भगवान ऋषभदेव जी का प्राकट्य
मनु और शतरूपा के दो पुत्र हुए, प्रियव्रत और उत्तानपाद।
उत्तान पाद के वंश का वर्णन आप ने पढ़ लिया है। अब आप पढ़ेंगे प्रियव्रत के वंश के बारे में। प्रियव्रत का पुत्र अग्निध्र हुआ और उसका हुआ नाभि और उसके हुए भगवान ऋषभ देव।
ऋषभ का अर्थ होता है, श्रेष्ठ। पुराण में बताया गया है कि जन्म से ही उनके अंगों पर विष्णु जी के वज्र, अंकुश आदि चिन्ह दिखाई देते थे। एक बार ईर्ष्या वश इन्द्र ने बारिश नहीं की। तब भगवान ऋषभदेव ने योग माया से ख़ूब जल बरसाया
था। ऋषभदेव जी का विवाह इन्द्र की कन्या जयंती से हुआ।
इनके 100 पुत्र हुए। सबसे बड़े पुत्र थे भरत जिनके नाम से हमारे भारत वर्ष का नाम पड़ा था।
ऋषभदेव जी का उपदेश
ऋषभदेव जी का अपने पुत्रों के नाम उपदेश साधकों के लिए बहुत ही प्रेरणादायक है। उन्होंने कहा है," देहाभिमान् और दाम्पत्य भाव दुर्भेद्य ग्रंथियां हैं। इनको बेधने पर ही मनुष्य ' मैं और मेरे पन ' को त्याग कर परम पद को प्राप्त कर सकता है।
मनुष्य को चाहिए कि वह तत्व जिज्ञासा, तप, कर्म, कथा, सकाम् कर्म का त्याग, भक्तों का संग, वैर त्याग, संयम और ब्रह्मचर्य आदि से मेरे ही परायान हो जावे और योग साधना से अहंकार रूप अपने लिङ्ग शरीर को लीन कर दे। इस तरह कर्म बंधन जो अविद्या से प्राप्त है, उसे काट डाले। अर्थात हृदय ग्रंथी को काट डाले। और फिर साधन को भी त्याग दे।
जो मनुष्य अपने प्रिय संबन्धी को बड़े ही प्यार से भगवतभक्ति का उपदेश देकर मृत्यु की फांसी से नहीं छुड़ाता, वह सच्चा सज्जन, पिता, माता, गुरु या इष्ट नहीं है।
ऋषभदेव जी द्वारा लंबे समय तक शासन करने के बाद उन्होंने अपने बड़े पुत्र भरत को राज्य सौंपा और स्वयं विरक्त और दिगम्बर हो गए। अंत में जंगल की अग्नि में ही अपने शरीर का त्याग किया और परमपद प्राप्त किया।
भरत चरित्र
भरत का विवाह विश्वरूप की कन्या पंचजनी से हुआ। इनके पांच पुत्र हुए। अजनाभ क्षेत्र का नाम भारत वर्ष इन्हीं के समय में पड़ा। चिर काल तक धर्म पूर्वक राज्य भोग कर हरि हर क्षेत्र के पुलहा आश्रम में चले गए। तपस्या के बल पर सभी अभिलाषाओं से निवृत्ती पा ली । उनमें भक्ति योग का आविर्भाव हुआ।
भरत जी को अगले जन्म में हिरन का शरीर मिला
एक दिन एक गर्भवती हिरनी नदी को पार कर रही थी। पानी के वेग के कारण उसका गर्भ गिर गया। हिरनी तो मर गई परंतु बच्चे को भरत जी ने बचा लिया। यह सोच कर कि इसकी रक्षा करना अब उनका उत्तरदायित्व है उन्होंने उसे अपने साथ ही रख लिया और उसकी सेवा करने लगे। धीरे धीरे उस बच्चे से मोह जागृत हो गया। हर समय उसी का ध्यान रहता। एक दिन जब वो थोड़ा बड़ा हुआ तो दूसरे हिरनों के झुंड के साथ ही कहीं चला गया। बहुत ढूंडने पर भी वो हिरन का बच्चा नहीं मिला। भरत की स्मृति में वो ऐसा बैठा कि मृत्यु के समय भी उनको उसकी स्मृति बनी रही। कहते हैं कि मृत्यु के समय जैसी स्मृति बनी हो वैसा ही अगला शरीर प्राप्त होता है। इस तरह भरत जी को भी दूसरे जन्म में हिरन का शरीर प्राप्त हुआ परंतु उनको पहले जन्म की स्मृति बनी रही और वो भगवान का ध्यान करते रहे। इस लिए उनका अगला जन्म फिर से मनुष्य के रूप में हुआ।
तीसरा जन्म जड़ भरत के रूप में
इस जन्म में उनका नाम था जड़ भरत। उन्होंने सांसारिक विद्या ग्रहण नहीं की। वे सदा सब की सेवा करते और बड़ी ही सादगी और नम्रता से रहते थे। पिता की मृत्यु के बाद खेतों में ही रखवाली करते रहते थे। सब की सेवा करना ही उनका काम था। एक दिन कुछ लोग देवी को बलि देने के लिए उसे पकड़ कर ले गए। जैसे ही उनकी बलि दी जाने लगी, देवी ने प्रकट होकर बलि देने वाले सभी लोगों का वध कर डाला और जड़ भरत को छोड़ दिया। वहां से फिर वो वापिस घर नहीं गए और आगे जंगल की ओर चल दिए।
जड़ भारत और राहुगण संवाद
सिंधु सौवीर नाम के देश का राजा राहुगण पालकी में बैठ कर जा रहा था। जब इक्षुमती नदी के किनारे पहुंचा तो उसका एक कुहार बीमार हो गया। राजा की आज्ञा से उसके आदमी जड़ भरत को पकड़ कर ले आए और उसे कोहार के स्थान पर पालकी उठाने के लिए लगा दिया। अब जड़ भरत धरती पर छोटे छोटे जीवों को बचाते हुए चलने लगे। जब पालकी अधिक हिल जाती और संतुलन बिगड़ जाता तो राजा नाराज होकर उसे बुरा भला कहते। जब ऐसा बार बार हुआ तो राजा ने कहा," तुम्हें अधिक भार लग रहा है! इतने मोटे हो तुम! उस पर तू मेरी आज्ञा का उलंघन भी कर रहा है! तुझे पता है मैं तुझे मौत की सज़ा भी दे सकता हूं।
जड़ भरत ने उत्तर दिया," यदि भार नाम की कोई वस्तु है तो ढोने वाले के लिए है। यदि कोई मार्ग है तो वो चलने वाले के लिए है। यदि मोटापन है तो शरीर के लिए कहा जाता है, आत्मा के लिए नहीं। ज्ञानी जन ऐसी बात नहीं करते।
स्थूलता, कृशता, आधि, व्याधि, भूख, प्यास, भय, कलह, इच्छा, बुढ़ापा, निद्रा, प्रेम, क्रोध, अभिमान और शोक आदि सब धर्म देहाभिमान को लेकर उत्पन्न होने वाले जीव में रहते हैं। मुझ में इनका लेशमात्र भी नहीं है।
जहां तक मरने की बात है तो सभी विकारों वाले पदार्थ आदि और अंत वाले हैं। जहां तक स्वामित्व और सेवक की बात है, तो परमार्थ की दृष्टि से तो कोई भेद नहीं। अगर व्यव्हार में ऐसा है भी तो मुझ जड़ और प्रमादी को शिक्षा देना, पिसे हुए को पीसना ही होगा।"
शुकदेव जी कहते हैं कि जड़ भरत इतना कह कर मौन हो गए। राहुगन था तो श्रद्धावान, अहंकार का पर्दा हटा तो तत्काल पालकी से उतर पड़ा। चरणों में सिर नवाकर पूछा तुम कौन हो? कहीं मेरा कल्याण करने के लिए आप कपिल जी ही तो नहीं हैं?
राहुगण को भरत जी का उपदेश
" विश्यासक्त मन जीव को संसार संकट में डाल देता है। विषय हीन होने पर वही उसे शांतिमय मोक्ष पद प्राप्त करवा देता है। दस इन्द्रियां और एक अहंकार मन की वृत्तियां हैं। पांच प्रकार के कर्म , पांच तन्मात्रा और एक शरीर यह ग्यारह उनके आधारभूत विषय कहे जाते हैं।
ज्ञान इन्द्रियों के विषय हैं:- गंध, रूप, स्पर्श, रस और शब्द। यही पांच तन्मात्रा भी कहलाते हैं।
कर्म इन्द्रियों के विषय हैं:- मल त्याग, संभोग, गमन, भाषण और लेना- देना।
शरीर को यह मेरा है इस प्रकार स्वीकार करना अहंकार का विषय है।
यह मन की ग्यारह वृत्तियां द्रव्य (विषय), स्वभाव, आशय (संस्कार), कर्म और काल के द्वारा करोड़ों भेदों में परिणित हो जाती हैं। किन्तु इनकी सत्ता जीवात्मा की सत्ता से ही है। स्वत: या परस्पर मिल कर नहीं। विशुद्ध जीवात्मा, साक्षी रूप से मन की वृत्तियों को देखता रहता है।
यह क्षेत्रज्ञ परमात्मा (जीवात्मा) सर्वव्यापक, जगत का आदि कारण, परिपूर्ण, अपरोक्ष, स्वयं प्रकाश, अजन्मा, ब्रह्मा आदि का भी नियंता और अपने आधीन रहने वाली माया के द्वारा सबके भीतर रहकर जीवों को प्रेरित करने वाला समस्त भूतों का आश्रय रूप भगवान वासुदेव है।
यह भी सत्य है कि भगवान इस संपूर्ण प्रपंच में ओतप्रोत भी हैं। इस लिए हे राजन जब तक मनुष्य ज्ञानोदय के द्वारा इस माया का तिरस्कार कर, सबकी आसक्ति छोड़ कर तथा काम, क्रोध आदि छ: शत्रुओं को जीतकर आत्म तत्व को नहीं जान लेता और जब तक वह आत्मा के उपाधि रूप मन को संसार - दुःख का कारण नहीं समझता तब तक वह इस लोक में यों ही भटकता रहता है। क्योंकि यह चित्त उसके शोक, मोह रोग, राग, लोभ और वैर आदि के संस्कार तथा ममता की वृद्धि करता रहता है। मन यद्यपि स्वयं तो सर्वथा मिथ्या है, तथापि इसने तुम्हारे आत्म स्वरूप को आच्छादित कर रख्खा है। इस लिए तुम सावधान होकर गुरु और श्री हरि के चरणों की उपासना के अस्त्र से इसे मार डालो।"
जय श्रीकृष्ण जी की
मनु और शतरूपा के दो पुत्र हुए, प्रियव्रत और उत्तानपाद।
उत्तान पाद के वंश का वर्णन आप ने पढ़ लिया है। अब आप पढ़ेंगे प्रियव्रत के वंश के बारे में। प्रियव्रत का पुत्र अग्निध्र हुआ और उसका हुआ नाभि और उसके हुए भगवान ऋषभ देव।
ऋषभ का अर्थ होता है, श्रेष्ठ। पुराण में बताया गया है कि जन्म से ही उनके अंगों पर विष्णु जी के वज्र, अंकुश आदि चिन्ह दिखाई देते थे। एक बार ईर्ष्या वश इन्द्र ने बारिश नहीं की। तब भगवान ऋषभदेव ने योग माया से ख़ूब जल बरसाया
था। ऋषभदेव जी का विवाह इन्द्र की कन्या जयंती से हुआ।
इनके 100 पुत्र हुए। सबसे बड़े पुत्र थे भरत जिनके नाम से हमारे भारत वर्ष का नाम पड़ा था।
ऋषभदेव जी का उपदेश
ऋषभदेव जी का अपने पुत्रों के नाम उपदेश साधकों के लिए बहुत ही प्रेरणादायक है। उन्होंने कहा है," देहाभिमान् और दाम्पत्य भाव दुर्भेद्य ग्रंथियां हैं। इनको बेधने पर ही मनुष्य ' मैं और मेरे पन ' को त्याग कर परम पद को प्राप्त कर सकता है।
मनुष्य को चाहिए कि वह तत्व जिज्ञासा, तप, कर्म, कथा, सकाम् कर्म का त्याग, भक्तों का संग, वैर त्याग, संयम और ब्रह्मचर्य आदि से मेरे ही परायान हो जावे और योग साधना से अहंकार रूप अपने लिङ्ग शरीर को लीन कर दे। इस तरह कर्म बंधन जो अविद्या से प्राप्त है, उसे काट डाले। अर्थात हृदय ग्रंथी को काट डाले। और फिर साधन को भी त्याग दे।
जो मनुष्य अपने प्रिय संबन्धी को बड़े ही प्यार से भगवतभक्ति का उपदेश देकर मृत्यु की फांसी से नहीं छुड़ाता, वह सच्चा सज्जन, पिता, माता, गुरु या इष्ट नहीं है।
ऋषभदेव जी द्वारा लंबे समय तक शासन करने के बाद उन्होंने अपने बड़े पुत्र भरत को राज्य सौंपा और स्वयं विरक्त और दिगम्बर हो गए। अंत में जंगल की अग्नि में ही अपने शरीर का त्याग किया और परमपद प्राप्त किया।
भरत चरित्र
भरत का विवाह विश्वरूप की कन्या पंचजनी से हुआ। इनके पांच पुत्र हुए। अजनाभ क्षेत्र का नाम भारत वर्ष इन्हीं के समय में पड़ा। चिर काल तक धर्म पूर्वक राज्य भोग कर हरि हर क्षेत्र के पुलहा आश्रम में चले गए। तपस्या के बल पर सभी अभिलाषाओं से निवृत्ती पा ली । उनमें भक्ति योग का आविर्भाव हुआ।
भरत जी को अगले जन्म में हिरन का शरीर मिला
एक दिन एक गर्भवती हिरनी नदी को पार कर रही थी। पानी के वेग के कारण उसका गर्भ गिर गया। हिरनी तो मर गई परंतु बच्चे को भरत जी ने बचा लिया। यह सोच कर कि इसकी रक्षा करना अब उनका उत्तरदायित्व है उन्होंने उसे अपने साथ ही रख लिया और उसकी सेवा करने लगे। धीरे धीरे उस बच्चे से मोह जागृत हो गया। हर समय उसी का ध्यान रहता। एक दिन जब वो थोड़ा बड़ा हुआ तो दूसरे हिरनों के झुंड के साथ ही कहीं चला गया। बहुत ढूंडने पर भी वो हिरन का बच्चा नहीं मिला। भरत की स्मृति में वो ऐसा बैठा कि मृत्यु के समय भी उनको उसकी स्मृति बनी रही। कहते हैं कि मृत्यु के समय जैसी स्मृति बनी हो वैसा ही अगला शरीर प्राप्त होता है। इस तरह भरत जी को भी दूसरे जन्म में हिरन का शरीर प्राप्त हुआ परंतु उनको पहले जन्म की स्मृति बनी रही और वो भगवान का ध्यान करते रहे। इस लिए उनका अगला जन्म फिर से मनुष्य के रूप में हुआ।
तीसरा जन्म जड़ भरत के रूप में
इस जन्म में उनका नाम था जड़ भरत। उन्होंने सांसारिक विद्या ग्रहण नहीं की। वे सदा सब की सेवा करते और बड़ी ही सादगी और नम्रता से रहते थे। पिता की मृत्यु के बाद खेतों में ही रखवाली करते रहते थे। सब की सेवा करना ही उनका काम था। एक दिन कुछ लोग देवी को बलि देने के लिए उसे पकड़ कर ले गए। जैसे ही उनकी बलि दी जाने लगी, देवी ने प्रकट होकर बलि देने वाले सभी लोगों का वध कर डाला और जड़ भरत को छोड़ दिया। वहां से फिर वो वापिस घर नहीं गए और आगे जंगल की ओर चल दिए।
जड़ भारत और राहुगण संवाद
सिंधु सौवीर नाम के देश का राजा राहुगण पालकी में बैठ कर जा रहा था। जब इक्षुमती नदी के किनारे पहुंचा तो उसका एक कुहार बीमार हो गया। राजा की आज्ञा से उसके आदमी जड़ भरत को पकड़ कर ले आए और उसे कोहार के स्थान पर पालकी उठाने के लिए लगा दिया। अब जड़ भरत धरती पर छोटे छोटे जीवों को बचाते हुए चलने लगे। जब पालकी अधिक हिल जाती और संतुलन बिगड़ जाता तो राजा नाराज होकर उसे बुरा भला कहते। जब ऐसा बार बार हुआ तो राजा ने कहा," तुम्हें अधिक भार लग रहा है! इतने मोटे हो तुम! उस पर तू मेरी आज्ञा का उलंघन भी कर रहा है! तुझे पता है मैं तुझे मौत की सज़ा भी दे सकता हूं।
जड़ भरत ने उत्तर दिया," यदि भार नाम की कोई वस्तु है तो ढोने वाले के लिए है। यदि कोई मार्ग है तो वो चलने वाले के लिए है। यदि मोटापन है तो शरीर के लिए कहा जाता है, आत्मा के लिए नहीं। ज्ञानी जन ऐसी बात नहीं करते।
स्थूलता, कृशता, आधि, व्याधि, भूख, प्यास, भय, कलह, इच्छा, बुढ़ापा, निद्रा, प्रेम, क्रोध, अभिमान और शोक आदि सब धर्म देहाभिमान को लेकर उत्पन्न होने वाले जीव में रहते हैं। मुझ में इनका लेशमात्र भी नहीं है।
जहां तक मरने की बात है तो सभी विकारों वाले पदार्थ आदि और अंत वाले हैं। जहां तक स्वामित्व और सेवक की बात है, तो परमार्थ की दृष्टि से तो कोई भेद नहीं। अगर व्यव्हार में ऐसा है भी तो मुझ जड़ और प्रमादी को शिक्षा देना, पिसे हुए को पीसना ही होगा।"
शुकदेव जी कहते हैं कि जड़ भरत इतना कह कर मौन हो गए। राहुगन था तो श्रद्धावान, अहंकार का पर्दा हटा तो तत्काल पालकी से उतर पड़ा। चरणों में सिर नवाकर पूछा तुम कौन हो? कहीं मेरा कल्याण करने के लिए आप कपिल जी ही तो नहीं हैं?
राहुगण को भरत जी का उपदेश
" विश्यासक्त मन जीव को संसार संकट में डाल देता है। विषय हीन होने पर वही उसे शांतिमय मोक्ष पद प्राप्त करवा देता है। दस इन्द्रियां और एक अहंकार मन की वृत्तियां हैं। पांच प्रकार के कर्म , पांच तन्मात्रा और एक शरीर यह ग्यारह उनके आधारभूत विषय कहे जाते हैं।
ज्ञान इन्द्रियों के विषय हैं:- गंध, रूप, स्पर्श, रस और शब्द। यही पांच तन्मात्रा भी कहलाते हैं।
कर्म इन्द्रियों के विषय हैं:- मल त्याग, संभोग, गमन, भाषण और लेना- देना।
शरीर को यह मेरा है इस प्रकार स्वीकार करना अहंकार का विषय है।
यह मन की ग्यारह वृत्तियां द्रव्य (विषय), स्वभाव, आशय (संस्कार), कर्म और काल के द्वारा करोड़ों भेदों में परिणित हो जाती हैं। किन्तु इनकी सत्ता जीवात्मा की सत्ता से ही है। स्वत: या परस्पर मिल कर नहीं। विशुद्ध जीवात्मा, साक्षी रूप से मन की वृत्तियों को देखता रहता है।
यह क्षेत्रज्ञ परमात्मा (जीवात्मा) सर्वव्यापक, जगत का आदि कारण, परिपूर्ण, अपरोक्ष, स्वयं प्रकाश, अजन्मा, ब्रह्मा आदि का भी नियंता और अपने आधीन रहने वाली माया के द्वारा सबके भीतर रहकर जीवों को प्रेरित करने वाला समस्त भूतों का आश्रय रूप भगवान वासुदेव है।
यह भी सत्य है कि भगवान इस संपूर्ण प्रपंच में ओतप्रोत भी हैं। इस लिए हे राजन जब तक मनुष्य ज्ञानोदय के द्वारा इस माया का तिरस्कार कर, सबकी आसक्ति छोड़ कर तथा काम, क्रोध आदि छ: शत्रुओं को जीतकर आत्म तत्व को नहीं जान लेता और जब तक वह आत्मा के उपाधि रूप मन को संसार - दुःख का कारण नहीं समझता तब तक वह इस लोक में यों ही भटकता रहता है। क्योंकि यह चित्त उसके शोक, मोह रोग, राग, लोभ और वैर आदि के संस्कार तथा ममता की वृद्धि करता रहता है। मन यद्यपि स्वयं तो सर्वथा मिथ्या है, तथापि इसने तुम्हारे आत्म स्वरूप को आच्छादित कर रख्खा है। इस लिए तुम सावधान होकर गुरु और श्री हरि के चरणों की उपासना के अस्त्र से इसे मार डालो।"
जय श्रीकृष्ण जी की
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