शनिवार, 14 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवत महापुराण, लेख संख्या 27(जन्म महोत्सव एवं बाल लीलाएं)

                   बालक को गोकुल लेकर जाना
       जब भगवान ने साधारण शिशु का रूप धारण कर  लिया तो वसुदेव जी के मन में पुत्र को  लेकर  सूतिका  गृह से  बाहर निकलने की इच्छा हुई। देखते ही देखते सारे  बंधन  खुल गए। सभी सिपाही अचेत हो गए।  यह  दृष्टांत  साधकों के लिए यह बात सिद्ध करता  है कि जब  मनुष्य  भगवान  को  प्रेम  पूर्वक अपने हृदय में धारण कर लेता है  तो उसके  सारे  बंधन अपने आप खुल जाते हैं। बालक को एक टोकरी में लिटा कर वसुदेव जी ने अपने सिर पर रख लिया और उसे लेकर  वहां से गोकुल की ओर चल पड़े। रास्ते में  उनके  ऊपर  धीमी धीमी  जल की फुहार पड़ रही थी। शेष जी पीछे पीछे टोकरी के ऊपर से जल की फुहार को रोक रहे हैं। यमुना जी भी  भगवान के पांव छूना चाहती हैं। इस लिए उनका जल स्तर ऊपर आ रहा है। जैसे ही भगवान ने अपना पांव टोकरी से बाहर निकाल  कर  जल  का स्पर्श किया तो  यमुना जी ने  उसी समय अपना जल स्तर कम करके रास्ता दे दिया। जब आप कोई कार्य स्वयं के  लिए  नहीं अपितु भगवान के नमित्त करना आरंभ करते हैं तो सारे साधन स्वत: ही बन जाते  हैं।  उधर  गोकुल  में  यशोदा  जी  के  यहां भगवान की आज्ञा  के  अनुसार  योग माया ने कन्या के रूप में जन्म ले लिया। किसी  को  कुछ पता नहीं चला। योग माया के प्रभाव से सारे लोग गहरी निद्रा  में  थे।  वसुदेव जी  ने  आकर कन्या को उठा लिया और  कन्हैया को  यशोदा  के साथ लिटा दिया।
     कन्या को लेकर वसुदेव जी वापिस कारागार में पहुंच गए। जब कंस को पता चला कि देवकी के गर्भ से आठवीं  संतान ने जन्म ले लिया है तो वह उसी समय  वहां  पहुंच  गया।  वसुदेव और देवकी ने उसे समझाया कि  यह  तो  कन्या  है, तू  इसका वध ना कर क्योंकि  इससे  तुझे  कोई  डर नहीं  होना  चाहिए। परंतु कंस ने कोई बात नहीं सुनी और कन्या को लेकर जैसे ही उसने पटकने की  कोशिश  की कन्या उसके  हाथ से  छूट कर आकाश में पहुंच गई। आकाश में जाकर भगवती योग माया ने आकाशवाणी की," अरे मूर्ख, मुझे मारने  से तुझे  क्या मिलेगा, तेरे पूर्व जन्म का शत्रु तुझे मारने  के  लिए  किसी  दूसरे  स्थान पर जन्म ले चुका है। अब तू व्यर्थ में निर्दोष बालकों की  हत्या ना कर।" कंस को इस प्रकार कह कर भगवती योग माया वहां से अन्तर्ध्यान हो गईं और पृथ्वी के अनेक  स्थानों  पर  विभिन्न नामों से प्रसिद्ध हुईं।
                     भगवान का जन्म महोत्सव
       उधर जब यशोदा जी और बाकी  घर वालों की नींद खुली तो देखा कि नंद बाबा के घर में  एक बहुत ही सुंदर  बालक  ने जन्म लिया है। पूरे गांव को पता  चलते  देर  नहीं  लगी। पिता नंद बाबा ने बालक का जात कर्म  संस्कार  करवाया, देव  और पितरों की  पूजा  करवाई। लाखों  गौएं  दान  कीं। गवाले  एक दूसरे पर दूध, दही, घी  और पानी  उड़ेल  कर  आनन्द  उत्सव मनाने लगे। गवालों,  वंदिजनों,  नृत्य  करने  वालों  और  वाद्य बजाने वालों आदि को मुंह मांगी वस्तुएं दान  की गईं।  रोहिणी जी ग्रह स्वामिनी की तरह स्त्रियों का स्वागत करने लगीं।  उसी दिन से व्रज में ऋद्दि सिद्धियां अठखेलियां करने लगीं। व्रज  तो लक्ष्मी जी का क्रीड़ा स्थल बन गया।
                             पूतना उद्धार
       जब कंस को यह पता चला कि उसके  काल ने गोकुल में जन्म ले लिया है तो उसके साथियों के कहने पर  उसने गोकुल के नव जन्में सभी बच्चों को  मरवा  देने का  निर्णय ले  लिया। उसके लिए उसने कई दैत्यों की भी सहायता  प्राप्त की। सबसे पहले उसने पूतना नाम की एक क्रूर राक्षसी को  भेजा। उसका काम था बच्चों को मारना। वह  आकाश  मार्ग से  आती जाती थी। वह मनचाहा रूप भी धारण कर लेती थी। एक  सुंदर  स्त्री का रूप धारण करके वह नंद बाबा के घर  में  घुसी।  श्रीकृष्ण तब केवल छ: दिन के थे। उसे देख  कर भगवान ने  आंखें  बंद कर लीं। यहां साधकों के लिए यह जानना भी आवश्यक है कि श्रीकृष्ण का संसार में अवतार लेना भी  ऐसा है जैसा जीव का अंत: करण शुद्ध हो जाने पर उसके हृदय में भगवान का प्रवेश और  उधर  पूतना अविद्या रूपी  अंधकार का  प्रतीक है। जब श्रीकृष्ण रूपी प्रकाश होता है  तो  अविद्यन्धकार  अपने  आप नष्ट हो जाता है। इस लिए भगवान यदि पूतना को देख लेते तो पूतना तो ' वहीं प्रकाश होने पर अंधेरे की तरह ' नष्ट हो जाती। पूतना ने इतना सुंदर रूप बनाया कि यशोदा ने स्वयं ही कान्हा  उसकी गोदी में डाल दिया। पूतना ने अपने स्तनों पर विष लगा रक्खा था ताकि वह कान्हा को दूध पिलाने के  चक्कर में  मार डाले। जैसे ही उसने दूध पिलाना शुरू किया, कृष्ण जी ने उसे इतनी ज़ोर से पकड़ कर  काटा कि  उसके  प्राण भी पीने लगे। वह छटपटाने लगी। हाथ  पांव पटक पटक कर रोने लगी। उसे थोड़ी ही देर में अपने  असली रूप में आना पड़ा। वो बहुत  ही विशालकाय  हो गई। भगवान  ने  उसे अपने  पैरों से  दबा कर उसके प्राण हर लिए और उसका उद्धार किया।
       उधर नंद बाबा उस समय मथुरा  से  वापिस  आ  रहे  थे। जब उन्होंने  आकर  यह  सब  देखा तो  दंग  रह  गए। उन्होंने बालक को उठाया चूमा और गले से लगा लिया।
                       कुछ दूसरी बाल लीलाएं
     हिरण्याक्ष का पुत्र था उत्कच्च। एक बार जब उसने लोमश ऋषि  के आश्रम के वृक्षों को कुचल  डाला तो ऋषि ने श्राप से उसको देह रहित कर दिया। यह भी कहा कि वैवस्वत मन्वन्तर में श्रीकृष्ण जी के चरण स्पर्श से  उसकी मुक्ति  होगी। भगवान अभी तीन माह के ही थे कि उनके करवट बदलने के उत्सव के समय माता ने उन्हें एक छकड़े  के नीचे  छाया में  सुला  दिया। बाल कृष्ण ने छकडे को अपने  पैर  की  चोट से  उल्टा  दिया। उस छकडे का जुआ फट गया और उसमें से उस उत्कच्च को भगवान का पांव लगने से उसका उद्धार हो गया।
       पांडु देश में एक राजा था जो दुर्वासा  ऋषि  के  श्राप  से राक्षस हो गया था, उस  राक्षस  का नाम था तृणावर्त। तृणावर्त बावंडर बन कर कान्हा के पास आया और  कन्हा को उड़ा कर ले जाना चाहता था। भगवान ने  अपना  भार इतना बढ़ा लिया था  कि  वो  संभाल  नहीं पाया। जब  उसने  कान्हा  को  नीचे गिराना  चाहा तो भगवान ने उसका गला दबा कर उसका  भी  उद्धार कर दिया।
        यदुवंशियों के कुल  पुरोहित  श्री  गर्गाचार्य जी ने रोहिणी के पुत्र का नाम बलराम और संकर्षण  रक्खा। और  यशोदा के पुत्र का नाम श्याम वर्ण  होने के  कारण कृष्ण और दूसरा नाम वासुदेव रक्खा।
       धीरे धीरे कान्हा ने घुटनों के बल चलना शुरू  कर  दिया।
गोकुल की ग्वालिनें उनको और उनकी बाल लीलाओं को  देख देख कर बड़ी प्रसन्न होती थीं। वो कभी किसी अज्ञात के  पीछे ही हो लेते। जब पता चलता कि वह  कोई  दूसरा  व्यक्ति है तो भाग कर माता के पास आ जाते।
       कुछ और बड़े हुए तो बछड़ों के पीछे पीछे भागने  लगते। थोड़े और बड़े हुए तो ग्वालों के साथ  खेलने लगे। उलाहने भी मिलने लगे। बड़े  नटखट थे। कभी किसी के बछड़ों को  खोल देते, कभी दूध, दही, माखन आदि चुरा कर स्वयं भी खाते और दूसरों  को भी  खिलाते।  मटकियां  फोड़  देते।  गोपियां  माता यशोदा को उलाहना  भी देतिं और  अंदर से उसकी मीठी मीठी शरारतों से प्रसन्न भी होतिं।
       एक दिन बलराम  और  ग्वालों ने कृष्ण के मिट्टी खाने की शिकायत की। माता  ने  जब  कान्हा का मुझ खुलवा कर देखा तो दंग रह गईं। उसने कान्हा के मुख में  पूरे  ब्रह्मांड  के  दर्शन किए। माता ने आश्चर्यचकित  होकर  एकदम अपनी आंखें बंद कर लीं।
       नंद बाबा और यशोदा माता धन्य थे जो श्री कृष्ण जी  की बाल लीलाओं का आनंद ले रहे थे। वास्तव में नंद पिछले जन्म में एक श्रेष्ठ वसु थे। उनका नाम था द्रोण  और  यशोदा  उनकी पत्नी धरा थीं। उन्होंने वर प्राप्त किया था कि पृथ्वी  पर  जन्म लेने के समय उनकी अनन्य प्रीति भगवान  कृष्ण में  हो। ब्रह्मा जी द्वारा दिए इस वरदान को ही श्री कृष्ण जी पूरा कर रहे थे।
                   नल कूबर और मणिग्रीव उद्धार
एक बार दामोदर मास(कार्तिक मास) में  माता  यशोदा  अपने लाल को माखन खिलाने के  लिए  दही मथने लगीं। उस समय कान्हा अपनी शरारतों से माता को बहुत तंग कर रहे थे। कभी किसी मटके पर खड़े हो जाते थे  तो कभी  बासी माखन खाने लगते। फिर एक  मटका  भी तोड़ दिया।  उसके बाद छींके पर से माखन लेकर बंदरों को खिलाने लगे। माता छड़ी लेकर आई तो भाग खड़े हुए। माता पीछे पीछे तो कान्हा आगे आगे। बड़ी मुश्किल से पकड़ में आए। विलक्षण झांकी थी। कान्हा के मुख पर काजल की  स्याही  लगी हुई बड़ी जच रही  थी।  माता को स्नेह उम्हड़ आया। छड़ी फैंक  दी। फिर माता ने एक रस्सी ली और कान्हा को ऊखल  से  बांधने  लगी।  जब बांध रही थीं तो रस्सी दो अंगुल छोटी पड़ गई। दूसरी रस्सी जोड़ी परंतु फिर से छोटी पड़ गई। कई बार ऐसा ही किया लेकिन हर बार रस्सी दो अंगुल छोटी पड़ जाती थी। गोपियां मुस्कुराईं  और फिर बहुत  आश्चर्यचकित भी हुईं। अंत में माता की हालत देख कर वे स्वयं ही बन्ध गए। इससे यह पता चलता  है  कि  भगवान  भक्तों के आधीन हैं। और साथ में यह  भी  पता  चलता  है कि  भगवान भक्तों के लिए जितने सुलभ  हैं, उतने  देहाभिमानी, कर्मकांडी एवं तपस्वियों को अथवा अपने स्वरूप  भूत  ज्ञानियों  को  भी नहीं हैं। माता  यशोदा  तो  कान्हा  को बांध कर घर के धंधों में उलझ गईं और भगवान  ने  वहां  खड़े पुराने दो अर्जुन के वृक्षों के उद्धार की बात सोची।  कान्हा  रस्सी  से उखल  को खींचते हुए स्वयं दोनों वृक्षों के बीच में से निकल गए। जब उनके पीछे ऊखल वृक्षों के साथ अटक गया तो कृष्ण जी ने  इतने ज़ोर से उसे खींचा कि दोनों वृक्ष नीचे गिर गए। उन दोनों वृक्षों में से दो बहुत ही सुन्दर और दिव्य यक्ष निकले। इन  दोनों  को नारद के श्राप के कारण वृक्ष होना पड़ा था। दोनों  ने  श्रीकृष्ण  जी  को प्रणाम किया और नारद जी का  धन्यवाद किया जिनके कारण उनको आज श्रीकृष्ण जी  के  दर्शन  हुए। वे दोनों आज्ञा लेकर अपने लोक को चले गए। नंद बाबा कान्हा को  बंधा  हुआ देख कर हंस पड़े। उन्होंने जल्दी  से  कान्हा  को  खोल  दिया।  इस तरह से कान्हा गोकुल वासियों को आनंदित करते रहते।
       एक दिन एक फल बेचने वाली एक  बूढ़ी  माता आई। वो आवाज़ लगा रही थी,"फल ले लो फल।" कान्हा  अपनी  छोटी सी मुठ्ठी में अनाज के दाने लेकर आए। वो भी  आधे  तो  रास्ते में ही गिर गए थे। कान्हा ने दानों  को  टोकरी  में  डाल  दिया। बूढ़ी माता ने कान्हा को देखा तो बस देखती ही  रह गई। उसने कान्हा के हाथ फलों से भर दिए। बाद में जब फल बेचने वाली ने टोकरी से कपड़ा हटा कर देखा तो उसकी  टोकरी तो  रत्नों से भरी पड़ी थी। इस तरह  की  लीलाएं  भगवान  नित्य  करते रहते थे और हर बार यह भी सिद्ध करते थे कि भगवान केवल अपने सच्चे भक्तों के वश में होते हैं
                     जय श्रीकृष्ण जी की     

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