शुक्रवार, 6 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवत महापुराण, लेख संख्या 20 (समुद्र मंथन या आत्म मंथन)

                भगवान द्वारा देवताओं को निर्देश
 परीक्षित के पूछने पर कि क्षीर सागर का मंथन कैसे हुआ, श्री शुकदेव जी  ने  उत्तर दिया कि  यह उस समय की बात है जब असुरों ने देवताओं को पराजित कर दिया था। दुर्वासा ऋषि के श्राप से तीनों लोक श्री हीन हो गए थे।  धर्म का  लोप  हो गया था। तब सभी देवता ब्रह्मा जी की  सभा  में  पहुंचे  और  सारा संकट बताया। भगवान शंकर जी भी वहीं उपस्थित थे। संकट काल जान कर ब्रह्मा जी  ने  भगवान विष्णु  का  ध्यान किया। भगवान विष्णु  भी  वहीं प्रकट हो गए।  भगवान विष्णु जी  ने सारी बात सुन कर  और विचार करने पर कहा  कि इस  समय असुरों पर काल की कृपा है। इस लिए तुम उन से संधि कर लो और उचित समय  की  प्रतीक्षा  करो।  उनको  साथ  मिलाकर समुद्र मंथन करने के लिए प्रेरित करें । आलस्य और प्रमाद को छोड़ो और अपने आप को उत्साह  से भरकर  उद्योग  में  लगा दो। मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं कि मंथन करने के उपरांत देत्यों को तो मिलेगा केवल श्रम और क्लेश और  आप को  मैं अमृत पिला कर अमर कर दूंगा।  परंतु  ध्यान रखना, पहले पहल तो निकलेगा कालकूट  विष,  उससे डरना नहीं।  और दूसरी बात यह कि किसी वस्तु के लिए कभी लोभ मत करना। कामना तो करनी ही नहीं चाहिए। और यदि कोई कामना मन  में  आ  भी जाए तो पूरी ना होने पर क्रोध तो कभी करना ही नहीं चाहिए।
            देवता और दैत्यों में सहमति मंथन आरंभ
       इन्द्र और दैत्य राज बलि में समुद्र मंथन के लिए मिल कर प्रयत्न करने पर समझौता  हो गया। मंद्राचल  पर्वत को  देवता और दैत्यों की शक्ति से उखाड़ दिया गया।  परंतु समुद्र  तक ले जाने में सफल नहीं हुए। उस समय भगवान  विष्णु  प्रकट  हुए और अपने वाहन गरुड़ जी पर रख कर  पर्वत  को  समुद्र  तट पर ले गए। भगवान स्वयं कच्छप अवतार लेकर  समुद्र में  चले गए और स्वयं आधार बन कर पर्वत को अपने ऊपर मथानी के रूप में धारण कर लिया। नाग राज वासुकी को  नेति के समान मन्द्राचल पर लपेट लिया। सर्व व्यापक  भगवान ने  मथानि को ऊपर से भी पकड़े रक्खा तांकि इधर उधर ना डोल सके। और
भगवान ने स्वयं ही असुरों में आसुरी बल के,  देवों में  दैवी बल के, और वासुकी में  निद्रा  के  रूप में  प्रवेश  किया।  देवताओं और दैत्यों के मंथन करने  पर  भी जब  अमृत नहीं निकला तो भगवान  स्वयं मंथन में सहयोग करने लगे।
           मंथन करने से निम्नलिखित वस्तुएं निकलीं
       मंथन करने पर सबसे पहले हलाहल नामक अत्यन्त उग्र  विष निकला। इसको सबका कल्याण करने वाले प्रभु सदाशिव भगवान शंकर जी ने धारण कर  सब  की रक्षा की। उस  समय भगवान विष्णु और ब्रह्मा जी भी उनकी प्रशंसा करने लगे।
       विष के बाद कामधेनु प्रकट हुई जिसे ब्रह्म वादी ऋषियों को दे दिया गया क्योंकि केवल वे ही उसका लोक कल्याण के लिए उचित प्रयोग कर सकते थे। उच्चै:श्रवा नाम का घोड़ा भी निकला जिसे बलि ने ले लिया। ऐरावत नाम का हाथी निकला जो इन्द्र को दे दिया गया। उसके बाद कौस्तुभ नामक पद्मराग मणि निकली जो भगवान अजित (विष्णु जी के उस समय के अंशावतार) को सौंप दी। कल्प वृक्ष और अप्सराओं को  स्वर्ग में भेज दिया गया। जब  साक्षात लक्ष्मी जी निकलीं तो उन्होंने भगवान विष्णु जी का वरण किया।  उसके  बाद  विष्णु जी के अंशावतार धन्वंतरी जी हाथों में  अमृत कलश लिए हुए  बाहर निकले।  उसी  समय  दैत्यों ने  अमृत कलश  ज़बरदस्ती  छीन लिया और भाग निकले। भगवान ने उनमें ऐसी  भावना भर दी कि वे आपस में ही पहले मैं - पहले मैं कहते हुए लड़ने लगे।
       भगवान विष्णु ने उसी समय लोक कल्याण के लिए और यह समझते हुए कि  यदि इन्होंने  अमृत ग्रहण कर लिया तो ये अमर होकर मानवता को नष्ट कर देंगे, एक बहुत ही सुंदर और मनमोहक स्त्री बनकर दैत्यों का ध्यान अपनी ओर खींचा। इसी रूप को भगवान का मोहिनी  अवतार  कहा  गया  है।  मोहिनी रूप अत्यन्त अद्भुत और अवर्णनीय था।  वो  सारे के सारे दैत्य मोहिनी रूप पर ऐसे आसक्त हो गए  कि  अमृत की  बात  को भूल कर जैसे  जैसे  मोहिनी  कहती वैसे  वैसे  ही  वे  व्यवहार करने लगे। दैत्यों ने  उसी सुंदरी  को कहा कि वो स्वयं ही सभी को अमृत पान करवाए। मोहिनी ने कहा कि पहले  आप  सभी नहा धो कर शुद्ध हो जाओ। उसके बाद सबको अमृत पिलाया जाएगा।  जब तक  दैत्यों को  होश आती  तब तक  भगवान ने सभी  देवताओं को  सारा अमृत  पिला दिया।  जब राहु ने  भी देवता का रूप धारण कर धोखे से अमृत पी लिया तो भगवान विष्णु जी ने उसकी गर्दन काट दी।
       यह तो सच है कि श्रम तो दोनों पक्षों ने  किया परंतु  फल केवल एक को ही मिला। इसका कारण यह है कि फल  प्राप्ति का उद्देश्य दोनों का भिन्न था। इसमें देवताओं का  उद्देश्य  जन कल्याण था जब कि दैत्यों का केवल अपना ही स्वार्थ था।
               साधकों के लिए मंथन का भाव
       साधक के लिए क्षीर सागर के  मंथन  का  अर्थ है  आत्म मंथन। असुर या दैत्यों का अर्थ है मन में उठने वाले बुरे  विचार और कामनाएं। देवताओं का अर्थ है अच्छे, विशुद्ध और  दिव्य विचार। अमृत का भाव है चित्त शुद्ध हो जाने पर मुक्ति के लिए भगवत साक्षात्कार। जब कभी मनुष्य को किसी योग्य संत की कृपा से भक्ति योग का मार्ग मिल जाए और वो आत्म मंथन के लिए प्रयत्न करना शुरू करता है, तो फिर भगवान भी  उसका साथ देना शुरू कर देते हैं। हर एक  मनुष्य के अपने अंतर मन में अमृत भरा पड़ा है। केवल  इसको  खोजने  की  आवश्यक्ता है। परंतु जितना सुगम कहने को लगता है, उतना है नहीं।  पूर्व जन्म में किए हुए कोई  अच्छे कर्म जागृत हो जाएं, कोई  योग्य गुरु मिल जाए, तब जाकर इस ओर जाने का रास्ता खुलता है।            अंतर मन में भरा पड़ा है, अमृत ढूंढो जाय।
             गुरु कृपा बिन ना मिले बैठे ज़ोर लगाए।।
        संत संग, सेवा, श्रवण, जप और हरी गुण गान।
            शील, सरल, संतोष हो, सबमें देखे राम।।
         मन मंथन, चिंतन सदा, हर पल हरि का ध्यान।
         श्री हरि और गुरु कृपा से मिले पूर्ण विश्राम।।
       जब मनुष्य सच्चे संत की  और भगवान की कृपा से मन का  मंथन करना शुरू करता है  तो सबसे पहले उसके  सामने अपने द्वारा किए हुए बुरे कर्म विभिन्न रूपों  में सामने आते हैं। यही विष है। साधक को चाहिए कि वह डरे  नहीं  और गुरु के बताए मार्ग पर अग्रसर रहे। कामधेनु गाय निर्मलता का प्रतीक है। धीरे धीरे मंथन करते करते  निर्मलता आ जाती है।  उसके बाद समुद्र मंथन से जैसे घोड़ा  निकला जो गति का प्रतीक है। इस अवस्था में साधक अपने  मन की गति  को रोक  लेता  है। उसके  बाद  ऐरावत  हाथी  निकलने  की बात कही गई है जो प्रतीक है बुद्धि के दोषों का जो धीरे धीरे  मिट जाते हैं।  उसके बाद बात आती है कौस्तुभ मनी  की जो भक्ति की  प्रतीक  है। इस अवस्था में भक्ति  और  प्रगाढ़  हो  जाती है।  उसके  बाद कल्प वृक्ष, रम्भा, लक्ष्मी जी आदि की बात आती है तो वो सारे के सारे सुख सुविधाओं और वैभव आदि के प्रतीक हैं। साधक को चाहिए कि वो किसी भी वस्तु की ओर ध्यान ना देता हुआ अमृत अर्थात उस परम पुरुष  परमात्मा  का निष्काम  भाव से ध्यान करता रहे। अंततोगत्वा जब ईश्वर कृपा करते  हैं तो  यदि कोई दोष बाकी रह भी गया हो तो उसको वो ऐसे काट  देते  हैं जैसे उन्होंने राहु  का  सिर  काट  दिया  था।  उसके  बाद  जब साधक पूरी तरह से शुद्ध हो जाता है तो उसे दर्शन देकर  मुक्ति प्रदान कर देते हैं।
                      जय श्रीकृष्ण जी की

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