स्यमंतक मणि की कथा
(जांबवती और सत्यभामा के साथ विवाह)
सत्राजित, भगवान सूर्य का बहुत बड़ा भक्त था। सूर्य भगवान ने प्रसन्न होकर उसे स्यमंतक मणि दी थी। जब वह मणि लेकर द्वारिका जी में आ रहा था, वह मणि इतनी चमक रही थी कि द्वारिका वासियों ने समझा कि सूर्य ही द्वारिका में आ रहे हैं। अपने घर पहुंच कर सत्रजित ने मणि को मंदिर में स्थापित कर दिया। वह मणि प्रति दिन आठ भार सोना पैदा करती थी। एक दिन ऐसे ही प्रसंग वश श्रीकृष्ण ने उसे कह दिया कि वो अपनी मणि महाराज उग्रसेन को भेंट कर दे। परंतु उसने मना कर दिया। एक दिन सत्राजित के भाई प्रसेन ने उसको गले में डाला और घोड़े पर सवार होकर शिकार खेलने जंगल में चला गया।
सत्राजित, भगवान सूर्य का बहुत बड़ा भक्त था। सूर्य भगवान ने प्रसन्न होकर उसे स्यमंतक मणि दी थी। जब वह मणि लेकर द्वारिका जी में आ रहा था, वह मणि इतनी चमक रही थी कि द्वारिका वासियों ने समझा कि सूर्य ही द्वारिका में आ रहे हैं। अपने घर पहुंच कर सत्रजित ने मणि को मंदिर में स्थापित कर दिया। वह मणि प्रति दिन आठ भार सोना पैदा करती थी। एक दिन ऐसे ही प्रसंग वश श्रीकृष्ण ने उसे कह दिया कि वो अपनी मणि महाराज उग्रसेन को भेंट कर दे। परंतु उसने मना कर दिया। एक दिन सत्राजित के भाई प्रसेन ने उसको गले में डाला और घोड़े पर सवार होकर शिकार खेलने जंगल में चला गया।
एक सिंह ने घोड़े सहित उसे मार डाला। उस सिंह को ऋक्ष राज ने मार दिया और मनी अपनी गुफ़ा में जाकर बच्चों को दे दी। सत्राजित ने अपने भाई के वापिस ना आने पर श्रीकृष्ण जी पर शक किया। उसने सोचा कि कृष्ण ने मणि राजा को देने की बात की थी, इस लिए उन्होंने ही उसके भाई को मारा है। जब श्रीकृष्ण जी को इस बात का पता चला तो वो अपने ऊपर लगे कलंक को धोने और सच्चाई का पता लगाने के लिए जंगल में गए। पदचिन्हों को देखते हुए भगवान ऋक्ष राज जांबवान की गुफा तक जा पहुंचे। बाकी लोग तो बाहर ही रहे परंतु श्रीकृष्ण ने अकेले ही गुफ़ा के अंदर प्रवेश किया। अंदर श्रीकृष्ण और जांबवान में 12 दिन तक युद्ध चला। अंत में एक दिन जांबवान को ध्यान आया कि इतने दिनों तक जो मनुष्य उसका मुकाबला कर रहा है वह सिवाए भगवान के और कोई नहीं हो सकता। उसे वह त्रेता युग की बात याद आ गई। उस समय भगवान राम को जांबवान ने कहा था कि युद्ध में उसे अपना बल प्रयोग करने का अवसर ही नहीं मिला। तब इस पर भगवान राम ने कहा था,"जब मैं द्वापर युग में कृष्ण अवतार लूंगा, उस समय मैं तुम से युद्ध करूंगा। तब तुम्हें अपने बल का प्रयोग करने का पूरा अवसर मिलेगा।" उसने भगवान को पहचान लिया और उनको प्रणाम किया। भगवान ने उसे आशीर्वाद दिया। जांबवान ने मणि तो भगवान को दी ही साथ में अपनी पुत्री जांबवती का विवाह भी श्रीकृष्ण जी से कर दिया। वापिस आकर श्रीकृष्ण जी ने सत्राजित को दरबार में बुलवाया और उसे मणि लौटा दी। सत्राजित को अपनी गलती का अहसास हो गया और उसने अपनी गलती स्वीकार भी कर ली। यह सोचकर कि उसकी पुत्री के लिए श्रीकृष्ण जी से बढ़कर कोई वर नहीं हो सकता उसने अपनी कन्या सत्यभामा का विवाह श्रीकृष्ण से कर दिया।
श्रीकृष्ण जी का कालिंदी जी से विवाह
एक बार भगवान पांडवों से मिलने इंद्रप्रस्थ पधारे। सात्यकी और बहुत सारे यदुवंशी भी उनके साथ पधारे। एक दिन यमुना जी के तट पर उन्होंने एक युवती को तपस्या करते हुए देखा। अर्जुन ने उस युवती से पूछा कि वो कौन है और क्या चाहती हैं। कालिंदी ने कहा कि वह भगवान सूर्य देव की पुत्री है और भगवान विष्णु को पति रूप में प्राप्त करने के लिए तपस्या कर रही है। जब तक भगवान कृष्ण उस पर प्रसन्न नहीं होते तब तक वह अपनी तपस्या करती रहेगी। भगवान कृष्ण तो सब जानते ही थे। उन्होंने प्रसन्न होकर उन्हें रथ पर बैठाया और इंद्रप्रस्थ में धर्मराज युधिष्ठिर जी के पास ले आए। कुछ दिन रहने के बाद जब वापिस द्वारिका आए तो विधिवत उनसे विवाह किया।
मित्रविंदा से विवाह
अवंती (उज्जैन) के राजा थे विंद और अनुविंद। उनकी बहन मित्रविंदा भगवान श्रीकष्ण जी को पति रूप में प्राप्त करना चाहती थीं। परंतु उसके भाई ऐसा नहीं चाहते थे। जब उसका स्वयंवर हुआ तो श्रीकृष्ण बलपूर्वक उसे हर लाए।
सत्या (नग्नजिवी) से विवाह
कौशल देश के राजा की एक अत्यन्त धार्मिक कन्या थी। राजा की प्रतिज्ञा थी कि जो कोई उसके सात दुर्दांत बैलों पर विजय प्राप्त कर लेगा, वही उस कन्या से विवाह करेगा। परंतु कोई भी राजा ऐसा करने में सफल नहीं हो सका था। श्री कृष्ण जी भी वहां गए। राजा ने उनका आदर सत्कार किया। भगवान ने खेल ही खेल में उन सात बैलों को नाथ लिया और फिर सत्या से विधिपूर्वक विवाह किया।
भद्रा से श्री कृष्ण जी का विवाह
कैकेय देश की राजकुमारी थी भद्रा। उसका विवाह उसके संतरदन आदि भाइयों ने श्री कृष्ण जी से करने का प्रस्ताव रक्खा था जो कि श्रीकृष्ण जी ने स्वीकार किया और विधिवत भद्रा से भी विवाह कर लिया।
लक्षमणा से विवाह
यह मद्र प्रदेश के राजा की कन्या थी। उन्हें भगवान श्री कृष्ण जी ने जीता और विधि पूर्वक उनसे विवाह संपन्न किया। भगवान श्रीकष्ण की संतति
इस प्रकार भगवान श्री कृष्ण जी की कुल आठ पटरानियां थीं। आठों पटरानियों के दस दस पुत्र हुए। जिनमें मुख्य नाम थे:-
प्रद्युम्न, भानु, सांब, वीर, श्रुत, कवि और सुबाहु। सबसे प्रमुख नाम प्रद्युम्न का था। उसकी दो पत्नियां थीं, मायावती और रुकमवती। प्रद्युम्न का पुत्र हुआ अनिरुद्ध।
भौमासुर उद्धार और 16000
राज कन्याओं से विवाह
भौमासुर ने वरुण का छत्र, माता अदिति के कुण्डल और मेरु पर्वत पर स्थित देवताओं का मणि पर्वत नामक स्थान छीन लिया था। भगवान श्रीकृष्ण अपनी पत्नी सत्यभामा के साथ गरुड़ पर सवार होकर भौमासुर की राजधानी प्राग्ज्योतिषपुर में गए। चारों ओर पहाड़ों की किलेबंदी थी। उसके बाद शस्त्रों का घेरा, फिर जल से भरी गहरी खाई भी थी, उसके बाद आग या बिजली की चार दिवारी थी। उसके भीतर वायु (गैस) को बंद करके रक्खा गया था। उसके भीतर दस हज़ार फंदे (जाल) भी बिछा रक्खे थे। भगवान ने अपनी शक्ति से यह सारा कुछ नष्ट कर डाला। वहां पर एक दैत्य था जो उस स्थान का रक्षक था। भगवान के पांचजन्य शंख की ध्वनि से उसकी नींद टूटी तो वह बाहर निकला। उसके पांच मुख थे जिनके द्वारा उसने भयंकर सिंघ नाद करते हुए त्रिशूल उठाया और गरुड़ जी पर टूट पड़ा। तभी भगवान ने बाण छोड़ कर त्रिशूल के तीन टुकड़े कर दिए। फिर श्रीकृष्ण जी ने उसके मुख में बहुत से बाण मारे। खेल ही खेल में उसके पांचों सिर काट दिए। उसके पुत्र और बाकी दैत्य भी मारे गए। दैत्य के मारे जाने के बाद स्वयं भौमासुर ने बाहर निकल कर भगवान पर आक्रमण कर दिया परंतु वह भी उनके सामने अधिक देर तक टिक नहीं पाया और शीघ्र ही भगवान ने उसका भी सिर काट डाला। उस समय स्वयं पृथ्वी देवी ने भगवान की स्तुति की। जब भगवान ने महल के अंदर प्रवेश किया तो पहले उन 16000 राज कुमारी कन्याओं को उसकी कैद से स्वतंत्र करवाया। उनको देखते ही सब की सब कन्याओं ने भगवान श्रीकृष्ण जी पर मोहित हो कर उनको मन ही मन अपना प्रियतम मानते हुए उनसे आग्रह किया कि वो उन सभी को पत्नी रूप में स्वीकार करें। श्रीकृष्ण जी ने उनकी विनती को स्वीकार करते हुए उन सभी को द्वारिका भेज दिया और स्वयं अमरावती की ओर चल पड़े। अमरावती पहुंचने पर देवताओं के राजा इन्द्र ने भगवान की स्तुति की। अदिति को उसके कुण्डल वापिस किए। सत्यभामा जी के कहने पर भगवान ने स्वर्ग से कल्प वृक्ष को साथ ले जाने के लिए उखाड़ कर गरुड़ पर रख लिया। जब देवताओं ने इसका विरोध किया तो उनको भी युद्ध में धूल चटाकर कल्प वृक्ष को साथ ले आए और सत्यभामा के बगीचे में लगा दिया। द्वारिका में पहुंच कर भगवान ने अपने अनेक रूप बना कर सभी सोलह हज़ार कन्याओं के साथ पानी ग्रहण किया।
जय श्रीकृष्ण जी की
एक बार भगवान पांडवों से मिलने इंद्रप्रस्थ पधारे। सात्यकी और बहुत सारे यदुवंशी भी उनके साथ पधारे। एक दिन यमुना जी के तट पर उन्होंने एक युवती को तपस्या करते हुए देखा। अर्जुन ने उस युवती से पूछा कि वो कौन है और क्या चाहती हैं। कालिंदी ने कहा कि वह भगवान सूर्य देव की पुत्री है और भगवान विष्णु को पति रूप में प्राप्त करने के लिए तपस्या कर रही है। जब तक भगवान कृष्ण उस पर प्रसन्न नहीं होते तब तक वह अपनी तपस्या करती रहेगी। भगवान कृष्ण तो सब जानते ही थे। उन्होंने प्रसन्न होकर उन्हें रथ पर बैठाया और इंद्रप्रस्थ में धर्मराज युधिष्ठिर जी के पास ले आए। कुछ दिन रहने के बाद जब वापिस द्वारिका आए तो विधिवत उनसे विवाह किया।
मित्रविंदा से विवाह
अवंती (उज्जैन) के राजा थे विंद और अनुविंद। उनकी बहन मित्रविंदा भगवान श्रीकष्ण जी को पति रूप में प्राप्त करना चाहती थीं। परंतु उसके भाई ऐसा नहीं चाहते थे। जब उसका स्वयंवर हुआ तो श्रीकृष्ण बलपूर्वक उसे हर लाए।
सत्या (नग्नजिवी) से विवाह
कौशल देश के राजा की एक अत्यन्त धार्मिक कन्या थी। राजा की प्रतिज्ञा थी कि जो कोई उसके सात दुर्दांत बैलों पर विजय प्राप्त कर लेगा, वही उस कन्या से विवाह करेगा। परंतु कोई भी राजा ऐसा करने में सफल नहीं हो सका था। श्री कृष्ण जी भी वहां गए। राजा ने उनका आदर सत्कार किया। भगवान ने खेल ही खेल में उन सात बैलों को नाथ लिया और फिर सत्या से विधिपूर्वक विवाह किया।
भद्रा से श्री कृष्ण जी का विवाह
कैकेय देश की राजकुमारी थी भद्रा। उसका विवाह उसके संतरदन आदि भाइयों ने श्री कृष्ण जी से करने का प्रस्ताव रक्खा था जो कि श्रीकृष्ण जी ने स्वीकार किया और विधिवत भद्रा से भी विवाह कर लिया।
लक्षमणा से विवाह
यह मद्र प्रदेश के राजा की कन्या थी। उन्हें भगवान श्री कृष्ण जी ने जीता और विधि पूर्वक उनसे विवाह संपन्न किया। भगवान श्रीकष्ण की संतति
इस प्रकार भगवान श्री कृष्ण जी की कुल आठ पटरानियां थीं। आठों पटरानियों के दस दस पुत्र हुए। जिनमें मुख्य नाम थे:-
प्रद्युम्न, भानु, सांब, वीर, श्रुत, कवि और सुबाहु। सबसे प्रमुख नाम प्रद्युम्न का था। उसकी दो पत्नियां थीं, मायावती और रुकमवती। प्रद्युम्न का पुत्र हुआ अनिरुद्ध।
भौमासुर उद्धार और 16000
राज कन्याओं से विवाह
भौमासुर ने वरुण का छत्र, माता अदिति के कुण्डल और मेरु पर्वत पर स्थित देवताओं का मणि पर्वत नामक स्थान छीन लिया था। भगवान श्रीकृष्ण अपनी पत्नी सत्यभामा के साथ गरुड़ पर सवार होकर भौमासुर की राजधानी प्राग्ज्योतिषपुर में गए। चारों ओर पहाड़ों की किलेबंदी थी। उसके बाद शस्त्रों का घेरा, फिर जल से भरी गहरी खाई भी थी, उसके बाद आग या बिजली की चार दिवारी थी। उसके भीतर वायु (गैस) को बंद करके रक्खा गया था। उसके भीतर दस हज़ार फंदे (जाल) भी बिछा रक्खे थे। भगवान ने अपनी शक्ति से यह सारा कुछ नष्ट कर डाला। वहां पर एक दैत्य था जो उस स्थान का रक्षक था। भगवान के पांचजन्य शंख की ध्वनि से उसकी नींद टूटी तो वह बाहर निकला। उसके पांच मुख थे जिनके द्वारा उसने भयंकर सिंघ नाद करते हुए त्रिशूल उठाया और गरुड़ जी पर टूट पड़ा। तभी भगवान ने बाण छोड़ कर त्रिशूल के तीन टुकड़े कर दिए। फिर श्रीकृष्ण जी ने उसके मुख में बहुत से बाण मारे। खेल ही खेल में उसके पांचों सिर काट दिए। उसके पुत्र और बाकी दैत्य भी मारे गए। दैत्य के मारे जाने के बाद स्वयं भौमासुर ने बाहर निकल कर भगवान पर आक्रमण कर दिया परंतु वह भी उनके सामने अधिक देर तक टिक नहीं पाया और शीघ्र ही भगवान ने उसका भी सिर काट डाला। उस समय स्वयं पृथ्वी देवी ने भगवान की स्तुति की। जब भगवान ने महल के अंदर प्रवेश किया तो पहले उन 16000 राज कुमारी कन्याओं को उसकी कैद से स्वतंत्र करवाया। उनको देखते ही सब की सब कन्याओं ने भगवान श्रीकृष्ण जी पर मोहित हो कर उनको मन ही मन अपना प्रियतम मानते हुए उनसे आग्रह किया कि वो उन सभी को पत्नी रूप में स्वीकार करें। श्रीकृष्ण जी ने उनकी विनती को स्वीकार करते हुए उन सभी को द्वारिका भेज दिया और स्वयं अमरावती की ओर चल पड़े। अमरावती पहुंचने पर देवताओं के राजा इन्द्र ने भगवान की स्तुति की। अदिति को उसके कुण्डल वापिस किए। सत्यभामा जी के कहने पर भगवान ने स्वर्ग से कल्प वृक्ष को साथ ले जाने के लिए उखाड़ कर गरुड़ पर रख लिया। जब देवताओं ने इसका विरोध किया तो उनको भी युद्ध में धूल चटाकर कल्प वृक्ष को साथ ले आए और सत्यभामा के बगीचे में लगा दिया। द्वारिका में पहुंच कर भगवान ने अपने अनेक रूप बना कर सभी सोलह हज़ार कन्याओं के साथ पानी ग्रहण किया।
जय श्रीकृष्ण जी की
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें