गुरुवार, 5 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवत महापुराण लेख संख्या - 19 (भक्त प्रह्लाद की कथा एवं हिरण्यकशिपु वध)

      लेख  संख्या 07 में आपने पढ़ा था कि सनत कुमारों द्वारा दिए गए श्राप के कारण भगवान विष्णु जी के पार्षदों जय और विजय  को  राक्षस  होकर  पृथ्वी  पर (एक को हिरण्याक्ष और दूसरे  को  हिरण्यकशिपु  के  रूप में)  जन्म  लेना  पड़ा  था। हिरण्याक्ष को  भगवान ने  वाराह अवतार  में ही मार दिया था।
               हिरण्यकशिपु द्वारा वर प्राप्त करना
 उसकी मृत्यु के पश्चात  हिरण्यकशिपु  ने  अमर  होने  के लिए तपस्या करने की बात  सोचकर  किसी  एकान्त स्थान पर घोर तपस्या की। उसकी तपस्या को देख कर देवता भी भयभीत हो गए। वे डरे हुए ब्रह्मा जी के पास गए और याचना की कि कोई ऐसा उपाय  करें जिससे  उसकी  तपस्या भंग हो जाए अन्यथा इसकी तपस्या से इसकी शक्तियां बढ़ती जाएंगी और यह दैत्य अपनी शक्तियों का  दुरुपयोग करके  सृष्टि  का विनाश करेगा। ब्रह्मा जी  ने कहा  कि  जो भी प्राणी  तपस्या  करता है उसका फल तो उसको देना ही  पड़ता है। इतना कहकर ब्रह्मा जी उसे मनवांछित फल देने के लिए उसके पास चल दिए। ब्रह्मा जी ने उसे वर  मांगने  के लिए कहा  तो उसने अमर  होने का वरदान मांग  लिया।  इस  पर  ब्रह्मा  जी  ने  कहा  कि  यह  वर उनके अधिकार क्षेत्र में नहीं है। इस लिए कुछ और मांग लो। इस पर उसने जो  वर मांगा वो इस तरह से था, " मुझे ऐसा वर दीजिए कि आपके द्वारा बनाए हुए किसी भी प्राणी, चाहे वो मनुष्य हो या पशु,  प्राणी हो या अप्राणी,  देवता हो या देत्य, अथवा नाग आदि किसी से भी मेरी मृत्यु ना हो। भीतर, बाहर, दिन में, रात में, जीव से, अस्त्र - शस्त्र से, पृथ्वी या आकाश में कहीं भी मेरी मृत्यु ना हो।  युद्ध में मेरा कोई सामना ना कर सके।  मैं समस्त प्राणियों का  एक छत्र  सम्राट होऊं। आप जैसी ही मेरी महिमा हो। मुझे अक्षय ऐश्वर्य की प्राप्ति हो।"
       ब्रह्मा जी ने कहा,"ऐसा ही हो"
                              घोर अत्याचार
       उसके बाद तो हिरण्यकशिपु  घोर  अत्याचार करने लगा। तीनों लोकों को उसने अपने वश में कर लिया। वह तीनों लोकों का एक छत्र सम्राट बन गया। सभी देवताओं ने मन ही मन श्री हरि की शरण ले ली।
       उधर  हिरण्यकशिपु  ने  अपने  आप को  भगवान घोषित कर दिया।  जो भी  इस बात  का  विरोध करता  कड़ी से कड़ी सजा पाता। तीनों लोकों में  उसी के नाम का डंका बजता था।
          भक्त प्रह्लाद का भगवान पर अटूट विश्वास 
उसके दस पुत्रों में से सबसे  छोटे पुत्र का नाम था प्रह्लाद।  वह हिरण्यकशिपु  की पत्नि  कयाधु का पुत्र था।  वह  राक्षस  पुत्र होते हुए भी एक सच्चा  विष्णु भक्त था। बचपन  से ही  प्रह्लाद भगवान  के  ध्यान  में  तन्मय  रहते थे।  थोड़ा  बड़ा  होने  पर हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को अपने गुरु शुक्राचार्य के  आश्रम  में शिक्षा लेने के लिए भेज दिया। वहां पर शुक्राचार्य के  पुत्र  शंड और आमर्क को  उसे  शिक्षा  प्रदान  करने  का  दायित्व  दिया गया।
       कुछ काल व्यतीत होने के उपरांत एक दिन हिरण्यकशिपु ने अपने प्रिय पुत्र प्रह्लाद से पूछा, " बेटा तुम्हें  सबसे प्रिय बात कौन सी लगती है ?"
       प्रह्लाद ने कहा," पिता जी  संसार  में  प्राणी व्यर्थ ही ' मैं और मेरे ' के झूठे  आग्रह  में  पड़कर  सदा ही उद्विग्न रहते हैं। ऐसे प्राणियों के लिए मैं यही ठीक समझता हूँ कि इनको अपने कल्याण  के  लिए  शीघ्र  ही  श्री  हरि  की  शरण ग्रहण करनी चाहिए।"
       हिरण्यकशिपु  यह  सुन  कर  आश्चर्यचकित  रह गया कि उसका ही पुत्र  उसके शत्रु  श्री हरि की शरण  ग्रहण करने  की बात कह रहा है। फिर उसने सोचा कि शायद किसी ने  उसको बहका दिया  होगा।  प्रह्लाद को  फिर से आश्रम में  भेज  दिया गया। वहां भी  प्रह्लाद  ने  उनकी  बात  का  विरोध  किया कि उसके पिता ही भगवान हैं। उसने अपने गुरुओं को बताया कि परमात्मा केवल एक ही है। एक दिन  जब शंड  और  आमर्क आश्रम में नहीं थे तो प्रह्लाद ने सभी विद्यार्थियों को हरी  भक्ति का ज्ञान प्रदान किया।
       एक दिन फ़िर से प्रह्लाद के पिता ने उससे पूछा कि  इतने दिनों तक अपने गुरुओं से शिक्षा ग्रहण करके तुमने क्या सीखा है ? प्रह्लाद ने अपने पिता को कहा, " पिता जी विष्णु भगवान की  भक्ति के बिना  मनुष्य के लिए और कोई  उपयुक्त  साधन नहीं है। केवल वही एक सच्चिदानंद स्वरुप परमात्मा हैं। उनके सिवाए और कोई भगवान नहीं है। उनकी नौ प्रकार की  भक्ति बताई गई है। अर्थात  भक्त लोग अपने  अपने तरीके से उनकी उपासना करते हैं। उनकी भक्ति के नौ प्रकार कहे गए हैं:-
       श्रवण,  कीर्तन,  स्मरण,  सेवा,  पूजा,  वंदन, दास्य भाव, सख्य  भाव  और  आत्म निवेदन।  यही  एक  मात्र  साधन  है जिससे मनुष्य अपना उद्धार कर सकता है।
       इतना सुनते ही हिरण्यकशिपु आग बबूला हो गया। और  ब्राह्मण पर क्रोध करते हुए उसने कहा कि " क्या आप इस को यही शिक्षा दे रहे हो ?" गुरु ने कहा,"नहीं राजन यह तो इसकी जन्म जात प्रवृत्ति है। हमने इसको ऐसी शिक्षा  कभी नहीं  दी है। हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद से पूछा कि तुमने यह शिक्षा  कहां से प्राप्त की है ?
       प्रह्लाद ने कहा पिता जी," संसार के लोग तो पिसे हुए को पीस रहे हैं। चबाए हुए को ही चबा रहे हैं। उनकी इन्द्रियां  वश में ना होने के कारण वे कई बार भोगे  हुए विषयों  को ही  बार बार भोगने के लिए संसार रूप घोर  नरक  की ओर जा रहे हैं। ऐसे लोगों की बुद्धि भगवान  में नहीं लगती।  उनको यह  बात मालूम ही नहीं कि हमारे  स्वार्थ और  परमार्थ केवल  भगवान विष्णु ही हैं।"
       हिरण्यकशिपु ने क्रोध में आकर प्रह्लाद को अपनी गोद से उठा कर भूमि पर पटक दिया  और दैत्यों को आदेश दिया  कि उसे मृत्यु दंड दिया जाए।  अनेकों  बार कई  शस्त्रों का  प्रयोग करने पर भी वो प्रह्लाद का कुछ नहीं बिगाड़ पाए।  उसे  मारने के अनेकों उपाए निष्फल होने पर  उसे  अंधेरी  कोठरी  में बंद कर दिया गया। उसका खाना तक बंद कर दिया गया।  पर  वो अडिग रहा। उसका निश्चय पक्का था।  हिरण्यकशिपु ने  कहा कि तीनों लोक मुझसे डरते हैं परंतु तू मेरा ही पुत्र होकर मेरे ही शत्रु की बड़ाई करता है। इस पर प्रह्लाद ने कहा  पिता जी जब आप अपनी इन्द्रियों को ही अपने वश में नहीं कर सके तो तीन लोक को वश में कर लेने से क्या लाभ। क्योंकि भगवान विष्णु सर्व शक्तिमान और सर्वत्र हैं।
                       हिरण्यकशिपु का उद्धार
        हिरण्यकशिपु ने कहा," यदि सर्वत्र हैं तो इस खंबे में क्यों नहीं ?" प्रह्लाद ने कहा," इस  खंबे में भी भगवान हैं।  वो कण कण में हैं।" इतना सुनते ही हिरण्यकशिपु ने क्रोध और आवेश में आकर पूरे ज़ोर से खंबे पर एक घूंसा मारा। उसी  समय एक भयानक शब्द हुआ। ऐसी ध्वनि उत्पन हुई जैसे ब्रह्मांड ही फट गया हो। प्रह्लाद को मारने के लिए आगे  बढ़ने ही वाला था कि उस भयंकर शब्द को सुन कर सन्न रह गया।  इधर उधर देखने लगा। कुछ दिखाई नहीं दिया।
      उसी  खंबे  में  से  एक  बड़ा ही वचित्र रूप धारण  करके भगवान  प्रकट हुए। भयंकर  सिंघनाद करते हुए  मनुष्य  और सिंह का विचित्र  रूप लेकर  भगवान नृसिंह  हिरण्यकशिपु के सामने खड़े  थे। भयानक  पीली  आंखें, लहराते हुए   गर्दन के बाल, छुरे जैसी जिह्वा, फूली हुई नासिका और पहाड़ की गुफ़ा के समान खुला हुआ मुख। अहंकार में बेसुध हिरण्यकशिपु ने देखते ही आक्रमण कर दिया। भगवान ने उसे पकड़ा, उठाया और सभा के दरवाजे पर लेजाकर अपनी जंघा पर लिटा लिया और अपने तीखे नखों से उसके पेट को चीर डाला। इस तरह से उस दैत्य का अंत हुआ। भगवान का रूप इतना डरावना था कि उनके सामने जाने की किसी की हिम्मत  नहीं  हो रही थी। तब ब्रह्मा  जी ने भगवान का क्रोध शांत करने के  लिए  प्रह्लाद को उनके सामने भेजा। प्रह्लाद को सामने पाकर भगवान शांत हो गए। प्रह्लाद ने भगवान की स्तुति की। उन्होंने उसे वर मांगने के लिए कहा। प्रह्लाद ने कहा कि मुझे कुछ नहीं चाहिए। अगर आप देना ही चाहते हो तो ऐसा वर  दीजिए  कि  मेरे  हृदय में कभी किसी कामना  का  बीज ही  अंकुरित  ना हो।  फिर  भी भगवान ने कहा कि मुझे पता है कि  तुम पुरी तरह से निष्काम हो, परंतु  मेरी प्रसन्नता  के  लिए  तुम  एक  मन्वन्तर  के लिए देत्याधिपती बने रहो और फिर मेरे पास आ जाओगे। तुम सदा मेरा ही ध्यान करते रहना। प्रह्लाद ने  भगवान को प्रणाम करके अपने पिता की शुद्धि के लिए प्रार्थना की। भगवान ने कहा कि जिसका वध मेरे द्वारा होता है  उसका उद्धार तो मैं उसी समय कर  देता हूँ।  ब्रह्मा जी  सहित  सभी ने  भगवान की स्तुति की और सब को आशिर्वाद देकर भगवान  अपने धाम को जाने के लिए अन्तर्ध्यान हो गए।
                    जय श्रीकृष्ण जी की

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