहुंचकर  श्रीकृष्ण  जी को प्रणाम किया और व्रज में जो देखा और समझा  वह सारा  कह सुनाया।
     इस कथा को पढ़ने वा सुनने से साधक के मन में भक्ति का भाव और भी प्रगाढ़ हो जाता है।
                        जय श्रीकृष्ण जी की
 
 
   

शनिवार, 21 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवत महापुराण लेख संख्या 32(श्रीकृष्ण जी का मथुरा गमन और कंस वध)

                     अक्रूर जी की व्रज यात्रा
 श्री शुकदेव जी कहते हैं कि अक्रूर जी प्रात:काल होते ही रथ पर सवार होकर गोकुल की ओर चल पड़े। मार्ग में ही श्रीकृष्ण भक्ति में परिपूर्ण हो गए। सोचते हुए जा रहे हैं  कि  आज  मुझे सहज ही आंखों का फल  मिल  जाएगा।  श्रीकृष्ण  सबके  ही एक मात्र आश्रय हैं। कई प्रकार की कल्पनाएं करते  हुए  शाम होते होते वे नंदगांव पहुंच गए। श्रीकृष्ण और बलराम के दर्शन उन्हें गायों को दोहने के स्थान पर ही हो  गए।  दोनों  ने  अक्रूर जी को एक एक हाथ से पकड़ा और घर ले गए। अक्रूर जी का ख़ूब स्वागत सत्कार हुआ। आसन दिया गया। श्रीकृष्ण  जी  ने अपने चाचा के पैर दबाए।  बलराम  जी  द्वारा  सुगंधित  माला देकर स्वागत किया गया। नंद जी ने कुशल क्षेम पूछी।  यशोदा जी ने बढ़िया भोजन की व्यवस्था की। अक्रूर  जी  ने  वहां  का सारा कुशल क्षेम बताने के  बाद  अपने  आने  का  कारण  भी उनको बताया। कृष्ण को ले जाने की बात सुन कर यशोदा जी तो रोने लगीं और यह जानकर कि कृष्ण देवकी का पुत्र  है  वो मानने को तैयार नहीं थीं। उन्होंने कृष्ण को भेजने  से  बिल्कुल मना कर दिया। तब कृष्ण जी ने ही माता  को  कहा  कि  माता मुझे लोग यशोदा के पुत्र के रूप  में  ही  जानेंगे।  तुम  ही  मेरी माता हो। परंतु इस समय मेरा मथुरा  जाना अति आवश्यक हो गया है। इस लिए आप एक  बार  मुझे  और  दाऊ  भइया  को जाने की आज्ञा प्रदान करें। वहां तो हमें उत्सव देखने के उद्देश्य से बुलाया गया है। उधर नंद बाबा ने  सभी  ग्वालों  को  आदेश देकर बहुत सारी सामग्री  छकड़ों  पर  लादने  को  कहा  ताकि उत्सव के अवसर पर मथुरा लेजा कर कंस को भेंट  कर  सकें। कहा कि सभी लोग साथ चलेंगे। सामग्री भेंट करेंगे और उत्सव भी देखेंगे।
                          गोपियों की व्यथा
     गोपियों ने कहा," हे विधाता तुम सब विधान  तो  करते  हो परंतु तुम्हारे हृदय में दया लेश मात्र भी नहीं है।  पहले  तो  तुम प्रेम से जगत के प्राणियों को एक दूसरे के साथ जोड़  देते  हो। उन्हें आपस में एक  कर  देते  हो।  परंतु अभी उनकी  आशाएं अभिलाषाएं पुरी भी नहीं होती हैं  कि तुम उन्हें व्यर्थ ही अलग अलग कर देते हो। गोपियां कभी  अक्रूर  जी  को  कोसती  तो कभी  ग्वालों  को,  जो  मथुरा  जाने  की  तैयारी  कर  रहे  थे। गोपियां  विरह की संभावना से ही व्याकुल  होकर  रोने  लगीं।
                         श्रीकृष्ण मथुरा गमन
   यूं ही रात बीत गई। अक्रूर जी, श्रीकृष्ण और बलराम जी को लेकर रथ पर सवार हो गए। उन्होंने रथ को हांका  और  लेकर चल दिए। नंद बाबा आदि गोप भी  सामग्रियों  से  भरे  छकड़ों पर चढ़ कर उनके पीछे पीछे चल पड़े। कृष्ण जी  ने  देखा कि एक स्थान पर गोपियां खड़ी रो  रही  हैं।  श्री कृष्ण जी  ने एक दूत भेज कर यह संदेश उन  तक  पहुंचाया  कि  ," मैंआऊंगा" यह संदेश भेजकर उन्हें धीरज बंधाया। गोपियां खड़ी तो उधर ही रहीं परंतु अपना चित्त उन्होंने कान्हा के साथ ही भेज दिया था। वे निराश होकर वापिस लौट आईं और हर समय श्रीकृष्ण जी की लीलाओं का गान करती रहती थीं।
      इधर भगवान का रथ पाप नाशिनी यमुना  जी  के  किनारे जा पहुंचा। श्रीकृष्ण और बलराम हाथ मुंह धोकर फिर  से  रथ में सवार हो गए। श्री अक्रूर जी आज्ञा लेकर यमुना जी के  कुंड (अनन्त तीर्थ या ब्रमहृद)  पर आकर विधि पूर्वक  स्नान  करने के लिए डुबकी लगा कर  गायत्री  का  जाप  करने  लगे।  उसी समय उनको जल के भीतर ही दोनों भाई बैठे हुए दिखाई पड़े। जब अपना सिर पानी से बाहर निकाल कर देखा तो  वहां  रथ बैठे दिखाई दिए।  फिर  डुबकी  लगाई  तो  देखा  कि  साक्षात अनन्त देव श्री शेष जी और भगवान स्वयं विराजमान  हैं  और सिद्ध, चारण,  गंधर्व  एवं  असुर  अपने  अपने  सिर  झुकाकर उनकी स्तुति कर रहे हैं।  चतुर्भुज  के  साथ  ही  लक्ष्मी,  पुष्टि, सरस्वती,  कांति,  कीर्ति  और  तुष्टि  आदि  शक्तिआं  मूर्तिमान होकर उनकी सेवा कर रही हैं। पार्षद  स्तुति  कर  रहे  हैं।  इस तरह अक्रूर जी को परम भक्ति प्राप्त हो गई।  साहस  बटोरकर भगवान के चरणों में सिर रख कर प्रणाम किया और  धीरे धीरे गद गद स्वर से भगवान की  स्तुति  करने  लगे। जब अक्रूर जी बाहर  आए  तो  श्रीकृष्ण  जी को  कहने  लगे," हे प्रभु  पृथ्वी, जल, आकाश और सारे जगत में जितने भी अद्भुत पदार्थ हैं वे सब आप में ही हैं। क्योंकि आप ही विश्वरूप हो।" यह सुन कर दोनो भाई मुस्करा दिए। अक्रूर जी  को, कंस को  लेकर  कृष्ण जी के लिए जो डर था वो समाप्त हो गया।          
                   श्रीकृष्ण जी का मथुरा में प्रवेश
     अक्रूर जी रथ को लेकर आगे चल पड़े।  रास्ते  में  गांवों के लोग जब भगवान के आकर्षण  को  देखते  तो  देखते  ही  रह जाते। उनका रथ मथुरा पहुंचा। नंद जी अपने साथियों के साथ पहले ही पहुंच चुके थे। कृष्ण जी ने अक्रूर को  घर  भेज  दिया और स्वयं नगर देखने चल पड़े। नगर के लोगों  ने  उनके  और उनकी लीलाओं के बारे में बहुत सुन रखा था। वे उनको  नज़र भरकर देख लेना चाहते थे। चलते चलते रास्ते में एक धोबी के बुरे व्यव्हार की उसे सज़ा दी, और सुदामा माली ने भगवान की पूजा कर उनसे भक्ति और संपत्ति का वरदान पाया।
                           कुब्जा पर कृपा  
     आगे एक  औरत  जिसका नाम कूबड के कारण ' कुब्जा ' पड़ा हुआ था, हाथ में घिसे हुए चंदन के पात्र  को  लेकर  कंस को चंदन लेप करने के लिए जा रही थी। उस  पर  कृपा  करने के इरादे से भगवान ने उसको कहा," सुंदरी तुम कौन  हो और यह चंदन किसके लिए लेेजा रही हो? यह अंग राग हमें भी दे दो। इस दान से तुम्हारा परम कल्याण होगा।"
     उबटन लगाने वाली सैरंध्री (कुब्जा) ने कहा,"हे परम सुंदर, मैं कंस की दासी हूँ। मेरा नाम  त्रिवक्रा (कुब्जा) है।  उन्हें  मेरा बनाया अंगराग बहुत भाता है। परंतु आप दोनों से  उत्तम कोई और पात्र नहीं है। यह कहते हुए चंदन से भरा पात्र  कृष्ण  को दे दिया और अपना हृदय उन पर न्योछावर कर दिया।
      भगवान ने उस पर ऐसी कृपा करी कि उसका कूबड  एक दम सीधा हो गया और वो एक सुंदर स्त्री  बन गई।  उसी समय उसके मन में भगवान को घर  लेजाने  की  कामना  जागृत  हो उठी। श्रीकृष्ण ने कहा,"मैं आवश्य आऊंगा।" भगवान  ने  यह सिद्ध किया कि सुंदरता तन की नहीं मन की होती है।
                             धनुष भंग
      भगवान हर एक को संभलने का अवसर  देते  हैं।  उन्होंने धनुष भंग करके कंस को भी संदेश दिया था। परंतु कहते हैं ना कि " विनाश काले विपरीत बुद्धि।" उस मूढ़ की समझ में कुछ नहीं आया। रास्ता पूछते हुए दोनों भाई रंग शाला में पहुंच गए। भीतर जाकर धनुष  को  देखा,  उठाया,  डोरी  बांधने  के लिए डोरी खींची और रक्षकों के रोकते  रोकते  ही उसके  दो  टुकड़े कर दिए। ' मारो मारो ' कहते हुए सभी रक्षक  उस  ओर  दौड़े परंतु भगवान ने उस टूटे हुए धनुष से ही उन सब  को  परलोक पहुंचा दिया।  कोशिश तो  कंस को चेतावनी  देने की थी  परंतु मूढ़ और डरा  हुए  व्यक्ति  कहां  समझ  पाता  है।  उसने और सिपाही भेजे जो कि वहां पहुंचते ही दोनों भाइयों के हाथों मारे गए। उस रात बलराम और कृष्ण  वापिस उधर  ही  पहुंच  गए जहां नंद आदि ग्वालों ने डेरा डाल रक्खा था।
                    दंगल महोत्सव की तैयारी
     कंस छोटे राजाओं के  मध्य  एक  ऊंचे  आसन  पर जाकर बैठ गया। वह भीतर से  श्रीकृष्ण  की  लीलाओं  को  सुन  कर बहुत डरा हुआ था। वह चाहे शत्रुता  और  भय  के  कारण  ही सही, हर समय केवल और केवल श्रीकृष्ण का ही  चिंतन  कर रहा था। रंग भूमि को ख़ूब सजाया गया था। नागरिकों के बैठने के  लिए  विशेष  प्रबंध किए गए थे। उधर चाणूर, मुष्टिक, कूट, शल  और  तोषल  आदि  प्रधान  प्रधान पहलवान  संगीत  की समधुर ध्वनि से उत्साहित होकर  अखाड़े में आकर  बैठ  गए। नंद आदि गोपों ने वहां आकर  कंस को  उपहार  भेंट करने  के उपरांत अपना अपना स्थान ग्रहण किया।
                    कुवल्यापीड का उद्धार और
                           अखाड़े में प्रवेश
     श्रीकृष्ण जी और बलराम जी भी दंगल के अनुरूप  नगाड़े की ध्वनि सुनकर  रंग  भूमि  देखने  के लिए चल पड़े। दरवाजे पर महावत  कुवल्यापीड़  नामक  हाथी  को  लेकर  खडा था। श्रीकृष्ण के रास्ता मांगने पर उल्टा उसने हाथी को ही  उन  पर छोड़ दिया। भगवान ने अपने पैरों से ही उस  हाथी  को  कुचल दिया। उसके दांत उखाड़ कर पहले तो उस  महावत  को  मारा और बाद में उन्हीं दांतों को दोनों ने अपने अपने कंधों पर अस्त्र की तरह सुशोभित करके अखाड़े में प्रवेश किया।  उनके  मुख पर पसीना और बदन पर रक्त और मद की बूंदें थीं। उस  समय प्रभु श्रीकृष्ण की झांकी देखने वाली थी।  वे  दोनों  किसी  को बालक तो किसी को योद्धा, किसी को मित्र तो  किसी  को शत्रु और किसी को भगवान दिखाई दे रहे थे। इसी लिए कहा है कि जा की रही भावना जैसी, प्रभु मूरती देखी तिन तैसी।
     आते ही चाणूर ने कहा कि आप लोग कुश्ती में निपुन्न  हो। इस लिए महाराज कंस की इच्छा है कि तुम हमारे  पहलवानों से  कुश्ती करो। श्रीकृष्ण ने कहा कि हम तो बालक हैं। हमारी कुश्ती भी बालकों से होनी चाहिए।  चाणूर ने  कहा  नहीं, तुम बालक नहीं हो। अभी अभी तुमने हाथी को मारा है। इस लिए तुम्हें पहलवानों से ही कुश्ती करनी होगी।
              कंस और उसके पहलवानों का वध
     वहां पर बैठे सभी नागरिक इस अन्याय पर विचार  कर रहे थे। परंतु बोलने की किसी की हिम्मत ना थी। कंस  किसी  की सुनने को तैयार भी कहां था। श्रीकृष्ण जी की कुश्ती चाणूर से और बलराम जी की मुष्टिक से हुई। वज्र से कठोर दोनों भाइयों के शरीरों से रगड़ने के कारण चाणूर और मुष्टिक दोनों की रग रग ढीली पड़ गई। कुछ ही पलों में वे ढ़ेर हो गए और मारे गए। इसी तरह बाकी के पहलवान भी मारे गए। उसके बाद भगवान ने अपने ग्वालों के साथ कुश्ती का  खेल  खेलना  शुरू  किया। सभी नाच नाच कर आनन्द से कुश्ती खेल रहे थे। सभी दर्शक इस खेल का आनंद ले रहे  थे  परन्तु  कंस  यह  सब  देख कर आग बबूला हो गया। उसने चिढ़ते हुए संगीत को बंद करने कि आज्ञा दी और अपने सिपाहियों को यह  भी  आदेश  दिया  कि इनको नगर से बाहर निकाल दो, ग्वालों का सारा धन छीन लो, नंद को कैद कर लो, वसुदेव और  मेरे  पिता  उग्रसेन  को  मार डालो।
     इतना सुनते ही श्रीकृष्ण कुपित होकर वेग पूर्वक उछलकर उसके मंच की ओर बढ़े। कंस ने संभलते  हुए  अपनी  तलवार को उठाया। इससे पूर्व  की  वो  भगवान  पर आक्रमण  करता, श्रीकृष्ण ने उसे बलपूर्वक पकड़ा  और  उसका  मुकुट  दूर  जा गिरा। प्रभु श्रीकृष्ण ने उसको बालों से पकड़ा और पूरे ज़ोर से नीचे भूमि पर पटक दिया। और स्वयं वहीं से उछल कर उसकी छाती पर ऐसा कूदे कि एक ही झटके  में  उसके  प्राण  निकल गए। मरते समय भी कंस का पूरा चिंतन कृष्ण  पर ही  केन्द्रित था। इसलिए उसका उद्धार हुआ। उसके आठ भाई थे  जिन्होंने बदला लेने के लिए प्रयत्न किया किन्तु मारे गए।
     उस समय आकाश में नगाड़े  बजने  लगे।  भगवान  शंकर जी, ब्रह्मा जी,  और  देवता  पुष्प  वर्षा  करने  लगे।  अप्सराएं नाचने लगीं। श्री कृष्ण  जी  ने  अपने  माता,  पिता  एवं  नाना उग्रसेन जी को स्वतंत्र करवाया।  अपनी  योग  माया  के  द्वारा भगवान ने अपना भगवद्भाव छिपा लिया और तीनों की  चरण वंदना की। नाना उग्रसेन को फिर से राजा  बनाया।  बाबा  नंद और ग्वालों को  समझा  बुझाकर  कि  अभी  बहुत  सारे  कार्य बाकी है इस लिए मेरा यहां रहना  बहुत  आवश्यक  है, अनेकों प्रकार के उपहार देकर व्रज में वापिस भेजा।
                     जय श्रीकृष्ण जी की

     

गुरुवार, 19 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवत महापुराण लेख संख्या 31(कुछ और लीलाएं)

                              सुदर्शन उद्धार
    एक बार नंद बाबा ने शिवरात्रि के अवसर पर दूसरे गाेपों के साथ अंब्रिकावन की यात्रा की। शंकर  जी  के पूजन के बाद वे सब सरस्वती नदी के किनारे ही सो  गए। वहां  पर  एक  बहुत भारी अजगर था। उसने नंद जी को पकड़ लिया। सभी  ने  नंद जी को छुड़ाने की कोशिश की। परंतु अजगर  उन्हें  नहीं  छोड़ रहा था। जब श्रीकृष्ण जी को  पता  चला  तो  वे  उसी  समय  उनको छुड़ाने के लिए उस स्थान पर  पहुंच  गए।  उन्होंने जैसे ही अजगर को अपने पांव से छुआ, वैसे ही उसने  अजगर  का शरीर त्याग दिया और एक सुंदर गंधर्व का रूप ले लिया। उसने श्रीकृष्ण को प्रणाम किया और बताया कि बहुत  सुंदर  होने के कारण उसे अभिमान हो गया था। अभिमान वश उसने अंगिरा वंश के ऋषियों का अपमान कर दिया। इस कारण उन्होंंने उसे अजगर हो जाने का श्राप दे दिया। आज श्रीकृष्ण जी ने अपने पांव  से छूकर  उद्धार  कर  दिया। आज्ञा  लेकर  उसने  अपने लोक को प्रस्थान किया।
                           शंखचूड़ का उद्धार
     एक बार कुबेर का एक यक्ष गोपियों को चुरा कर  ले गया। जब उसका पीछा किया तो  वो  डर  कर  उन्हें  वहीं  छोड़ कर भाग गया। बलराम जी तो  गोपियों के  पास  उनकी  सुरक्षा के लिए रहे परंतु श्रीकृष्ण जी ने उसका पीछा  किया। उसे  पकड़ कर उसके सिर पर एक घूंसा मारा और उसे मार दिया। उसके सिर से उसकी चूड़ामणि भी निकाल ली।
                               युगलगीत
    बाल श्रीकृष्ण इतने प्यारे हैं कि  व्रज  का  हर  प्राणी  केवल उनका ही चिंतन करता है। जब  वो  गायों  को  चराने  के लिए निकल जाते हैं तो  गोपियों  के  चित  भी  उनके  साथ ही चले जाते  हैं  और  वे  वाणी से उनकी लीलाओं का गुणगान करती रहती हैं।  संतों  का  कहना  है  कि  एक  साधक  की भी यही स्थिति होनी चाहिए।
    गोपियां  कहती हैं कि  श्याम सुंदर द्वेष करने वालों तक को भी मोक्ष प्रदान कर देते हैं। वे उनकी  बांसुरी  की तान, सौंदर्य, हंसी, मधुरता और चातुर्य की प्रशंसा करती हैं। वे कहती हैं कि उनके चरण कमलों में ध्वजा, वज्र, कमल एवं अंकुश आदि के विचित्र और सुंदर चिन्ह हैं। उनके गले में मनियों  की  माला है, तुलसी की सुगंध उन्हें बहुत प्रिय है। उनको  गायों  से  भी बड़ा प्रेम है।  इस  प्रकार  आपस में बाल श्रीकृष्ण जी  की  ही  बातें सारा दिन करती हैं।  जब  श्रीकृष्ण  लौट कर आते हैं तो उनमें रम जाती हैं।
    यहां पर साधकों के लिए यही है कि जैसे गोपियां सारे कार्य करती हुई हर समय  केवल  श्रीकृष्ण जी का ही  चिंतन करती हैं, उसी तरह साधक को भी करना चाहिए।  भगवान के विग्रह के एक एक अंग का ध्यान करते हुए, जब यह स्थिति बन जाए कि भगवान  के  पूर्ण  विग्रह  के  दर्शन  होने लगें, तो उनमें रम जाए।
                         अरिष्टासुर का उद्धार
    एक दिन व्रज में आनंद उत्सव की धूम मची  हुई  थी।  उसी समय अरिश्टासुर नामक  एक दैत्य  बैल का रूप धारण करके आया। उसका ककुद (कन्धे का पट्ठा) और डील डाल बहुत ही बड़े बड़े थे। वह अपने खुरों को इतने ज़ोर से पटक रहा था कि उससे धरती कांप रही थी।  वह  ज़ोर ज़ोर  से  गर्जना कर रहा था, धूल उड़ा रहा था, पूंछ  खड़ी  करके  सींग  से  दीवारें तोड़ रहा था और इधर उधर दौड़ रहा था। सभी  उससे  डर  रहे थे। श्रीकृष्ण ने उसकी ओर देखा और ललकारा।  वह श्रीकृष्ण की ओर दौड़ा। श्रीकृष्ण ने दोनों हाथों से उसके दोनों सींग  पकड़  लिए और उसे  अठारह  पग  पीछे  धकेल कर गिरा दिया। वह फिर से खड़ा हुआ तो फिर से  उसके  सींग  पकड़े  और  लात मार कर गिरा दिया। अपने छोटे छोटे पैरों  से  दबाकर  उसका कचूमर निकाल दिया। उसके सींग को खींच कर बाहर निकाल लिया और उसी से उसको इतना मारा कि उसके  प्राण  निकल गए।
             कंस द्वारा अक्रूर जी को व्रज में भेजना
    एक दिन नारद जी कंस के पास गए और  उसे  बताया कि  व्रज में जो कृष्ण है वो देवकी का और बलराम रोहणी का पुत्र है। इतना सुनते ही कंस आग बबूला हो गया और  उसने उसी समय देवकी ओर वसुदेव को, जिन्हें पहले छोड़ दिया था, फिर से कारागार में डाल दिया। पहले तो उसने वसुदेव को मारने के लिए तलवार उठा ली थी, परंतु नारद जी ने उसे ऐसा करने से  रोक दिया। नारद जी के चले जाने के बाद  कंस  ने  केशी  को बुलाकर कृष्ण और बलराम को मारने  के  लिए  भेजा।  उसके बाद उसने मुष्टिक, चाणूर, शल और  तोशल  आदि  पहलवानों एवं मंत्रियों को बुलाकर कहा कि कृष्ण और बलराम को  यहां बुलाया जा रहा है।  जब  वो  यहां  आएं  तब  तुम  उन्हें कुश्ती लड़ने के बहाने ही मार देना। अब तुम भांति भांति के मंच और अखाड़े तैयार करवाओ ताकि लोग  आकर  दंगल  देख  सकें। महावत को कहा कि तुम फाटक पर हाथी को रखना। जब वो आएं तो उन्हें हाथी से ही  कुचलवा  कर  मरवा  डालना।  इसी चतुर्दशी को विधिपूर्वक धनुष यज्ञ प्रारम्भ कर दो और उसकी सफलता के लिए वरदानी भूतनाथ  भैरव  को  बहुत से  पवित्र पशुओं की बलि चढ़ाओ।
     तब कंस ने  श्रेष्ठ  यदुवंशी  योद्धा  अक्रूर  जी को  बुलवाया और उनका हाथ अपने हाथ में लेकर बोला," अक्रूर  जी  आप तो बड़े दानी हैं और सब तरह से मेरे आदरणीय हैं।  आप  मेरा एक मित्तरोचित कार्य कर दीजिए।  यदुवंशियों में आप से बड़ा और कोई नहीं है। मैंने केवल आपका ही आश्रय लिया है।आप एक सुंदर रथ लेकर नंद के व्रज  में  जाइए  और  उसी  रथ  में वसुदेव के दोनों पुत्रों को लेकर आइए। अक्रूर जी  ने  कंस  को समझाया कि यह आपके लिए गलत  भी  हो  सकता है।  परंतु कंस अपनी बात पर अड़ा रहा। अंत में अक्रूर जी अगली सुबह व्रज में जाने के लिए अपने घर को चले गए।
                         केशी का उद्धार
     केशी एक बहुत बड़े घोड़े का रूप बनाकर  मन की गति से दौड़ता हुआ व्रज में आया।  सभी  लोग  भय  से  कांप  रहे थे। तभी कृष्ण जी ने सामने से आकर उसे ललकारा। वह और भी चिढ़ गया। उसने कृष्ण के पास आकर ज़ोर से दुलात्ती  झाड़ी। तब भगवान ने दोनों हाथों से  उसके  पिछले  पैर  पकड़  लिए और घुमाकर चार सौ हाथ की दूरी पर  फैंक  दिया।  वह  फिर झपटा तो भगवान ने अपना  बायां  हाथ  उसके  मुंह  में  डाल दिया। केशी के दांत  टूट टूट  कर  गिर  गए।  हाथ (भुजदण्ड) उसके मुंह में बढ़ने लगा। सांस रुकने  से  उसका  दम  घुट रहा था। वह ज़ोर ज़ोर से पैर पटकने लगा। वह  पसीने  से लथपथ हो गया, आंखों की पुतलियां  उल्टी  हो  गईं, निष्चेष्ट  हो  गया और देखते ही देखते उसके प्राण  पंखेरु  उड़  गए।  भगवान ने अपनी भुजा खींच ली। यह सब देख कर आकाश में देवता भी आश्चर्यचकित हो गए और पुष्प वर्षा करने लगे।
                           व्योमासुर उद्धार
     एक समय श्रीकृष्ण पहाड़ की चोटियों पर  गायों  को  चरा रहे थे। ग्वालों के साथ छुपा छुपी भी खेल रहे  थे।  कुछ  ग्वाले चोर और कुछ ग्वाले रक्षक बने हुए थे। ग्वाले का वेश बना कर व्योमासुर भी वहां आ गया। वह मायासुर का पुत्र था।  वह  भी चोर बनकर ग्वालों को चुरा कर ले जाता और दूर एक गुफा  में छुपाकर पत्थर से गुफ़ा का दरवाजा बंद कर आता। जब  थोड़े से ग्वाले रह गए तो भगवान ने  उसे  पकड़  लिया।  वह  बहुत बलि था। उसने अपना पहाड़ सा शरीर बना लिया  परंतु अपने आप को छुड़ा नहीं पाया। भगवान  ने  उसे  भूमि  पर  गिराया और उसका गला दबाकर उसे मार डाला और  ग्वालों  को  भी गुफ़ा से बाहर निकाला।
     अगले लेख में अक्रूर जी की व्रज यात्रा  और  श्रीकृष्ण  जी के मथुरा गमन बारे लिखा जाएगा
                     जय श्रीकृष्ण जी की

बुधवार, 18 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवत महापुराण- लेख संख्या 30 (महारास)

                              रास लीला
शरद ऋतु आ गई। व्रज में चारों ओर सुंदर और सुगंधित  पुष्प खिल उठे हैं। भगवान ने अपनी माया से  रात्रि  को  दिव्य  बना दिया। जैसे ही उधर चंद्र देव उदय हुए इधर  भगवान ने  बांसुरी पर मधुर तान छेड़ी। बांसुरी की मधुर आवाज़ सुनकर  भगवान को समर्पित गोपियां अपने स्थूल शरीरों को जहां थीं वहीं छोड़ कर दिव्य शरीरों के  साथ  उसी  ओर खींची  चली  आईं, जहां श्रीकृष्ण अपनी बांसुरी की तान छेड़े हुए थे। श्रीकृष्ण ने उनका स्वागत किया और शिक्षा भी दे  डाली  कि  उन्हें अपने  अपने घर वापिस चले जाना चाहिए। गोपियों के अनुनय विनय करने पर उन्हें दया आ गई और उन्होंने गोपियों को वहीं रुकने दिया। गोपियां  वहीं  भगवान  के  लगातार  दर्शन  करने  लगीं।  जब गोपियों को अपने आप  पर अभिमान होने लगा तो भगवान ने अपने आप को अदृश्य कर लिया।
    भगवान के अदृश्य होते ही व्रज युवतियों का हृदय विरह की ज्वाला से जलने लगा। भगवान के द्वारा  की  गई  लीलाओं  ने उनके चित्त को  चुरा  लिया। गोपियां  विरह  वेदना  से  पीड़ित होकर अपने आप को भूलकर श्रीकृष्ण स्वरूप हो गईं। उन्होंने अपने आप को ' मैं कृष्ण हूं' ऐसा  कहना  शुरू कर  दिया।  वे तुलसी से, मालती से कृष्ण का  पता  पूछने लगीं। वे कातर हो गईं। गाढ़  आवेश  के  कारण  भगवन्मय  होकर  भगवान  की विभिन्न लीलाओं का अनुसरण करने लगीं। श्रीकृष्ण जी की ही भावना में डूबी हुई गोपियां  यमुना  जी  के पावन  पुलिन  पर  ' रमणरेती ' लौट आईं और  एक  साथ  मिलकर  श्रीकृष्ण  के गुणों का गान करने लगीं।
                            गोपिका गीत
    उसी विरहावेश में वे गाने लगीं:- हे कन्हैया, तेरे कारण व्रज की महिमा बैकुंठ से भी बढ़ गई है।  परंतु तुम्हारे लिए समर्पित गोपियां तुम्हें  वन वन  ढूंढ रही हैं। तुम तो  अन्तर्यामी  हो। तुम शीघ्र  हमारे पास आकर  हमारे सिर पर  हाथ  रख  दो। हम से रूठो मत  और हमें  अपना सांवला कमल  मुख  दिखला  कर  हमें जीवन दान दो।  तुम्हारे द्वारा की  गई   लीलाओं  की  याद आकर  हमारे मन को क्षुब्ध  किए  देती  है।  हमारा  जीवन तो केवल तुम्हारे लिए है।
                   श्रीकृष्ण जी का प्रकट होना
    जब गोपियां फूट फूट कर रोने लगीं तो उसी समय श्रीकृष्ण जी प्रकट हो गए। गोपियों के नेत्र फिर खिल उठे।  उनमें प्राणों का संचार हुआ। नवीन चेतना  आई।  उनका  रोम रोम  खिल  उठा। वे सिद्ध योगियों के समान परमानन्द में मग्न हो  गईं।  वे शांति के समुद्र में डूबने लगीं। तभी अचानक कहने  लगीं, " हे नट- नागर कुछ लोग ऐसे होते हैं जो प्रेम करने वालों से ही प्रेम करते हैं। दूसरे वो लोग होते हैं जो प्रेम  ना  करने  वालों  से भी प्रेम करते हैं। और तीसरे वो लोग होते हैं जो, प्रेम  करने  वाले और प्रेम ना करने वाले, दोनों से ही  प्रेम नहीं  करते। हे  प्यारे! इन तीनों में से तुम्हें कौन सा अच्छा लगता है?
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा," गोपिओ सुनो! जो प्रेम करने पर ही प्रेम करते हैं, उनका तो सारा उद्योग  स्वार्थ  को  लेकर  ही  है।
जो लोग प्रेम ना करने वालों से  भी  प्रेम  करते हैं, उनका हृदय सौहार्द से भरा रहता है। उनके व्यव्हार में निष्छलता, सत्य एवं पूर्ण धर्म होता है। तीसरी  प्रकार  के लोग, जो प्यार करने और ना करने वाले दोनों प्रकार के लोगों से ही प्यार  नहीं  करते, वे चार प्रकार के होते हैं:-
1. वो लोग जो अपने स्वरूप में मस्त रहते हैं।
2. जिनको द्वैत तो भास्ता है, परंतु कृत्य कृत्य हो चुके हैं।            उनको किसी से कोई प्रयोजन नहीं है।
3. जो जानते ही नहीं की उनसे कौन प्रेम करता है।
4. जो जानबूझ कर अपना हित करने वाले परोपकारी गुरु          समान लोगों से भी द्रोह करते हैं। उनको सताना चाहते हैं।
         परंतु मैं तो प्रेम करने वालों से भी प्रेम का वैसा व्यवहार नहीं करता जैसा करना चाहिए। मैं ऐसा केवल इस लिए करता हूँ कि उनकी चित्त वृत्ति और भी मुझ में लगे और  निरंतर लगी रहे। तुम लोगों ने जो मेरे लिए छोड़ा उन गृहस्थ की बेड़ियों को बड़े बड़े योगी भी नहीं तोड़ पाते। मुझसे  तुम्हारा यह आत्मिक संयोग सर्वथा निर्मल और सर्वथा निर्दोष  है। मैं  सदा  के  लिए तुम्हारा ऋणी हो गया"
                                 महा रास
       अप्राकृतिक शरीर में वहां पर आई हुई  गोपियां, श्रीकृष्ण जी की सुमधुर वाणी सुनकर  सफल  मनोरथ हो  गईं।  उनका जो विरह जन्य ताप शेष था वह भी समाप्त  हो  गया। भगवान ने उनके साथ यमुना जी के तट पर रस मई रास  क्रीड़ा  प्रारंभ की। हर एक को लगा कि भगवान श्रीकृष्ण उसी  के  पास  हैं।
कहा गया है कि जो धीर पुरुष यह  कथा  सुनता  है  या  वर्णन करता है, उसे  भगवान  के  चरणों में परा भक्ति प्राप्त होती है।
इसके  इलावा  शीघ्र  ही  अपने हृदय  के रोग, काम विकार, से छुटकारा  पा  जाता  है। उसका काम भाव सर्वदा नष्ट हो जाता है।  यहां  पर  रास  को इस तरह परिभाषित किया गया है कि,
" जिस  दिव्य  क्रीड़ा  में  एक ही रस अनेक रसों के रूप में हो कर, अनन्त अनन्त  रस  का समा स्वादन करे, एक रस ही रस समूह के रूप में प्रकट  होकर स्वयं ही आसवाद्ध्य- आस्वादक, लीला धाम और विभिन्न आलंबन एवं उद्वीपन के रूप में क्रीड़ा करे  उसका  नाम  रास  है।" यह  लीला  दिव् धाम  में निरंतर चलती रहती है।
       भगवान  का  शरीर जीव शरीर की भांति जड़ नहीं होता। यह रास  वस्तुत: परम उज्ज्वल रस का  एक  दिव्य प्रकाश है। गोपियां भी  भगवान के समान  परम रस मई और सच्चिदानंद मई ही हैं।  उस दिव्य भाव की  साधारण  स्त्री पुरुष  से तुलना करना  महान अन्न्याय  एवं  अपराध है। उद्धव जी जैसे महान संत भी गोपियों के प्रेम के आगे नतमस्तक हुए हैं।
                       जय श्रीकृष्ण जी की

मंगलवार, 17 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवत महापुराण लेख संख्या 29(चीर हरण, यज्ञ पत्नियों पर कृपा और गोवर्धन पूजा)

                 श्रीकृष्ण और गोपियों का संबंध
  श्रीकृष्ण साक्षात परब्रह्म परमात्मा हैं और गोपियां उनसे युगों युगों से जुड़े उनके भक्त हैं। वो भक्त जो  युगों  से  भगवान  के साथ इतना प्रेम करते हैं  कि उनको भगवान के सिवा कुछ  भी नहीं चाहिए। भगवान के सिवा ना उनका  कोई  रिश्ता है  और ना उनकी कोई वस्तु है। यहां  तक  कि  उनको अपने शरीर का भी कोई  मोह  नहीं है।  परमात्मा  के  सिवा  उनको  कुछ  भी नहीं चाहिए। और श्रीकृष्ण ही उनका परमात्मा है। वही उनका एक मात्र उद्देश्य है। इसी के लिए  जन्म  जन्मांतर से वे  प्रयत्न कर रहे हैं। इनके संबंध को स्त्री  और  पुरुष  के  रूप  में  नहीं अपितु भगवान और भक्त  की  दृष्टि  से  देखना  चाहिए।  उस समय कान्हा की आयु केवल 9 वर्ष  की थी। इस  लिए इसको पुरुष और स्त्री के भाव से तो कतई नहीं देख सकते।
                      तीन प्रकार की गोपियां
   वास्तव में वृंदावन भगवान के धाम बैकुंठ  का  ही  रूप  बन गया था। यहां पर जो गोपियां थीं उनमें तीन प्रकार के भक्त थे।
पहले थे भगवान के पार्षद जो नित्य भगवान के साथ ही  रहते हैं।  दूसरे थे देवता जो भगवान की  लीला  में  सम्मिलित  होने आए थे। और तीसरे थे भगवान के  वो  सबसे  प्रिय  भक्त  जो अनन्य भाव से उनमें ही प्रीति रखते थे और सदा सदा के  लिए भगवान के ही साथ रहना चाहते थे। इन तीन  प्रकार  के भक्तों ने ही वृंदावन में गोपियों के रूप में जन्म लिया था।
                             वेणु गीत
   सुंदर वन में गाऊओं को चराते मधु पति श्रीकृष्ण  ने  बांसुरी की तान छेड़ी तो गोपियां मन से वहां पहुंच गईं। उन्होंने मन ही मन भगवान के दर्शन भी किए। सिर पर  मोर  मुकुट,  कान में कनेर का फूल और गले में वैजयंती माला पहने हुए कान्हा की  ग्वाल बाल स्तुति कर रहे हैं। उनकी शोभा  को तो  वही  जान  सकते  हैं जिन्होंने उन्हें देखा है। उस समय गोपियों ने जो  गीत गाया, उसे ही वेणु गीत कहते हैं। इस गीत में गोपियां कह  रही हैं कि भगवान के अवतार लेने से चेतन और जड़  सभी  उनके रूप के रस का पान कर  रहे  हैं।  यह  गऊ  और  वेणु (वंशी), नदियां, ग्वाल बाल और  गिरी  राज  सभी  बड़भागी  हैं  जिन्हें भगवान का सानिध्य प्राप्त हो रहा है। वो यह भी कहती हैं  कि संसार में कोई देखने योग्य है तो वह केवल श्रीकृष्ण ही हैं।
                             चीर हरण
   हेमंत ऋतु में व्रज की गोपियों ने श्रीकृष्ण की  प्राप्ति के लिए कात्यायनी देवी का व्रत रख कर  एक  महीने  तक  पूजा  की। एक दिन वे निर्वस्त्र यमुना तट पर श्रीकृष्ण गुणगान करती हुई, स्नान कर रही थीं। उनकी अभिलाषा भगवान से छिपी ना थी।
 श्रीकृष्ण (9 वर्ष की आयु के बालक) ने उनके वस्त्र चुरा  लिए और कदंब के पेड़ पर चढ़ गए। जब गोपियों ने देखा तो उन्होंने उसे वस्त्र वापिस देने को कहा। परंतु कृष्ण ने  कहा  कि  बाहर आकार ले जाओ। वास्तव  में  भगवान  अपने  भक्तों  के  वस्त्र (संस्कार)  जो परमात्मा के मिलने में बाधक बन रहे थे उनको समाप्त करना चाहते थे।  अंत में उन्होंने बाहर आकर कृष्ण से वस्त्र प्राप्त किए। इसका  अर्थ है  भक्तों  ने  भगवान  के  आगे समर्पण कर दिया। साधकों के लिए यहां  पर  कृष्ण  परमात्मा हैं, वस्त्र सांसारिक संस्कार (बंधन) हैं जिस में मनुष्य बंधा हुआ भेद भाव में फंसा रहता है  और  परमात्मा  और उस  जीव  के अंदर संस्कारों का एक पर्दा बना रहता है और जीव (भक्त) का भगवान से एक हो जाने का भाव पूर्ण नहीं हो पाता।  जो वस्त्र गोपियों और कृष्ण के बीच पर्दा थे वही जब  कृष्ण  ने  वापिस किए तो प्रसाद बन गए। वस्त्र वापिस करने का अर्थ है  कि  वो अपने सांसारिक दायित्वों का निर्वहन करें। अर्थात जीव अपने संस्कारों या जिम्मेदारियों को तो निभाए  परंतु उसे  अपना  ना समझ कर भगवान को अर्पित  करते  हुए  उनकी  आज्ञा  मान कर ही निभाए। अपने आप को उनमें ना  उलझाए। सदा  सदा समर्पण की भावना ही रक्खें। मन से  उनके साथ जुड़ा ना  रहे अपितु सेवा, त्याग, और समर्पण करता हुआ  अनन्य  भाव  से भगवान से जुड़ा रहे।
   जो  श्रीकृष्ण को भगवान मानते हैं वो समझते  हैं कि  उनके सामने तो सब स्पष्ट है। आवरण तो केवल  साधारण  लोगों  के लिए हैं। हमारी बुद्धि और दृष्टि केवल देह तक  ही  सीमित  है। इस लिए दिव्य प्रेम को भी हम केवल कामना  कलुषित  समझ बैठते हैं।
    श्रीकृष्ण ने गोपियों की मनोस्थिति  को देखते हुए  कहा कि अब तुम घर लौट जाओ, तुम्हारी साधना सिद्ध हुई। आने वाली शरद ऋतु की रात्रि में महा रास होगी।
    श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार जी ने  शंका निवारण हेतु  कितना सुंदर लिखा है कि अध्यात्मवादी श्रीकृष्ण को  आत्मा  के  रूप में देखते हैं  और  गोपियों को  वृत्तियों (विचारों या मनोस्थिति) के रूप में। वृत्तियों का आवरण नष्ट हो जाना ही  चीरहरण की लीला है और उनका आत्मा में रम जाना ही रास है।
                      यज्ञ पत्नियों पर कृपा
    एक बार श्रीकृष्ण वन में गायों को चराते समय, साथी ग्वाल बालों  को  (वृक्षों के हम पर क्या उपकार हैं)  इसके  विषय  में बड़े  लंबे समय तक बात  करते  रहे।  दोपहर  के  भोजन  का समय हो गया। सब को ज़ोर की भूख लगी थी। वहां  से  थोड़ी दूरी  पर  ही  वेद  वादी  ब्राह्मण  स्वर्ग  की  कामना से यज्ञ कर रहे थे। श्रीकृष्ण ने अपने साथी ग्वालों  को कहा कि,"तुम  वहां जाओ और यज्ञ शाला से मेरे, बलराम और अपने लिए  भोजन मांग कर ले आओ।"
   जब ग्वालों ने वहां जाकर भोजन मांगा तो उन्होंने  नहीं दिया और कहा कि बिना भोग लगाए भोजन नहीं दिया का  सकता। जब ग्वाले खाली हाथ वापिस आए तो श्रीकृष्ण ने  उनको  उन ब्राह्मणों की पत्नियों के पास  भेजा। उन स्त्रियों ने भगवान की लीलाएं सुन रक्खी थीं। वो  श्रीकृष्ण जी  को  भगवान  मानती थीं। उनको रोके जाने के बाद भी उन्होने स्वादिष्ट भोजन लिया और श्रीकृष्ण के पास चली आईं। उन्होंने भगवान के आगे पूर्ण समर्पण कर दिया और बड़े भाव से  दर्शन किए।  ब्राह्मणों  को जब पता चला तो उन्हें बहुत पछतावा  हुआ। उन्होंने  श्रीकृष्ण जी के पास जाना चाहा परन्तु कंस के डर से नहीं गए। तब श्री कृष्ण ने उन स्त्रियों को समझाया कि भक्ति मार्ग ही सबसे श्रेष्ठ है। तुम सब घर जाओ और सदा ही मुझ में  अपना मन  लगाए रखना। जल्दी ही तुम सब को मेरी प्राप्ति हो जाएगी।
                        इन्द्र यज्ञ - निवारण
    व्रज के सब गोप, इन्द्र यज्ञ, करने  की  तैयारी  कर  रहे  थे। श्रीकृष्ण ने नंद बाबा आदि बूढ़े  गाेपों  से  पूछा,"यह  कौन  सा उत्सव है ?" बाबा नंद ने उत्तर दिया कि इन्द्र मेघों के स्वामी हैं। वे जीवन दान देने वाले हैं  और जल  को  बरसाने वाले हैं। इस उत्सव में हम सब उन्हीं की पूजा करते हैं। इस पर  श्रीकृष्ण ने कहा, "प्राणी अपने कर्मों से ही फल पाता है और मनुष्य अपने स्वभाव (पूर्व संस्कारों) के आधीन है। वह  उन्हीं का  अनुसरण करता है। इन्द्र का इसमें  कुछ  भी  नहीं  है। सभी  को  अपना अपना कार्य करना  चाहिए। जैसे  हम  सदा  से  गोपालन  का कार्य ही करते हैं और जंगलों में रहते हैं।
   पिता जी इस संसार की स्थिति, उत्पत्ति और अंत के क्रमशः सत्व गुण, राजो गुण और तमों गुण ही  कारण हैं। यह  विविध प्रकार का संपूर्ण जगत स्त्री - पुरुष के संयोग से राजो  गुण  के द्वारा उत्पन्न होता है। उसी  रजोगुण की प्रेरणा से ही  मेघ  सब जगह जल बरसाते हैं। उसी से अन्न और अन्न से ही सब  जीवों की जीविका चलती है। इसमें भला इन्द्र का क्या लेना  देना है?
     हमारे पास ना कोई राज्य हे ना हम बड़े नगर के  स्वामी हैं। हमारे पास तो घर भी नहीं है। हम तो बनवासी हैं। इस  सामग्री से भली भांति वेदवादी ब्राह्मणों द्वारा हवन करवाया जाए और उन्हें दान आदि दिए जाएं। और लोगों को भी यथायोग्य वस्तुएं दान देकर गऊओं को चारा दिया जाए। सज धज कर और खा पीकर गिरीराज गोवर्धन की प्रदक्षिणा की जाए। यह यज्ञ  मुझे भी बहुत प्रिय होगा।"
    श्री शुकदेव जी कहते हैं कि भगवान चाहते थे कि  इन्द्र  का घमंड चूर चूर किया जाए। सभी ने श्रीकृष्ण की बात से सहमत होते हुए वैसा ही किया जैसा श्रीकृष्ण जी ने  चाहा था। कान्हा स्वयं गिरीराज के ऊपर एक दूसरा विशाल शरीर  धारण करके प्रकट  हो  गए  और ' मैं  गिरीराज  हूं ' ऐसा  कहते  हुए  सारी सामग्री को सेवन करने लगे। सबने  यही माना कि  गिरीराज ने साक्षात प्रकट होकर हम पर कृपा की है।
                          गोवर्धनधारण
    इन्द्र को तो अपने पद का  घमंड  था  उसने  क्रोधित  होकर प्रलय के मेघों के बंधन  खोल  दिए।  मूसलाधार  पानी  बरसने लगा। चारों तरफ  पानी  भर  गया। पशु  ठिठुरने  और  कांपने लगे। सभी लोग व्याकुल होकर कृष्ण  की  शरण में  आए। श्री कृष्ण ने एक ही हाथ से गोवर्धन पर्वत को उठाया और  अपनी छोटी अंगुली पर धारण कर लिया। सभी ने उसके नीचे  शरण ले ली। सात दिन बाद बारिश रुकी  और  सूर्य  के  दर्शन  हुए। उसके बाद ही सब को बाहर निकाल कर पर्वत को भगवान  ने वापिस उसके स्थान पर रक्खा। उस  समय  आकाश  में  इन्द्र समेत सभी देवता, सिद्ध, गंधर्व, चारण श्रीकृष्ण जी की स्तुति करने लगे। इन्द्र ने देव ऋषियों के साथ आकाश गंगा  के जल से श्रीकृष्ण  का  अभिषेक  किया और उन्हें ' गोविंद ' नाम से संबोधित किया। कामधेनु  ने  भगवान  श्रीकृष्ण  जी  को  ही अपना और सभी गौओं  का  इंद्र  मान  कर  उनका अभिषेक अपने दूध से किया।  इन्द्र  ने  भगवान  से  अपने  द्वारा किए  घमंड  पूर्ण  कार्य  के  लिए क्षमा याचना की।
    सभी गोप  बाबा  नंद  से  श्रीकृष्ण  द्वारा  की  गई  अनेक लीलाओं के बारे चर्चा करते हुए उनकी प्रशंशा करने लगे।
             वरुण लोक से नंद जी को छुड़ा कर लाना
    एक बार नंद जी ने कार्तिक  शुक्ल  एकादशी  का  उपवास किया। उसी रात द्वादशी लग जानी थी। इस  लिए  नंद  जी  ने असुरों की वेला में ही यमुना जी  में स्नान  कर  लिया। इस पर वरुण का सेवक राक्षस  नंद  जी  को  उठाकर  वरुण  लोक ले गया। व्रज के सारे लोगों का रोना पीटना  सुनकर  श्रीकृष्ण जी वरुण लोक गए। वहां पर वरुण ने  श्रीकृष्ण  जी की  स्तुति की और क्षमा याचना करते हुए  बाबा  नंद जी, श्रीकृष्ण  को लौटा दिए। वापिस आकर बाबा नंद ने जब सारी  बात  बाकी  सभी
को सुनाई तो सभी गोप कृष्ण  जी को  भगवान मानकर उनसे प्रार्थना करने लगे कि वो उन्हें  अपने  धाम  के  दर्शन करवाएं।
इस पर श्रीकृष्ण जी ने उन सभी  को  अपने  धाम के दर्शन भी करवा दिए। सारे गोप भगवान के धाम के दर्शन करके मग्न हो गए।
                      जय श्री कृष्ण जी की

    

श्रीमद्भागवत महापुराण लेख संख्या 28(वृंदावन जाना)

                     गोकुल से वृंदावन प्रस्थान
       एक दिन नंद और सभी  गोपों  ने  मिल  कर  यह  निर्णय लिया कि अब गोकुल को  छोड़ कर वृंदावन चले जाना चाहिए क्योंकि गोकुल  में आए दिन अनेकों  उपद्रव  होते  रहते  हैं। वे पूतना एवं  तृणावर्त  जैसे राक्षसों द्वारा किए उत्पातों से चिंतित थे। ऐसा  निर्णय  होने  के  पश्चात  वे  सभी  अपनी  गायों और बछड़ों को  साथ  लेकर  बहुत  ही सुंदर वन वृंदावन में रहने के लिए चले गए।

वत्सासुर उद्धार:- एक दिन बलराम  और  कृष्ण  अपने  सभी दोस्तों  के  साथ यमुना के  तट  पर  बछड़ों  को  चरा  रहे  थे। उसी  समय  एक  शक्तिशाली  दैैत्य  वत्सासुर  उन्हें  मारने  के  इरादे  से वहां आया। वह  भी  बछड़ा बन कर उनके बछड़ों के साथ ही मिल गया। श्रीकृष्ण  जी  से  तो  कुछ  छिपा नहीं था। उन्होंने  उस दैत्य को पहचानते हुए उसे उसकी पूंछ और टांगों से  पकड़ा, घुमाया  और  मरने  के लिए कैथ  के वृक्ष पर फैंक दिया।

बकासुर उद्धार:-   एक दिन एक राक्षस   बकासुर  जलाशय के तट पर कृष्ण को मारने   के  इरादे  से  आया।  उसने  एक  बहुत बड़े बगुले का  रूप  बनाया  और  श्रीकृष्ण  को  निगल  लिया। बगुले का तालू आग के समान जलने लगा। तब उसने एक दम उगल दिया। अब  वह  श्रीकृष्ण  पर  झपटने  ही जा  रहा  था कि भगवान ने  उसके  दोनों  ठोर  पकड़  लिए  और  उनको  ज़ोर  से खोलते  हुए  चीर  डाले। यह  सब  देख  कर ग्वाले  प्रसन्न  हो गए। आकाश से  देवताओं ने भी  पुष्प  वर्षा की।

अघासुर उद्धार:-   कान्हा  सुबह  जल्दी  ही  ग्वाल बालों  के साथ खेलते कूदते बछड़ों को चराने निकल गए।  वहां पर सब  खूब मस्ती कर रहे थे। वहां अघासुर नाम का एक  भयंकर सा  दैत्य  आ पहुंचा। इन सभी दैत्यों   को कंस  ही  भेज  रहा  था। वह  अघासुर पूतना और  बकासुर  का  छोटा  भाई  था।  वह अजगर का रूप धारण  करके  रास्ते में  लेट गया। उसने गुफ़ा समान अपने  मुंह  को  फ़ाड़  रक्खा था।  ग्वाल  बाल  बछड़ों समेत गुफ़ा समझ कर उसके  अंदर  चले गए।  उन्हें  बचाने के लिए भगवान स्वयं भी अंदर चले गए। भगवान ने अपने शरीर को बड़ी फुर्ती से इतना  बढ़ा  लिया  कि  अघासुर   के   प्राण  ब्रह्म रंध्र  फोड़ कर निकल गए। इस तरह एक बहुत  बड़े दैत्य का  अंत करके  भगवान ने अपने सभी  सख़ाओं  को  जीवन दान दिया। देवता प्रसन्न होकर आकाश  से  पुष्प  वर्षा  करने लगे।  उस समय श्रीकृष्ण की आयु केवल पांच  वर्ष  की  थी।

ब्रह्मा जी के मोह का नाश:-     श्रीकृष्ण जी  एवं  सब  ग्वाल बाल, अघासुर के वध के बाद  यमुना तट  पर  ही  वाटिका  में  खाना खाने बैठ गए। खाना खाते समय उनके बछड़े  कहीं दूर निकल गए। खाना  खाने  के  बाद  श्री  कृष्ण जी  बछड़ों  को  देखने  दूर तक गए परंतु उन्हें बछड़े कहीं  नहीं  मिले।  वापिस आकर देखा तो ग्वाले भी गायब हो चुके थे। वस्तुत: ब्रह्मा  जी ने भगवान की  लीला को देखने के लिए ही उन सबको  गायब करके सुला  दिया था। भगवान  ने  अपनी  माया  से  वैसे  ही सभी ग्वाले और बछड़े बना दिए जैसे वो  थे और   सभी  प्रति दिन  की तरह  वैसे  ही अपने अपने घर को चले  गए।  किसी को कुछ पता नहीं चला  क्योंकि सभी रूप भगवान ने अपने में से ही  बनाए थे। एक  वर्ष  बीत जाने के बाद ब्रह्मा जी ने देखा कि भगवान  की  माया  अपरम्पार  है।  उन्होंने  आकर  क्षमा  याचना  की  और  बछड़े  तथा  ग्वाले   भगवान  को  वापिस किए। इस तरह से ब्रह्मा जी के मोह का नाश हुआ और उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण जी की स्तुति की।

धेनुकासुर का उद्धार:- छ: वर्ष के हो जाने के बाद  कान्हा और दूसरे ग्वाल बालों को गौवें चराने की अनुमति मिल गई। अब वे गायों को चराने वृंदावन के वनों में जाते थे।  एक दिन  बलराम एवं  कृष्ण  के  सखा,  श्रीदामा, सुबल  और  स्तोक कृष्ण ने  बड़े प्रेम के साथ कहा कि,"आप दोनों के  बल की  कोई  थाह  नहीं है। दुष्टों को नष्ट करना तुम्हारा  स्वभाव ही है।  यहां  थोड़ी  ही  दूरी  पर  एक  बहुत  बड़ा वन है  जिसको तालवन कहते हैं। उसमें ताड़ के फल पक पक कर गिरते हैं। परंतु वहां धेनुकासुर  नाम का दैत्य एक गधे के रूप में रहता है। उसके  समान  बलशाली और भी दैत्य उसके साथ रहते हैं। वे  अभी  तक  कई  मनुष्यों को खा चुके हैं। केवल आप ही वो फल हमें  खिला  सकते  हैं। बलराम और  कृष्ण  उनकी  बात सुन कर हंस  पड़े  और  उनको साथ लेकर  तालवान के लिए चल पड़े। वहां  पहुंचकर  उन्होंने ताड़  के पेड़ों  को   हिलाकर फल नीचे गिरा दिए।  यह  देख  कर  दैत्य  उनकी  ओर  दौड़ा और आते ही बलराम जी  की  छाती  में दुलत्ती मारी। जब को दोबारा ऐसा करने लगा  तो  बलराम  जी ने  उसके पैर  पकड़ लिए और आकाश में घुमाकर एक ताड़  के  पेड़  पर दे  मारा। घुमाते समय ही उसके प्राण पंखेरू  उड़  गए। बहुत सारे ताड़ के पेड़ भी  गिर  गए।  बाकी  दैत्यों  ने  भी  बलराम  जी  का मुकाबला करने की कोशिश की परंतु  मारे  गए।  भूमि ताड़ के फलों से लद गई। उस दिन से  सब  उस वन  में  निडर होकर विचरने लगे।

कालिया पर कृपा:- जेष्ठ - एक  दिन  श्रीकृष्ण  ग्वालों  संग यमुना तट पर गए। बलराम जी साथ नहीं थे। आषाढ के घाम से गाएं और ग्वाल बाल अत्यन्त  पीड़ित  हो  रहे  थे।  उन्होंने  यमुना जी का विषैला जल पी लिया। सब प्राण  हीन हो  गए। श्रीकृष्ण जी की अमृत दृष्टि से वे फिर से जीवित हो गए। वहां यमुना जी में कालिया नाग का एक कुंड था। जो भी पक्षी उस पानी में  गिर जाता वो मर जाता। तट के घास पात सूख जाते। यह सब देख कर श्रीकृष्ण कदंब के पेड़ पर  चढ़े  और  यमुना जी में कूद पड़े। नाग ने उन्हें अपने नाग पाश में बांधकर उन्हें  निस्तेज  सा  कर दिया। सारे ग्वाले यह  देख  कर  मूर्छित  हो गए। उधर व्रज में भी अपशकुन होने लगे। सब लोग भागे भागे कृष्ण को लेने पहुंचे। माता यशोदा तो पानी में उतरने ही वाली थीं  कि लोगों ने  उन्हें पकड़ लिया। वो मूर्छित  हो  गईं।  उधर श्रीकृष्ण जी ने भी लीला शुरू कर दी। कालिया नाग का  एक सौ एक  सिर  था।  भगवान  उसके  नागपाश  से  निकलकर उसके फन पर  जा  चढ़े।  उनके भार को वह कहां  सहन  कर सकता था। वह  मूर्छित  हो  गया। कलिया  नाग  की  पत्नियां रोने लगीं। उन्होंने भगवान  को  विनती  की  कि  वो  उस  पर  कृपा  करें।  जब  कालिया  को  कुछ  होश आया तो उसने भी क्षमा  के  लिए  प्रार्थना की। भगवान ने उसे प्राण दण्ड ना देते हुए उसे कहा कि वह  यमुना  को  छोड़  कर समुद्र  में  अपने असल  स्थान  को  प्रस्थान  करे।  इस  तरह  से  भगवान  ने यमुना जी के जल को विषैला होने  से  बचाया  और  नाग  को सदा सदा के लिए वहां से हटा कर  समुद्र  के  रमणक द्वीप पर भेज दिया।

अन्य लीलाएं:- इस  प्रकार  छोटी  सी  आयु  में  ही  भगवान  द्वारा उपरोक्त  के  इलावा  कई  और  भी  चमत्कारी  लीलाएं  (दावानल को पी जाना  और  प्रलंबासुर का वध आदि)  करने   से  लोगों की समझ में आ गया था कि श्रीकृष्ण  भगवान  का ही अवतार हैं।
                          जय श्रीकृष्ण जी की