परीक्षित - वज्र नाभ संवाद
श्रीकृष्ण जी के अपने धाम को चले जाने के बाद अर्जुन द्वारिका से सभी स्त्रियों को इंद्रप्रस्थ ले आए। श्रीकृष्ण जी के वंश में उनके पौत्र अनिरुद्ध के पुत्र वज्रनाभ को उन्होंने मथुरा मंडल का राजा बना दिया। पांडवों के स्वर्गारोहण के बाद श्री परीक्षित जी ने अपना कर्तव्य समझते हुए वाज्रनाभ के पास जाने का निर्णय किया। वहां पहुंचने पर वज्र नाभ बहुत प्रसन्न हुए और प्रणाम करके उनको महलों में ले गए।
परीक्षित जी के कुशल क्षेम पूछने पर वज्र नाभ ने बताया कि यहां पर कोई प्रजा ही नहीं है। जहां प्रजा ही नहीं वहां पर शासन किस पर करना है। मुझे तो पता ही नहीं कि सारी प्रजा कहां चली गई। इस पर परीक्षित जी ने इसका उत्तर जानने के लिए नंद जी के गुरु महर्षि शांडिल्य जी को बुलाया।
नित्य एवं वास्तविक लीला विहार
परीक्षित जी द्वारा निवेदन करने पर महर्षि शांडिल्य जी ने कहा कि इस स्थान का नाम व्रज है। व्रज शब्द का अर्थ है व्यापक और व्यापक तो केवल भगवान हैं। इस लिए व्रज नाम भगवान का ही है। व्रज में आज भी श्री कृष्ण का वास्तविक लीला विहार नित्य चलता रहता है। परंतु सब लोग उनकी इस लीला को देखने के अधिकारी नहीं हैं। इस लिए आपको यह स्थान निर्जन लग रहा है। समय आने पर आपको श्री उद्धव जी द्वारा श्रीमद्भागवत सुनाई जाने के बाद आपकी भी ऐसी स्थिति बन जाएगी जिस स्थिति में उस लीला के दर्शन आप कर पाओगे। तब तक हे वज्र नाभ आप इस व्रज का सेवन करते रहो और यहां पर बाहर से लोगों को लाकर बसाओ। इसके इलावा प्रभु श्री कृष्ण जी की लीलाओं के स्थानों का पता लगा कर उन स्थानों के नाम भी भगवान द्वारा की गई लीलाओं के नाम पर ही रखना।
कालिंदी जी और श्रीकृष्ण पत्नियों का संवाद
एक दिन श्रीकृष्ण विरह वेदना से व्याकुल श्रीकृष्ण जी की 16000 रानियां अपने प्रियतम की चतुर्थ पटरानी कालिंदी (यमुना जी) को आनंदित देख कर पूछने लगीं कि उसे उनकी तरह विरह वेदना क्यों नहीं सता रही है। यमुना जी ने हंसते हुए उत्तर दिया कि अपनी आत्मा में ही रमण करने के कारण प्रभु श्रीकृष्ण आत्मा राम हैं। उनकी आत्मा हैं - श्री राधा जी। मैं दासी की भांति श्री राधा जी की सेवा में रहती हूँ। यह उनकी सेवा का ही प्रभाव है कि विरह मुझे स्पर्श नहीं कर सकता। श्रीकृष्ण जी की सभी रानियां, श्री राधा जी के ही अंश का विस्तार हैं। राधा कृष्ण का नित्य संयोग है। इसी तरह उनकी अंश होने के कारण सभी रानियों को भी भगवान का नित्य संयोग प्राप्त रहता है। श्रीकृष्ण ही राधा और राधा जी श्रीकृष्ण हैं। उन दोनों का प्रेम ही वंशी है। तथा राधा की प्यारी सखी चंद्रावली भी श्रीकृष्ण चरणों के नख रूपी चंद्रमाओं की सेवा में आसक्त रहने के कारण ही चंद्रावली नाम से कहीं जाती है। मैंने श्री राधा जी में ही रुक्मिणी आदि का समावेश देखा है। तुम लोगों का भी सर्वांश में श्री कृष्ण के साथ वियोग नहीं हुआ है। परंतु तुम इस रहस्य को इस रूप में जानती नहीं हो। इस लिए इतनी व्याकुल हो। जैसे गोपियों का विरह उद्धव जी के द्वारा दिए गए ज्ञान से दूर हुआ था, उसी प्रकार यदि तुम सब को उद्धव जी का सत्संग प्राप्त हो जाए, तो तुम सब भी अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के साथ नित्य विहार का सुख प्राप्त कर लोगी। यमुना जी ने आगे कहा कि उद्धव जो साक्षात स्वरुप में बद्रिकाश्रम में ही रहते हैं। परंतु साधन की फलरूपा भूमि - व्रज भूमि है, इसे भी इसके रहस्यों सहित भगवान ने पहले ही उद्धव जी को दे दिया था। परंतु वह फल भूमि, श्री कृष्ण जी के अन्तर्ध्यान हो जाने के साथ ही स्थूल दृष्टि से परे जा चुकी है। अर्थात स्थूल शरीर से उसे देखा नहीं जा सकता। इस लिए उद्धव जी प्रत्यक्ष रूप से दिखाई नहीं पड़ते। फिर भी गोवर्धन पर्वत के निकट भगवान की लीला सहचरी गोपियों की विहार स्थली है। वहां की लता, अंकुर और बेलों के रूप में अवश्य ही उद्धव जी वहां निवास करते हैं। उद्धव जी को श्रीकृष्ण जी ने अपना उत्सव स्वरूप भी प्रदान किया है। भगवान का उत्सव उद्धव जी का अंग है। वह उससे अलग नहीं रह सकते।
इस लिए अब तुम वज्र नाभ को लेकर जाओ और कुसुम सरोवर के पास ठहरो। संगीतमय कीर्तन के महान उत्सव को आरंभ करो। उनका दर्शन आवश्य होगा। वही आपके मनोरथ को पूर्ण करेंगे।
जब सच्चे भाव से संकीर्तन शुरू किया गया तो सभी लोग एकाग्र हो गए। उन सब की दृष्टि और उनके मन की वृत्ति कहीं और ना जाती थी। लताओं से प्रकट होकर श्री उद्धव जी भी सबके सामने आ गए। उनको उपस्थित देख कर सभी प्रसन्न हो गए।
उद्धव जी द्वारा भागवत कथा का महत्त्व बताना
श्री उद्धव जी कहने लगे, "श्रीकृष्ण जी का प्रकाश प्राप्त हुए बिना किसी को भी अपने स्वरूप का बोध नहीं हो सकता जीवों के अंत: करण में जो श्रीकृष्ण तत्व का प्रकाश है, उस पर सदा माया का पर्दा पड़ा रहता है। श्रीकृष्ण अवतार वाले समय के इलावा यदि किसी और काल में कोई श्रीकृष्ण तत्व का प्रकाश पाना चाहे तो उसे वह श्रीमद्भागवत से ही प्राप्त कर सकता है। श्रीमद्भागवत में श्रीकृष्ण साक्षात रूप में विराजमान रहते हैं। इसके पढ़ने, सुनने, सुनाने और इसके चिंतन करने से ज्ञान, बल ,धन और आरोग्य की प्राप्ति भी होती है परंतु इससे सब से उत्तम फल जो मिलता है वो है श्रीकृष्ण जी की प्राप्ति।
अपनी ही माया से पुरुष रूप धारण करने वाले परमात्मा ने जब सृष्टि के लिए संकल्प किया, तब उनके दिव्य विग्रह से तीन पुरुष: रजोगुण की प्रधानता से ब्रह्मा (सृष्टि निर्माण के लिए), सत्वगुण की प्रधानता से विष्णु (सृष्टि पालन करने के लिए) और तमोगुण की प्रधानता से रुद्र (सृष्टि के संहार के लिए) प्रकट हुए। परमात्मा ने ही इन तीनों को श्रीमद्भागवत का ज्ञान देते हुए कहा कि इसी ज्ञान की शक्ति से ही आप सभी अपने अपने कार्य कर सकोगे। इसी ज्ञान से वे पूर्ण रूप से सामर्थ हुए।
वज्र नाभ ने अपने पुत्र प्रति बाहु को मथुरा का राजा बना दिया और एक महीने तक माताओं के साथ ही कथा सुनी। सभी श्रोताओं ने अपने आप को भगवान के स्वरूप में स्थित देखा। माताएं विरह वेदना से छुटकारा पाकर श्रीकृष्ण जी के परमधाम में प्रविष्ट हो गईं। बाकी के सभी श्रोतागण भी प्रभु श्रीकृष्ण जी की अंतरंग लीला में सम्मिलित होकर इस स्थूल व्यावहारिक जगत से तत्काल अन्तर्ध्यान हो गए। उनके दर्शन आज भी भावुक भक्तों को हो जाते हैं।
सूत जी कहते हैं कि जो लोग भगवत प्राप्ति की कामना से इस कथा को सुनेंगे और कहेंगे उनको भगवान की प्राप्ति हो जाएगी और उनके दुखों का सदा के लिए अंत हो जाएगा।
जय श्री कृष्ण जी की
समाप्त
सभी पाठको का इस दास की ओर से लेखों को पढ़ने के लिए और पसंद करने के लिए धन्यवाद। श्रीकृष्ण जी आपकी भक्ति और श्रद्धा को और बढ़ाते हुए आप सभी पर अपनी करुणा का अमृत बरसाते रहें। जय जय श्री राधे कृष्ण जी की।
धन्यवाद
श्रीकृष्ण जी के अपने धाम को चले जाने के बाद अर्जुन द्वारिका से सभी स्त्रियों को इंद्रप्रस्थ ले आए। श्रीकृष्ण जी के वंश में उनके पौत्र अनिरुद्ध के पुत्र वज्रनाभ को उन्होंने मथुरा मंडल का राजा बना दिया। पांडवों के स्वर्गारोहण के बाद श्री परीक्षित जी ने अपना कर्तव्य समझते हुए वाज्रनाभ के पास जाने का निर्णय किया। वहां पहुंचने पर वज्र नाभ बहुत प्रसन्न हुए और प्रणाम करके उनको महलों में ले गए।
परीक्षित जी के कुशल क्षेम पूछने पर वज्र नाभ ने बताया कि यहां पर कोई प्रजा ही नहीं है। जहां प्रजा ही नहीं वहां पर शासन किस पर करना है। मुझे तो पता ही नहीं कि सारी प्रजा कहां चली गई। इस पर परीक्षित जी ने इसका उत्तर जानने के लिए नंद जी के गुरु महर्षि शांडिल्य जी को बुलाया।
नित्य एवं वास्तविक लीला विहार
परीक्षित जी द्वारा निवेदन करने पर महर्षि शांडिल्य जी ने कहा कि इस स्थान का नाम व्रज है। व्रज शब्द का अर्थ है व्यापक और व्यापक तो केवल भगवान हैं। इस लिए व्रज नाम भगवान का ही है। व्रज में आज भी श्री कृष्ण का वास्तविक लीला विहार नित्य चलता रहता है। परंतु सब लोग उनकी इस लीला को देखने के अधिकारी नहीं हैं। इस लिए आपको यह स्थान निर्जन लग रहा है। समय आने पर आपको श्री उद्धव जी द्वारा श्रीमद्भागवत सुनाई जाने के बाद आपकी भी ऐसी स्थिति बन जाएगी जिस स्थिति में उस लीला के दर्शन आप कर पाओगे। तब तक हे वज्र नाभ आप इस व्रज का सेवन करते रहो और यहां पर बाहर से लोगों को लाकर बसाओ। इसके इलावा प्रभु श्री कृष्ण जी की लीलाओं के स्थानों का पता लगा कर उन स्थानों के नाम भी भगवान द्वारा की गई लीलाओं के नाम पर ही रखना।
कालिंदी जी और श्रीकृष्ण पत्नियों का संवाद
एक दिन श्रीकृष्ण विरह वेदना से व्याकुल श्रीकृष्ण जी की 16000 रानियां अपने प्रियतम की चतुर्थ पटरानी कालिंदी (यमुना जी) को आनंदित देख कर पूछने लगीं कि उसे उनकी तरह विरह वेदना क्यों नहीं सता रही है। यमुना जी ने हंसते हुए उत्तर दिया कि अपनी आत्मा में ही रमण करने के कारण प्रभु श्रीकृष्ण आत्मा राम हैं। उनकी आत्मा हैं - श्री राधा जी। मैं दासी की भांति श्री राधा जी की सेवा में रहती हूँ। यह उनकी सेवा का ही प्रभाव है कि विरह मुझे स्पर्श नहीं कर सकता। श्रीकृष्ण जी की सभी रानियां, श्री राधा जी के ही अंश का विस्तार हैं। राधा कृष्ण का नित्य संयोग है। इसी तरह उनकी अंश होने के कारण सभी रानियों को भी भगवान का नित्य संयोग प्राप्त रहता है। श्रीकृष्ण ही राधा और राधा जी श्रीकृष्ण हैं। उन दोनों का प्रेम ही वंशी है। तथा राधा की प्यारी सखी चंद्रावली भी श्रीकृष्ण चरणों के नख रूपी चंद्रमाओं की सेवा में आसक्त रहने के कारण ही चंद्रावली नाम से कहीं जाती है। मैंने श्री राधा जी में ही रुक्मिणी आदि का समावेश देखा है। तुम लोगों का भी सर्वांश में श्री कृष्ण के साथ वियोग नहीं हुआ है। परंतु तुम इस रहस्य को इस रूप में जानती नहीं हो। इस लिए इतनी व्याकुल हो। जैसे गोपियों का विरह उद्धव जी के द्वारा दिए गए ज्ञान से दूर हुआ था, उसी प्रकार यदि तुम सब को उद्धव जी का सत्संग प्राप्त हो जाए, तो तुम सब भी अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के साथ नित्य विहार का सुख प्राप्त कर लोगी। यमुना जी ने आगे कहा कि उद्धव जो साक्षात स्वरुप में बद्रिकाश्रम में ही रहते हैं। परंतु साधन की फलरूपा भूमि - व्रज भूमि है, इसे भी इसके रहस्यों सहित भगवान ने पहले ही उद्धव जी को दे दिया था। परंतु वह फल भूमि, श्री कृष्ण जी के अन्तर्ध्यान हो जाने के साथ ही स्थूल दृष्टि से परे जा चुकी है। अर्थात स्थूल शरीर से उसे देखा नहीं जा सकता। इस लिए उद्धव जी प्रत्यक्ष रूप से दिखाई नहीं पड़ते। फिर भी गोवर्धन पर्वत के निकट भगवान की लीला सहचरी गोपियों की विहार स्थली है। वहां की लता, अंकुर और बेलों के रूप में अवश्य ही उद्धव जी वहां निवास करते हैं। उद्धव जी को श्रीकृष्ण जी ने अपना उत्सव स्वरूप भी प्रदान किया है। भगवान का उत्सव उद्धव जी का अंग है। वह उससे अलग नहीं रह सकते।
इस लिए अब तुम वज्र नाभ को लेकर जाओ और कुसुम सरोवर के पास ठहरो। संगीतमय कीर्तन के महान उत्सव को आरंभ करो। उनका दर्शन आवश्य होगा। वही आपके मनोरथ को पूर्ण करेंगे।
जब सच्चे भाव से संकीर्तन शुरू किया गया तो सभी लोग एकाग्र हो गए। उन सब की दृष्टि और उनके मन की वृत्ति कहीं और ना जाती थी। लताओं से प्रकट होकर श्री उद्धव जी भी सबके सामने आ गए। उनको उपस्थित देख कर सभी प्रसन्न हो गए।
उद्धव जी द्वारा भागवत कथा का महत्त्व बताना
श्री उद्धव जी कहने लगे, "श्रीकृष्ण जी का प्रकाश प्राप्त हुए बिना किसी को भी अपने स्वरूप का बोध नहीं हो सकता जीवों के अंत: करण में जो श्रीकृष्ण तत्व का प्रकाश है, उस पर सदा माया का पर्दा पड़ा रहता है। श्रीकृष्ण अवतार वाले समय के इलावा यदि किसी और काल में कोई श्रीकृष्ण तत्व का प्रकाश पाना चाहे तो उसे वह श्रीमद्भागवत से ही प्राप्त कर सकता है। श्रीमद्भागवत में श्रीकृष्ण साक्षात रूप में विराजमान रहते हैं। इसके पढ़ने, सुनने, सुनाने और इसके चिंतन करने से ज्ञान, बल ,धन और आरोग्य की प्राप्ति भी होती है परंतु इससे सब से उत्तम फल जो मिलता है वो है श्रीकृष्ण जी की प्राप्ति।
अपनी ही माया से पुरुष रूप धारण करने वाले परमात्मा ने जब सृष्टि के लिए संकल्प किया, तब उनके दिव्य विग्रह से तीन पुरुष: रजोगुण की प्रधानता से ब्रह्मा (सृष्टि निर्माण के लिए), सत्वगुण की प्रधानता से विष्णु (सृष्टि पालन करने के लिए) और तमोगुण की प्रधानता से रुद्र (सृष्टि के संहार के लिए) प्रकट हुए। परमात्मा ने ही इन तीनों को श्रीमद्भागवत का ज्ञान देते हुए कहा कि इसी ज्ञान की शक्ति से ही आप सभी अपने अपने कार्य कर सकोगे। इसी ज्ञान से वे पूर्ण रूप से सामर्थ हुए।
वज्र नाभ ने अपने पुत्र प्रति बाहु को मथुरा का राजा बना दिया और एक महीने तक माताओं के साथ ही कथा सुनी। सभी श्रोताओं ने अपने आप को भगवान के स्वरूप में स्थित देखा। माताएं विरह वेदना से छुटकारा पाकर श्रीकृष्ण जी के परमधाम में प्रविष्ट हो गईं। बाकी के सभी श्रोतागण भी प्रभु श्रीकृष्ण जी की अंतरंग लीला में सम्मिलित होकर इस स्थूल व्यावहारिक जगत से तत्काल अन्तर्ध्यान हो गए। उनके दर्शन आज भी भावुक भक्तों को हो जाते हैं।
सूत जी कहते हैं कि जो लोग भगवत प्राप्ति की कामना से इस कथा को सुनेंगे और कहेंगे उनको भगवान की प्राप्ति हो जाएगी और उनके दुखों का सदा के लिए अंत हो जाएगा।
जय श्री कृष्ण जी की
समाप्त
सभी पाठको का इस दास की ओर से लेखों को पढ़ने के लिए और पसंद करने के लिए धन्यवाद। श्रीकृष्ण जी आपकी भक्ति और श्रद्धा को और बढ़ाते हुए आप सभी पर अपनी करुणा का अमृत बरसाते रहें। जय जय श्री राधे कृष्ण जी की।
धन्यवाद
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