बाणासुर का घमंड चकनाचूर
बाणासुर भगवान शिव का भक्त था और उसने उनको प्रसन्न करके वर प्राप्त कर लिया था कि भगवान शिव स्वयं उसके नगर की रक्षा करें। उसकी एक हज़ार भुजाएं थीं। इस बात का उसे बहुत अभिमान हो गया था। तब अभिमान के वशीभूत होकर उसने शिव भगवान को ही कह दिया कि मुझे तो कोई मेरी बराबरी का योद्धा ही नहीं मिल रहा जो मेरा मुकाबला कर सके। भगवान शिवजी ने क्रोधित हो कर कहा," अरे मूढ़, जिस समय तेरी यह ध्वजा टूट कर गिर जाएगी उस समय मेरे ही समान महान योद्धा से तेरा सामना होगा और तेरा अभिमान चकनाचूर हो जाएगा।" बाणासुर की ऊषा नाम की पुत्री थी। उसने स्वपन में एक दिन श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध को देखा और उस पर मोहित हो गई। उसकी एक सहेली थी जिसका नाम था चित्रलेखा जो कि योगिनी थी। योगिनी ने ऊषा के आदेश पर अनिरुद्ध का पता लगाया और उसे सोते हुए ही द्वारिका से उठा कर शोणितपुर ले आई। इस तरह से ऊषा ने अनिरुद्ध को अपने जाल में फंसा लिया। वे दोनों अंतापुर में विहार करने लगे। जब इस बात का पता बाणासुर को चला तो उसने अनिरुद्ध को नागपाश में बांध लिया।
उधर जब श्रीकृष्ण जी ने इस बात को जाना तो उन्होंने बाणासुर की चार भुजाएं छोड़ कर बाकी सभी भुजाएं काट कर उसका घमंड चकनाचूर कर दिया और अनिरुद्ध और ऊषा को लेकर वापिस द्वारिका आ गए।
नृग राजा को स्वर्ग भेजना
इक्ष्वाकु पुत्र नृग एक बहुत दानी राजा था। एक बार धोखे से उसने एक ही गाए दो बार दान कर दी थी। यमराज ने पूछा कि तुमने बहुत पुण्य के कार्य किए हैं। परंतु एक तुमने पाप भी किया है। तुम पहले पुण्य का फल चाहते हो या पाप का ? राजा ने कहा कि पहले उसे पाप का ही फल दे दिया जाए। यमराज की आज्ञा से उसे उसी समय गिरगिट बनना पड़ा। श्री कृष्ण जी ने उसे स्पर्श करके उसको पाप मुक्त किया और उसे स्वर्ग में जाने की आज्ञा दी।
पौंड्रिक, काशी राज और द्विविद का उद्धार
पौंड्रिक ने अपने आप को असली वासुदेव घोषित कर दिया और श्री कृष्ण जी को युद्ध की चुनौती दे डाली। श्रीकृष्ण जी ने युद्ध में उसका वध कर दिया। उधर काशी नरेश के पुत्र सुदक्षिण ने कृत्या को श्रीकृष्ण जी को मारने के लिए भेजा। भगवान ने उस क्रित्या के पीछे सुदर्शन चक्र छोड़ दिया। कृत्या ने उल्टा सुदक्षिण को ही मार दिया और सुदर्शन चक्र ने काशी को जला डाला। उधर द्विविद एक वानर था जो भौमासुर का सखा था। उसमें दस हज़ार हाथियों का बल था। उसने अपने मित्र का बदला लेने के लिए आक्रमण किया। परंतु वह भी बलराम जी के हाथों मारा गया।
जरासंध और शिशुपाल का वध
एक दिन जरासंध द्वारा कैदी बनाए गए राजाओं का एक दूत द्वारिका में श्रीकृष्ण जी के पास आया। उसने उनकी और से उनकी स्वतंत्रता के लिए सहायता मांगी। श्रीकृष्ण जी ने दूत को कहा कि शीघ्र ही वे कुछ करेंगे। उधर उनको नारद जी ने आकर सलाह दी कि इंद्रप्रस्थ में युधिष्ठिर जी भगवान की प्राप्ति के लिए राजसूय यज्ञ करना चाहते हैं। आप कृपा करके उनकी इस अभिलाषा का अनुमोदन कीजिए। उद्धव जी ने भी श्रीकृष्ण जी को कहा कि वहां जाने से राजाओं की स्वतंत्रता का कार्य भी सम्पन्न हो जाएगा। इस लिए वहां जाना चाहिए। श्री कृष्ण जी इंद्रप्रस्थ गए। वहां पर उनका बहुत आदर सत्कार हुआ।
वहां से एक दिन श्रीकृष्ण जी ने अर्जुन और भीम को अपने साथ लिया और तीनों ब्राह्मण वेश में जरासंध के पास गए। उन्होंने राजा से द्वन्द युद्ध की याचना की। जब उसने चुनौती स्वीकार कर ली तो भीम और जरासंध में द्वंद युद्ध हुआ। कई दिन तक युद्ध होता रहा। कई बार भीम ने जरासंध को दो भागों में चीर कर विभाजित कर दिया। परंतु हर बार दोनों भाग फिर जुड़ जाते और वो जीवित होकर फिर से युद्ध करने लग जाता। एक दिन श्रीकृष्ण जी ने भीम को इशारा करने के लिए एक तिनके को बीच से चीर कर उलटी दिशा में फैंक दिया। भीम सेन इशारा समझ गए। इस बार उसने जरासंध को फिर से दो भागों में चीर कर बाईं दिशा वाला दाहिनी और दाईं दिशा वाला भाग बाईं दिशा में फैंक दिया। इसके बाद वो दोबारा जीवित नहीं हुआ। जरासंध के मारे जाने के बाद सभी राजाओं को स्वतंत्र करवा दिया गया।
जरासंध का वध करने के बाद श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीम वापिस इंद्रप्रस्थ आ गए। राजसूय यज्ञ में बहुत बड़े बड़े ऋषि मुनि पधारे थे। परंतु फिर भी सभी ने मिलकर निर्णय किया कि श्रीकृष्ण जी की ही सब से पहले पूजा होनी चाहिए। ऐसा इस लिए कि वे ही अग्र पूजा के असली अधिकारी हैं। वहां पर शिशुपाल भी था जो श्रीकृष्ण जी को शत्रु मानता था। वो इस लिए कि वो रुक्मिणी जी से विवाह करना चाहता था। परंतु श्री कृष्ण जी ने रुक्मिणी जी से विवाह कर लिया था। दूसरा वह जरासंध का मित्र भी था। उसे श्रीकृष्ण जी की अग्र पूजा वाली बात पसंद नहीं आई और वह उनको कई प्रकार के अप शब्दों से संबोधित करने लगा। उधर शिशुपाल श्रीकृष्ण जी की बुआ का लड़का था और उनकी बुआ ने श्रीकृष्ण से वचन ले रक्खा था कि वो उसके सौ अपराध क्षमा कर देंगे। वह जब सौ अपराध कर चुका था, उस समय भी भगवान ने उसे अवसर दिया कि वो अपने आप पर नियंत्रण कर ले परंतु उसमें कोई अंतर नहीं आया और वो श्रीकृष्ण जी के विरूद्ध और भी अधिक अप शब्द बोलने लग गया। तब भगवान ने अपना सुदर्शन चक्र छोड़ा और शिशुपाल का सिर धड़ से अलग कर दिया। मरते ही उसमें से एक ज्योति निकल कर भगवान श्री कृष्ण जी में समा गई।
दन्त्वक्र और विदुरथ का उद्धार
अपने मित्र शिशुपाल और जरासंध के मारे जाने के बाद दंतवक्र अकेला ही हाथ में गदा लेकर युद्ध के मैदान में पहुंच गया। वह भी बहुत बलवान और अत्याचारी था। अत्याचारियों का अंत करने के लिए ही तो भगवान ने अवतार लिया था। श्री कृष्ण जी भी मैदान में आए और उससे युद्ध करते हुए उसका वध कर दिया। शिशुपाल की ही तरह उसके मरते ही सबके सामने उसके अंदर से एक ज्योति निकल कर श्रीकृष्ण में समा गई। दंतवक्र का भाई विदूरथ भी अपने भाई का बदला लेने के लिए आया परंतु वो भी भगवान के हाथों मारा गया।
गोप, गोपियों एवं नंद, यशोदा जी से भेंट
एक बार सर्वग्रास सूर्य ग्रहण लगा, जैसा कि प्रलय के समय
लगा करता है। सब लोग अपने अपने कल्याण के लिए पुण्य आदि उपार्जन करने के लिए सामान्य पंचक तीर्थ कुरुक्षेत्र में आए, जहां परशुराम जी ने राजाओं की रुधिर धारा से पांच बड़े बड़े कुण्ड बना दिए थे। भगवान परशुराम ने लोक मर्यादा की रक्षा के लिए वहीं पर बहुत बड़ा यज्ञ किया था।
सभी यदुवंशी भी वहां आकर उपवास कर रहे थे। वहां पर यदुवंशियों के परम हितैषी बंधु नंद आदि गोप, माता यशोदा, एवं भगवान के दर्शन के लिए चिर काल से उत्कण्ठित गोपियां भी वहां पर आई हुई थीं। श्रीकृष्ण और बलराम जी ने माता यशोदा तथा बाबा नंद जी को हृदय से लगाकर स्नेह प्राप्त किया और उनके चरणों में अपना शीश नवाकर उन्हें प्रणाम किया। माता यशोदा ने चिर काल तक दोनों को अपनी गोद में बैठा कर दुलार किया।
गोपियों ने अपने नेत्रों के रास्ते भगवान को अपने हृदय में धारण कर लिया। उनको अपने स्थूल शरीर का तो पहले से ही कोई भान नहीं था, अब तो उनका लिंग शरीर भी नष्ट हो गया और वे भगवान से एक हो गईं। गोपियों की यह स्थिति हो गई देख कर भगवान ने उन्हें ज्ञान दिया। उन्होंने कहा," गोपिओ कहीं तुम्हारे मन में यह आशंका तो नहीं हो गई कि मैं अकृतज्ञ हूँ। निस्संदेह भगवान ही सब प्राणियों के संयोग और वियोग का कारण हैं। यह बड़े सौभाग्य की बात है कि तुम लोगों को मेरा वह प्रेम प्राप्त हो चुका है जो मेरी ही प्राप्ति कराने वाला है
क्योंकि मेरे प्रति हुई प्रेम भक्ति प्राणियों को अमृतत्व अर्थात परमानंद धाम प्रदान करने में समर्थ है। जितने भी पदार्थ हैं उनके पहले, पीछे, बीच में बाहर और भीतर केवल मैं ही हूँ।
सभी प्राणियों के शरीर में पांचों भूत (पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश) कारण रूप से स्थित हैं। परंतु मैं इन दोनों से परे अविनाशी सत्य हूँ। यह दोनों मेरे ही अंदर प्रतीत हो रहे हैं। तुम लोग ऐसा ही अनुभव करो।
इसी उपदेश के बार बार स्मरण से गोपियों का जीव कोश - लिंग शरीर पूर्णतया नष्ट हो गया और वे भगवान से एक ही हो गईं। वे भगवान को सर्वदा के लिए प्राप्त हो गईं।
गोपियों ने कहा," हे कमलनाभ जो लोग संसार के कुएं में गिरे हुए हैं उन्हें उससे निकालने के लिए आपके चरण कमल ही एक मात्र अवलंबन हैं। प्रभु आप ऐसी कृपा कीजिए कि आप का वह चरण कमल, घर गृहस्थ के काम करते रहने पर भी सदा सर्वदा हमारे हृदय में विराजमान रहे। हम एक क्षण के लिए भी उसे ना भूलें।
जय श्रीकृष्ण जी की
बाणासुर भगवान शिव का भक्त था और उसने उनको प्रसन्न करके वर प्राप्त कर लिया था कि भगवान शिव स्वयं उसके नगर की रक्षा करें। उसकी एक हज़ार भुजाएं थीं। इस बात का उसे बहुत अभिमान हो गया था। तब अभिमान के वशीभूत होकर उसने शिव भगवान को ही कह दिया कि मुझे तो कोई मेरी बराबरी का योद्धा ही नहीं मिल रहा जो मेरा मुकाबला कर सके। भगवान शिवजी ने क्रोधित हो कर कहा," अरे मूढ़, जिस समय तेरी यह ध्वजा टूट कर गिर जाएगी उस समय मेरे ही समान महान योद्धा से तेरा सामना होगा और तेरा अभिमान चकनाचूर हो जाएगा।" बाणासुर की ऊषा नाम की पुत्री थी। उसने स्वपन में एक दिन श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध को देखा और उस पर मोहित हो गई। उसकी एक सहेली थी जिसका नाम था चित्रलेखा जो कि योगिनी थी। योगिनी ने ऊषा के आदेश पर अनिरुद्ध का पता लगाया और उसे सोते हुए ही द्वारिका से उठा कर शोणितपुर ले आई। इस तरह से ऊषा ने अनिरुद्ध को अपने जाल में फंसा लिया। वे दोनों अंतापुर में विहार करने लगे। जब इस बात का पता बाणासुर को चला तो उसने अनिरुद्ध को नागपाश में बांध लिया।
उधर जब श्रीकृष्ण जी ने इस बात को जाना तो उन्होंने बाणासुर की चार भुजाएं छोड़ कर बाकी सभी भुजाएं काट कर उसका घमंड चकनाचूर कर दिया और अनिरुद्ध और ऊषा को लेकर वापिस द्वारिका आ गए।
नृग राजा को स्वर्ग भेजना
इक्ष्वाकु पुत्र नृग एक बहुत दानी राजा था। एक बार धोखे से उसने एक ही गाए दो बार दान कर दी थी। यमराज ने पूछा कि तुमने बहुत पुण्य के कार्य किए हैं। परंतु एक तुमने पाप भी किया है। तुम पहले पुण्य का फल चाहते हो या पाप का ? राजा ने कहा कि पहले उसे पाप का ही फल दे दिया जाए। यमराज की आज्ञा से उसे उसी समय गिरगिट बनना पड़ा। श्री कृष्ण जी ने उसे स्पर्श करके उसको पाप मुक्त किया और उसे स्वर्ग में जाने की आज्ञा दी।
पौंड्रिक, काशी राज और द्विविद का उद्धार
पौंड्रिक ने अपने आप को असली वासुदेव घोषित कर दिया और श्री कृष्ण जी को युद्ध की चुनौती दे डाली। श्रीकृष्ण जी ने युद्ध में उसका वध कर दिया। उधर काशी नरेश के पुत्र सुदक्षिण ने कृत्या को श्रीकृष्ण जी को मारने के लिए भेजा। भगवान ने उस क्रित्या के पीछे सुदर्शन चक्र छोड़ दिया। कृत्या ने उल्टा सुदक्षिण को ही मार दिया और सुदर्शन चक्र ने काशी को जला डाला। उधर द्विविद एक वानर था जो भौमासुर का सखा था। उसमें दस हज़ार हाथियों का बल था। उसने अपने मित्र का बदला लेने के लिए आक्रमण किया। परंतु वह भी बलराम जी के हाथों मारा गया।
जरासंध और शिशुपाल का वध
एक दिन जरासंध द्वारा कैदी बनाए गए राजाओं का एक दूत द्वारिका में श्रीकृष्ण जी के पास आया। उसने उनकी और से उनकी स्वतंत्रता के लिए सहायता मांगी। श्रीकृष्ण जी ने दूत को कहा कि शीघ्र ही वे कुछ करेंगे। उधर उनको नारद जी ने आकर सलाह दी कि इंद्रप्रस्थ में युधिष्ठिर जी भगवान की प्राप्ति के लिए राजसूय यज्ञ करना चाहते हैं। आप कृपा करके उनकी इस अभिलाषा का अनुमोदन कीजिए। उद्धव जी ने भी श्रीकृष्ण जी को कहा कि वहां जाने से राजाओं की स्वतंत्रता का कार्य भी सम्पन्न हो जाएगा। इस लिए वहां जाना चाहिए। श्री कृष्ण जी इंद्रप्रस्थ गए। वहां पर उनका बहुत आदर सत्कार हुआ।
वहां से एक दिन श्रीकृष्ण जी ने अर्जुन और भीम को अपने साथ लिया और तीनों ब्राह्मण वेश में जरासंध के पास गए। उन्होंने राजा से द्वन्द युद्ध की याचना की। जब उसने चुनौती स्वीकार कर ली तो भीम और जरासंध में द्वंद युद्ध हुआ। कई दिन तक युद्ध होता रहा। कई बार भीम ने जरासंध को दो भागों में चीर कर विभाजित कर दिया। परंतु हर बार दोनों भाग फिर जुड़ जाते और वो जीवित होकर फिर से युद्ध करने लग जाता। एक दिन श्रीकृष्ण जी ने भीम को इशारा करने के लिए एक तिनके को बीच से चीर कर उलटी दिशा में फैंक दिया। भीम सेन इशारा समझ गए। इस बार उसने जरासंध को फिर से दो भागों में चीर कर बाईं दिशा वाला दाहिनी और दाईं दिशा वाला भाग बाईं दिशा में फैंक दिया। इसके बाद वो दोबारा जीवित नहीं हुआ। जरासंध के मारे जाने के बाद सभी राजाओं को स्वतंत्र करवा दिया गया।
जरासंध का वध करने के बाद श्रीकृष्ण, अर्जुन और भीम वापिस इंद्रप्रस्थ आ गए। राजसूय यज्ञ में बहुत बड़े बड़े ऋषि मुनि पधारे थे। परंतु फिर भी सभी ने मिलकर निर्णय किया कि श्रीकृष्ण जी की ही सब से पहले पूजा होनी चाहिए। ऐसा इस लिए कि वे ही अग्र पूजा के असली अधिकारी हैं। वहां पर शिशुपाल भी था जो श्रीकृष्ण जी को शत्रु मानता था। वो इस लिए कि वो रुक्मिणी जी से विवाह करना चाहता था। परंतु श्री कृष्ण जी ने रुक्मिणी जी से विवाह कर लिया था। दूसरा वह जरासंध का मित्र भी था। उसे श्रीकृष्ण जी की अग्र पूजा वाली बात पसंद नहीं आई और वह उनको कई प्रकार के अप शब्दों से संबोधित करने लगा। उधर शिशुपाल श्रीकृष्ण जी की बुआ का लड़का था और उनकी बुआ ने श्रीकृष्ण से वचन ले रक्खा था कि वो उसके सौ अपराध क्षमा कर देंगे। वह जब सौ अपराध कर चुका था, उस समय भी भगवान ने उसे अवसर दिया कि वो अपने आप पर नियंत्रण कर ले परंतु उसमें कोई अंतर नहीं आया और वो श्रीकृष्ण जी के विरूद्ध और भी अधिक अप शब्द बोलने लग गया। तब भगवान ने अपना सुदर्शन चक्र छोड़ा और शिशुपाल का सिर धड़ से अलग कर दिया। मरते ही उसमें से एक ज्योति निकल कर भगवान श्री कृष्ण जी में समा गई।
दन्त्वक्र और विदुरथ का उद्धार
अपने मित्र शिशुपाल और जरासंध के मारे जाने के बाद दंतवक्र अकेला ही हाथ में गदा लेकर युद्ध के मैदान में पहुंच गया। वह भी बहुत बलवान और अत्याचारी था। अत्याचारियों का अंत करने के लिए ही तो भगवान ने अवतार लिया था। श्री कृष्ण जी भी मैदान में आए और उससे युद्ध करते हुए उसका वध कर दिया। शिशुपाल की ही तरह उसके मरते ही सबके सामने उसके अंदर से एक ज्योति निकल कर श्रीकृष्ण में समा गई। दंतवक्र का भाई विदूरथ भी अपने भाई का बदला लेने के लिए आया परंतु वो भी भगवान के हाथों मारा गया।
गोप, गोपियों एवं नंद, यशोदा जी से भेंट
एक बार सर्वग्रास सूर्य ग्रहण लगा, जैसा कि प्रलय के समय
लगा करता है। सब लोग अपने अपने कल्याण के लिए पुण्य आदि उपार्जन करने के लिए सामान्य पंचक तीर्थ कुरुक्षेत्र में आए, जहां परशुराम जी ने राजाओं की रुधिर धारा से पांच बड़े बड़े कुण्ड बना दिए थे। भगवान परशुराम ने लोक मर्यादा की रक्षा के लिए वहीं पर बहुत बड़ा यज्ञ किया था।
सभी यदुवंशी भी वहां आकर उपवास कर रहे थे। वहां पर यदुवंशियों के परम हितैषी बंधु नंद आदि गोप, माता यशोदा, एवं भगवान के दर्शन के लिए चिर काल से उत्कण्ठित गोपियां भी वहां पर आई हुई थीं। श्रीकृष्ण और बलराम जी ने माता यशोदा तथा बाबा नंद जी को हृदय से लगाकर स्नेह प्राप्त किया और उनके चरणों में अपना शीश नवाकर उन्हें प्रणाम किया। माता यशोदा ने चिर काल तक दोनों को अपनी गोद में बैठा कर दुलार किया।
गोपियों ने अपने नेत्रों के रास्ते भगवान को अपने हृदय में धारण कर लिया। उनको अपने स्थूल शरीर का तो पहले से ही कोई भान नहीं था, अब तो उनका लिंग शरीर भी नष्ट हो गया और वे भगवान से एक हो गईं। गोपियों की यह स्थिति हो गई देख कर भगवान ने उन्हें ज्ञान दिया। उन्होंने कहा," गोपिओ कहीं तुम्हारे मन में यह आशंका तो नहीं हो गई कि मैं अकृतज्ञ हूँ। निस्संदेह भगवान ही सब प्राणियों के संयोग और वियोग का कारण हैं। यह बड़े सौभाग्य की बात है कि तुम लोगों को मेरा वह प्रेम प्राप्त हो चुका है जो मेरी ही प्राप्ति कराने वाला है
क्योंकि मेरे प्रति हुई प्रेम भक्ति प्राणियों को अमृतत्व अर्थात परमानंद धाम प्रदान करने में समर्थ है। जितने भी पदार्थ हैं उनके पहले, पीछे, बीच में बाहर और भीतर केवल मैं ही हूँ।
सभी प्राणियों के शरीर में पांचों भूत (पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश) कारण रूप से स्थित हैं। परंतु मैं इन दोनों से परे अविनाशी सत्य हूँ। यह दोनों मेरे ही अंदर प्रतीत हो रहे हैं। तुम लोग ऐसा ही अनुभव करो।
इसी उपदेश के बार बार स्मरण से गोपियों का जीव कोश - लिंग शरीर पूर्णतया नष्ट हो गया और वे भगवान से एक ही हो गईं। वे भगवान को सर्वदा के लिए प्राप्त हो गईं।
गोपियों ने कहा," हे कमलनाभ जो लोग संसार के कुएं में गिरे हुए हैं उन्हें उससे निकालने के लिए आपके चरण कमल ही एक मात्र अवलंबन हैं। प्रभु आप ऐसी कृपा कीजिए कि आप का वह चरण कमल, घर गृहस्थ के काम करते रहने पर भी सदा सर्वदा हमारे हृदय में विराजमान रहे। हम एक क्षण के लिए भी उसे ना भूलें।
जय श्रीकृष्ण जी की
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