मंगलवार, 17 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवत महापुराण लेख संख्या 28(वृंदावन जाना)

                     गोकुल से वृंदावन प्रस्थान
       एक दिन नंद और सभी  गोपों  ने  मिल  कर  यह  निर्णय लिया कि अब गोकुल को  छोड़ कर वृंदावन चले जाना चाहिए क्योंकि गोकुल  में आए दिन अनेकों  उपद्रव  होते  रहते  हैं। वे पूतना एवं  तृणावर्त  जैसे राक्षसों द्वारा किए उत्पातों से चिंतित थे। ऐसा  निर्णय  होने  के  पश्चात  वे  सभी  अपनी  गायों और बछड़ों को  साथ  लेकर  बहुत  ही सुंदर वन वृंदावन में रहने के लिए चले गए।

वत्सासुर उद्धार:- एक दिन बलराम  और  कृष्ण  अपने  सभी दोस्तों  के  साथ यमुना के  तट  पर  बछड़ों  को  चरा  रहे  थे। उसी  समय  एक  शक्तिशाली  दैैत्य  वत्सासुर  उन्हें  मारने  के  इरादे  से वहां आया। वह  भी  बछड़ा बन कर उनके बछड़ों के साथ ही मिल गया। श्रीकृष्ण  जी  से  तो  कुछ  छिपा नहीं था। उन्होंने  उस दैत्य को पहचानते हुए उसे उसकी पूंछ और टांगों से  पकड़ा, घुमाया  और  मरने  के लिए कैथ  के वृक्ष पर फैंक दिया।

बकासुर उद्धार:-   एक दिन एक राक्षस   बकासुर  जलाशय के तट पर कृष्ण को मारने   के  इरादे  से  आया।  उसने  एक  बहुत बड़े बगुले का  रूप  बनाया  और  श्रीकृष्ण  को  निगल  लिया। बगुले का तालू आग के समान जलने लगा। तब उसने एक दम उगल दिया। अब  वह  श्रीकृष्ण  पर  झपटने  ही जा  रहा  था कि भगवान ने  उसके  दोनों  ठोर  पकड़  लिए  और  उनको  ज़ोर  से खोलते  हुए  चीर  डाले। यह  सब  देख  कर ग्वाले  प्रसन्न  हो गए। आकाश से  देवताओं ने भी  पुष्प  वर्षा की।

अघासुर उद्धार:-   कान्हा  सुबह  जल्दी  ही  ग्वाल बालों  के साथ खेलते कूदते बछड़ों को चराने निकल गए।  वहां पर सब  खूब मस्ती कर रहे थे। वहां अघासुर नाम का एक  भयंकर सा  दैत्य  आ पहुंचा। इन सभी दैत्यों   को कंस  ही  भेज  रहा  था। वह  अघासुर पूतना और  बकासुर  का  छोटा  भाई  था।  वह अजगर का रूप धारण  करके  रास्ते में  लेट गया। उसने गुफ़ा समान अपने  मुंह  को  फ़ाड़  रक्खा था।  ग्वाल  बाल  बछड़ों समेत गुफ़ा समझ कर उसके  अंदर  चले गए।  उन्हें  बचाने के लिए भगवान स्वयं भी अंदर चले गए। भगवान ने अपने शरीर को बड़ी फुर्ती से इतना  बढ़ा  लिया  कि  अघासुर   के   प्राण  ब्रह्म रंध्र  फोड़ कर निकल गए। इस तरह एक बहुत  बड़े दैत्य का  अंत करके  भगवान ने अपने सभी  सख़ाओं  को  जीवन दान दिया। देवता प्रसन्न होकर आकाश  से  पुष्प  वर्षा  करने लगे।  उस समय श्रीकृष्ण की आयु केवल पांच  वर्ष  की  थी।

ब्रह्मा जी के मोह का नाश:-     श्रीकृष्ण जी  एवं  सब  ग्वाल बाल, अघासुर के वध के बाद  यमुना तट  पर  ही  वाटिका  में  खाना खाने बैठ गए। खाना खाते समय उनके बछड़े  कहीं दूर निकल गए। खाना  खाने  के  बाद  श्री  कृष्ण जी  बछड़ों  को  देखने  दूर तक गए परंतु उन्हें बछड़े कहीं  नहीं  मिले।  वापिस आकर देखा तो ग्वाले भी गायब हो चुके थे। वस्तुत: ब्रह्मा  जी ने भगवान की  लीला को देखने के लिए ही उन सबको  गायब करके सुला  दिया था। भगवान  ने  अपनी  माया  से  वैसे  ही सभी ग्वाले और बछड़े बना दिए जैसे वो  थे और   सभी  प्रति दिन  की तरह  वैसे  ही अपने अपने घर को चले  गए।  किसी को कुछ पता नहीं चला  क्योंकि सभी रूप भगवान ने अपने में से ही  बनाए थे। एक  वर्ष  बीत जाने के बाद ब्रह्मा जी ने देखा कि भगवान  की  माया  अपरम्पार  है।  उन्होंने  आकर  क्षमा  याचना  की  और  बछड़े  तथा  ग्वाले   भगवान  को  वापिस किए। इस तरह से ब्रह्मा जी के मोह का नाश हुआ और उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण जी की स्तुति की।

धेनुकासुर का उद्धार:- छ: वर्ष के हो जाने के बाद  कान्हा और दूसरे ग्वाल बालों को गौवें चराने की अनुमति मिल गई। अब वे गायों को चराने वृंदावन के वनों में जाते थे।  एक दिन  बलराम एवं  कृष्ण  के  सखा,  श्रीदामा, सुबल  और  स्तोक कृष्ण ने  बड़े प्रेम के साथ कहा कि,"आप दोनों के  बल की  कोई  थाह  नहीं है। दुष्टों को नष्ट करना तुम्हारा  स्वभाव ही है।  यहां  थोड़ी  ही  दूरी  पर  एक  बहुत  बड़ा वन है  जिसको तालवन कहते हैं। उसमें ताड़ के फल पक पक कर गिरते हैं। परंतु वहां धेनुकासुर  नाम का दैत्य एक गधे के रूप में रहता है। उसके  समान  बलशाली और भी दैत्य उसके साथ रहते हैं। वे  अभी  तक  कई  मनुष्यों को खा चुके हैं। केवल आप ही वो फल हमें  खिला  सकते  हैं। बलराम और  कृष्ण  उनकी  बात सुन कर हंस  पड़े  और  उनको साथ लेकर  तालवान के लिए चल पड़े। वहां  पहुंचकर  उन्होंने ताड़  के पेड़ों  को   हिलाकर फल नीचे गिरा दिए।  यह  देख  कर  दैत्य  उनकी  ओर  दौड़ा और आते ही बलराम जी  की  छाती  में दुलत्ती मारी। जब को दोबारा ऐसा करने लगा  तो  बलराम  जी ने  उसके पैर  पकड़ लिए और आकाश में घुमाकर एक ताड़  के  पेड़  पर दे  मारा। घुमाते समय ही उसके प्राण पंखेरू  उड़  गए। बहुत सारे ताड़ के पेड़ भी  गिर  गए।  बाकी  दैत्यों  ने  भी  बलराम  जी  का मुकाबला करने की कोशिश की परंतु  मारे  गए।  भूमि ताड़ के फलों से लद गई। उस दिन से  सब  उस वन  में  निडर होकर विचरने लगे।

कालिया पर कृपा:- जेष्ठ - एक  दिन  श्रीकृष्ण  ग्वालों  संग यमुना तट पर गए। बलराम जी साथ नहीं थे। आषाढ के घाम से गाएं और ग्वाल बाल अत्यन्त  पीड़ित  हो  रहे  थे।  उन्होंने  यमुना जी का विषैला जल पी लिया। सब प्राण  हीन हो  गए। श्रीकृष्ण जी की अमृत दृष्टि से वे फिर से जीवित हो गए। वहां यमुना जी में कालिया नाग का एक कुंड था। जो भी पक्षी उस पानी में  गिर जाता वो मर जाता। तट के घास पात सूख जाते। यह सब देख कर श्रीकृष्ण कदंब के पेड़ पर  चढ़े  और  यमुना जी में कूद पड़े। नाग ने उन्हें अपने नाग पाश में बांधकर उन्हें  निस्तेज  सा  कर दिया। सारे ग्वाले यह  देख  कर  मूर्छित  हो गए। उधर व्रज में भी अपशकुन होने लगे। सब लोग भागे भागे कृष्ण को लेने पहुंचे। माता यशोदा तो पानी में उतरने ही वाली थीं  कि लोगों ने  उन्हें पकड़ लिया। वो मूर्छित  हो  गईं।  उधर श्रीकृष्ण जी ने भी लीला शुरू कर दी। कालिया नाग का  एक सौ एक  सिर  था।  भगवान  उसके  नागपाश  से  निकलकर उसके फन पर  जा  चढ़े।  उनके भार को वह कहां  सहन  कर सकता था। वह  मूर्छित  हो  गया। कलिया  नाग  की  पत्नियां रोने लगीं। उन्होंने भगवान  को  विनती  की  कि  वो  उस  पर  कृपा  करें।  जब  कालिया  को  कुछ  होश आया तो उसने भी क्षमा  के  लिए  प्रार्थना की। भगवान ने उसे प्राण दण्ड ना देते हुए उसे कहा कि वह  यमुना  को  छोड़  कर समुद्र  में  अपने असल  स्थान  को  प्रस्थान  करे।  इस  तरह  से  भगवान  ने यमुना जी के जल को विषैला होने  से  बचाया  और  नाग  को सदा सदा के लिए वहां से हटा कर  समुद्र  के  रमणक द्वीप पर भेज दिया।

अन्य लीलाएं:- इस  प्रकार  छोटी  सी  आयु  में  ही  भगवान  द्वारा उपरोक्त  के  इलावा  कई  और  भी  चमत्कारी  लीलाएं  (दावानल को पी जाना  और  प्रलंबासुर का वध आदि)  करने   से  लोगों की समझ में आ गया था कि श्रीकृष्ण  भगवान  का ही अवतार हैं।
                          जय श्रीकृष्ण जी की

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें