बुधवार, 11 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवत महापुराण लेख संख्या 25(श्रीकृष्ण प्राकट्य से पहले की स्थिति)

       भगवान  श्रीकृष्ण जी  के प्राकट्य के समय के  राज  वंश एवं महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व इस प्रकार थे:-
       एक वंश उस समय चल रहा था राजा शांतनु का।  उसके तीन पुत्र  हुए - चित्रांगद,  गंगा  पुत्र  भीष्म  और  वचित्र  वीर्य।
वाचित्र वीर्य की पत्नि अंबिका से हुए - धृतराष्ट्र, अंबालिका से पांडु और दासी से विदुर। धृतराष्ट्र की पत्नि गांधारी से दुर्योधन आदि 100 पुत्र हुए। पांडु की पत्नी  कुंती से  युधिष्ठिर,  अर्जुन और भीम और माद्री से नकुल और सहदेव हुए। अर्जुन का पुत्र हुआ  अभिमन्यु  और  अभिमन्यु का हुआ  परीक्षित।  यह वही परीक्षित है जिसको यह सारी  भागवत कथा श्री शुकदेव जी ने सुनाई थी।
       दूसरा वंश उस समय चल रहा था मगध के राजा जरासंध का। उसकी कन्या का विवाह कंस के साथ हुआ था। वह बड़ा ही क्रूर शासक था।
       तीसरा वंश था यदु वंश। यह आगे कई वंशों में विभक्त हो गया। इसी वंश में रोमपाद का वंश चला जिसमें  शिशुपाल भी हुआ जिसका वध श्रीकृष्ण द्वारा किया गया था।
       इसी वंश के एक उप वंश  में एक  राजा हुए उग्रसेन। उस का पुत्र हुआ कंस जो श्री कृष्ण का मामा था।
       उग्रसेन के भाई देवक की देवकी  समेत आठ पुत्रियां हुईं। इन सभी का विवाह श्रीकृष्ण जी के  पिता  वसुदेव जी से हुआ था।
       देवमीढ़ के पुत्र हुए शूरसेन। शूरसेन के वासुदेव समेत दस पुत्र हुए। शूरसेन की 6 पुत्रियां भी हुईं थीं,  जिनमें से एक कुंती नामक कन्या उसने अपने मित्र राजा कुंती भोज को गोद दे दी। यह वही कुंती है जो श्रीकृष्ण जी  की बुआ थीं और पांडवों की माता। शूरसेन  की  एक पुत्री  का विवाह चेदी राज दमघोश से हुआ और इसका पुत्र हुआ शिशुपाल  जिसका  वध श्रीकृष्ण ने किया था। शूरसेन की एक  पुत्री थी  श्रुतदेवा,  उसका  विवाह हुआ करूष देश के वृद्ध शर्मा के साथ। उसका एक  पुत्र  हुआ दंतवक्र। इसका वध भी  श्रीकृष्ण  द्वारा ही हुआ  था। ये  दोनों दंतवक्र और शिशुपाल उन्हीं जय और विजय का तीसरा जन्म हुआ था जिनको ऋषियों ने श्राप  देकर राक्षस  बना दिया था। इनका पहला जन्म हिरण्याक्ष तथा हिरण्यकशिपु, दूसरा रावण तथा कुंभकर्ण और तीसरा दंतवक्र  और  शिशुपाल  के रूप में हुआ।
        देवकी और  वसुदेव  जी के आठ  पुत्र  हुए:-  कीर्तिमान, सुषेण, भद्र सेन,  रिजू,  समर्दन,  भद्र, बलराम  और श्रीकृष्ण। एक पुत्री भी हुई जिसका नाम सुभद्रा था।
        उस समय जब श्रीकृष्ण जी  का  प्राकट्य  हुआ था, तब ज्यादातर राजा बहुत ही क्रूर थे। उनमें से  कंस  बहुत ही  क्रूर  और निर्दई था। उसे जरासंध की सहायता भी प्राप्त थी। उसके दूसरे साथी थे, प्रलंबसुर, बकासुर,  चाणूर, तृणावर्त,  अघासुर, मुष्टिक, अरिष्टासुर, द्विविद,  पूतना,  केशी और  धेनुक।  इनके इलावा बाणासुर और भौमासुर दो दैत्य भी उसके मित्र थे। वह इन सभी की सहायता से  यदुवंशियों  को  नष्ट  करने  में  लगा हुआ था। वे लोग भयभीत होकर कुरु, पांचाल, कैकैय, शालव, विधर्भ, निषध, विदेह और कौशल आदि राज्यों में जा कर बस गए। कुछ लोग इसके साथ होने का दिखावा करके यहीं इसके साथ ही रह गए।  प्रजा त्राहि त्राहि कर रही थी।
       शुकदेव जी राजा परीक्षित को कथा सुनाते  हुए  कहते हैं कि उस समय लाखों दैत्यों के दल ने घमंडी राजाओं  का  रूप धारण कर लिया। पृथ्वी के लिए भी पाप का बोझ सहन करना असम्भव सा प्रतीत हो रहा था। वो ब्रह्मा जी की शरण में  गई। ब्रह्मा जी, शंकर जी, सभी देवता और पृथ्वी क्षीर सागर के तट पर गए। भगवान  द्वारा  आकाशवाणी  हुई  कि, " मैं  शीघ्र  ही वसुदेव  के  पुत्र  के रूप  में  अवतार ले  रहा  हूं।  हे  देवताओं तुम भी जाकर यादव कुल में  शरीर ग्रहण करो  ताकि तुम मेरी लीलाओं में सहयोग कर सको। देवांगनाएं  भी पृथ्वी पर  शरीर ग्रहण करें। शेषनाग  जी भी मेरे  से  पहले  ही मेरे बड़े भाई के रूप में अवतार ले लेंगे।  योग माया  भी  अंश रूप  में  अवतार लेंगी।"
                         देवकी वसुदेव विवाह
        उधर जब वसुदेव जी का विवाह देवकी से  हुआ और वो घर जाने लगे तो देवकी का भाई  कंस स्वयं  ही रथ  चलने  के लिए रथ पर बैठ गया और घोड़ों की रास  हाथ में  पकड़  ली। उसी समय आकाशवाणी हुई," अरे मूर्ख,  जिसे  तू रथ में बैठा कर  लेजा  रहा है,  उसी के  आठवें  गर्भ की संतान  तुझे  मार डालेगी।" आकाशवाणी  सुनते  ही  कंस  ने तलवार खींच ली। जब चोटी से पकड़ कर देवकी को मारने लगा तो वसुदेव जी ने उसे बहुत समझाया। परंतु उसकी समझ  में  कुछ  नहीं आया। वसुदेव को सत्यवादी माना जाता था।  उसने कंस को कहा कि वो चिंता ना करे, देवकी को छोड़ दे।  जब भी देवकी  की कोई संतान होगी वह स्वयं  ही लाकर उसे सौंप देगा। वसुदेव जी के सत्यवादी होने के कारण सभी  उसकी  बात का  पूर्ण  विश्वास करते थे। इस लिए कंस ने भी  विश्वास किया  और  उसे  छोड़ दिया।
       जब उनका पहला बालक हुआ तो वसुदेव  ने लाकर कंस को सौंप दिया। कंस ने उसे बालक वापिस कर दिया और कहा कि उसे तो केवल देवकी की आठवीं संतान से  मतलब है। इस लिए वो बालक को वापिस ले जाए।  तभी  वहां  पर नारद जी आए और उन्होंने कंस को समझाया कि जब आठ बालक होंगे तो उनमें से कोई भी  पहला और  कोई भी आठवां  हो  सकता है। उन्होंने यह भी बताया कि देवताओं ने भी अनेकों  रूपों  में यहां जन्म लिए हैं।  कंस  को  यह  तो  ज्ञात  ही था कि पिछले जन्म में जब वो कालनेमी राक्षस था, उस समय भी विष्णु  जी ने ही उसे मारा था। नारद जी की बातें सुन कर कंस ने  वसुदेव और देवकी को बुलाकर वापिस कारागार में  डाल  दिया  और उस बच्चे को मार  दिया। तब कंस ने अपने  पिता  उग्रसेन को भी कारागार में बंद कर दिया और स्वयं राजा बन गया।
                          जय श्री कृष्ण जी की
       
       

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