गुरुवार, 12 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवत महापुराण लेख संख्या 26(श्रीकृष्ण प्राकट्य)

       पिछले लेख में आपने पढ़ा था  कि किस  प्रकार  कंस  ने देवकी और वसुदेव जी  को  कारागार  में डाल  दिया था  और उनके प्रथम पुत्र को मार डाला था। अब आगे पढ़ें।
        देवकी का सातवां गर्भ रोहणी के गर्भ में स्थापित
       कंस ने एक एक करके देवकी के छ: पुत्रों को मार डाला। देवकी के सातवें गर्भ के रूप में  स्वयं  श्री शेषनाग  जी  पधारे, जिन्हें अनन्त भी कहा जाता है। भगवान  की आज्ञा से ही योग माया के द्वारा देवकी के सातवें  गर्भ को गोकुल में  रोहिणी  के गर्भ में स्थापित कर दिया गया, जिससे रोहिणी के पुत्र बलराम जी का जन्म हुआ। इनको देवकी के गर्भ से  रोहिणी के गर्भ में स्थापित करने के कारण ही संकर्षण नाम भी दिया गया। लोगों ने समझा कि देवकी का सातवां गर्भ नष्ट हो गया है।
        योगमाया का यशोदा की कन्या के रूप में जन्म
       उधर भगवान ने योग माया को आज्ञा दी कि  तुम यशोदा जी के गर्भ से जन्म लेना। उसके बाद तुम  लोगों को  मुंह मांगे वरदान देने में सामर्थ होंगी। मनुष्य तुम्हारी  पूजा करेंगे,  पृथ्वी पर तुम्हारे बहुत से स्थान बनाएंगे  और  तुम्हें  दुर्गा,  भद्रकाली, विजया,  वैष्णवी,  कुमुदा,  चंडिका,  कृष्णा,  माधवी,  कन्या, माया, नारायणी, ईशानी, शारदा और अंबिका आदि  कई नामों से पुकारा जाएगा।
                     भगवान का गर्भ प्रवेश
       इधर सारे जगत के मालिक ने माता देवकी, जिन्होंने  पूर्व जन्म में घोर तपस्या  की  थी, उनके  गर्भ  को  अपना  निवास स्थान बना लिया। उसी समय देवकी जी  का  शरीर प्रकाशमय हो गया। भगवान शंकर, ब्रह्मा जी और दूसरे देवता कैदखाने में आकर गर्भस्थ भगवान की स्तुति करने लगे:-
          ब्रह्माजी, शंकर जी और देवताओं द्वारा स्तुति
       " हे परम पुरुषोत्तम भगवान आप सत्य संकल्प हैं।  आप सर्वव्यापक हैं, अन्तर्यामी रूप से पृथ्वी, जल,  तेज  वायु  और आकाश  में  विराजमान हैं। आप  दृश्यमान  जगत के  परमार्थ स्वरूप हैं।  आप मधुर वाणी  और  सम दर्शन  के  प्रवर्तक  हैं। आप तो बस सत्य स्वरूप ही हैं। हम आपकी शरण में आए हैं।
       संसार एक सनातन वृक्ष है। इस वृक्ष  का आश्रय  है  एक प्रकृति। इस वृक्ष के दो फल हैं, सुख और  दुःख।  इसकी  तीन जड़ें  हैं, सत्व, रज  और  तम।  इसके  चार  रस हैं - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इसके ज्ञान प्राप्त  करने  के  पांच  प्रकार  हैं - श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना और नासिका।  इसके छ: स्वभाव  हैं - पैदा होना, रहना, बढ़ना, बदलना, घटना  और  नष्ट हो  जाना। इसकी  छाल  हैं  सात  धातुएं - रस रुधिर,  मांस,  मेद, अस्थि माज्जा  और  शुक्र।  इसकी  आठ शाखाएं हैं - पांच महा भूत, मन  और अहंकार।  नौ द्वार - नेत्र,  नासिका,  कान, मुख, गुदा और  जननेन्द्रिय  अंग  इसके नौ खोडर हैं। इसके दस पत्ते हैं - प्राण,  अपान,  व्यान,  उदान,  समान,  नाग (डकारना),  कूर्म (झपकना),  छींकना,  जम्हाई,  और  धनंजय  ( दिल के वाल्व खुलता  व  बंद होना)  अर्थात  पांच  प्राण और पांच उप प्राण।
इस पर दो पक्षी बैठे हैं - जीव और ईश्वर।
       इस संसार रूपी वृक्ष की उत्पत्ति का आधार आप  ही  हैं।
इसकी रक्षा आप ही के अनुग्रह से होती है। और इसकी प्रलय भी आप में ही होती है।
       इस लिए तत्व ज्ञानी सब में  आपका  ही दर्शन  करते  हैं। केवल भक्ति और आपकी कृपा से ही आप की प्राप्ति होती है। आप  अजन्मा  हैं।  फिर  भी  पृथ्वी  पर  आकर अवतार लेना आपका एक लीला विनोद है।"
                      सारी प्रकृति की प्रसन्नता
       जब  भगवान  श्रीकृष्ण  का  प्राकट्य  होने  वाला  था तो समस्त  शुभ  गुणों  से युक्त सुहावना समय आया। आकाश के सभी नक्षत्र, ग्रह और तारे शांत  और  सौम्य  हो  रहे  थे।  जैसे अंत: करण शुद्ध होने पर उसमें भगवान  का  आविर्भाव  होता है, उसी प्रकार समष्टि की शुद्धि का वर्णन किया गया है। इसमें काल,  दिशा,  पृथ्वी,  जल,  अग्नि,  वायु, आकाश,  मन  और आत्मा इन नौ द्रव्यों का नाम उल्लेख  करके  साधक  के  लिए एक अत्यंत उपयोगी साधन पद्धति की ओर संकेत किया गया है।
       काल ने तब  श्रीकृष्ण जी  के  स्वागत  में  समस्त  सद्गुणों को  धारण  कर  लिया।  सभी  दिशाएं  प्रसन्न  हो  गईं।  पृथ्वी पतिदेव का स्वागत करने चलीं।  सभी  नदियां  आनन्द  से भर गईं। अग्निदेव भी प्रसन्न होकर प्रज्वलित हो उठे। वायु  सबकी सेवा करने लगा। आकाश श्रीकृष्ण जी का स्वागत करने लगा। रोहिणी नक्षत्र में जन्म होगा यह सोचकर सारे  नक्षत्र बहुत  ही खुश थे। वे आनंदित हो उठे। भाद्रमास  कल्याण  करने  वाला है। कृष्ण पक्ष स्वयं कृष्ण से संबंधित है। अष्टमी  तिथि  पक्ष के बीच  संधि स्थल पर पड़ती है  और रात्रि  योगीजनों  को  बहुत प्रिय है। निशीध, रात्रि  के  दो भागों  की संधि  है।  उस   समय श्रीकृष्ण के आविर्भाव का अर्थ है अज्ञान के अंधकार में ' दिव्य प्रकाश '।
                            श्रीकृष्ण प्राकट्य
       ऐसे समय पर सभी के हृदय में विराजमान भगवान विष्णु देवकी के गर्भ से कृष्ण रूप में प्रकट हुए।  वसुदेव जी ने  देखा कि उनके सामने एक अद्भुत बालक प्रकट हुआ है, जिसके नेत्र कमल के समान कोमल और विशाल हैं तथा उसके  चार सुंदर हाथों में शंख चक्र, गदा और  पद्म हैं। वक्ष स्थल में श्रीवत्स का चिन्ह (स्वर्ण मई रेखा) है। गले में कौस्तभ मनी  झिलमिला रही है।  श्यामल  शरीर  पर  पीताम्बर  फहरा  रहा  है।  कमर  में करधनी,  बाहों  में  बाजूबंद  और  कलाइयों  में  कङ्कण  से अनोखी छटा बन रही है। वसुदेव जी जान गए कि भगवान का प्राकट्य हुआ है और उसी समय दोनों पति - पत्नी भगवान की स्तुति करने लगे। स्तुति  करने  के उपरांत  देवकी  ने कहा," हे मधुसूदन,  इस पापी कंस को यह बात मालूम ना हो कि आपने ही मेरी  कोख  से जन्म लिया है। आपके  लिए  मैं कंस से  डर रही हूं।"
           माता पिता को उपदेश देकर शिशु रूप धारण
       श्री भगवान ने कहा," देवी  स्वयंभू मन्वन्तर  में  तुम प्रश्नी और वसुदेव सुतपा प्रजापति थे।  घोर  तप  करके  मुझे  प्रसन्न करने के बाद आपने मुझे पुत्र रूप में पाने  का  वर  मांगा  था। उस समय भी मैं प्रश्नी शर्मा के रूप में आपका  पुत्र  हुआ  था।
फिर दूसरे जन्म में जब आप अदिति और कश्यप थे, तब मैंने आप दोनों  के  पुत्र  उपेन्द्र (वामन अवतार) के  रूप  में  जन्म लिया था। अब  इस  जन्म  में भी मैं आप के पुत्र रूप में प्रकट हुआ हूं।  तुम  दोनों  मेरे  प्रति  पुत्र  भाव  रखना  तथा  निरंतर ब्रह्मभाव भी रखना।  इस प्रकार वात्सल्य, स्नेह और चिंतन के द्वारा आप दोनों को परम पद की प्राप्ति होगी।" इतना  कहकर भगवान ने साधारण  शिशु  रूप  धारण कर  लिया।  आगे  की कथा अगले लेख में।
                    जय श्रीकृष्ण जी की
      
       

       

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