श्रीकृष्ण बलराम शिक्षा ग्रहण
वसुदेव जी ने अपने पुरोहित श्री गर्गाचार्य जी से दोनों पुत्रों का विधिवत यज्ञोपवीत संस्कार करवाया। उसके बाद उनको गुरुकुल में निवास करने के लिए काष्यपगोत्री संदीपनी मुनि के पास भेजा जो आवंतिपुर (उज्जैन) में रहते थे। उन्होंने अपने गुरुजी से केवल 64 दिन रात में पूरी की पूरी 64 कलाएं जैसे गान, वाद्य, नाट्य, चित्रकारी आदि सीख लीं। अपने गुरु द्वारा बताई गई गुरु दक्षिणा देने के उपरांत वापिस मथुरा आ गए।
उद्धव जी की व्रज यात्रा
उद्धव जी वृष्णिवंशियों में एक प्रधान पुरुष थे और साक्षात
बृहस्पति जी के शिष्य एवं परम बुद्धिमान थे। वह श्रीकृष्ण जी के प्यारे भक्त, सखा, एकान्त प्रेमी एवं मंत्री थे। वह बहुत बड़े तत्व ज्ञानी और बुद्धिमान थे।
एक दिन श्रीकृष्ण जी वृंदावन की ओर मुख करके उदास मुद्रा में ऐसे बैठे हुए थे जैसे उनको वृंदावन की गोधूलि का वो समय याद आ रहा हो जब वो शाम के समय गायों को चरा कर वापिस घर आते थे। गांव की सभी ग्वालिनें और घर में उनकी माता यशोदा उनका इंतजार कर रही होती थीं। भगवान प्रेम के वशीभूत होकर उन सभी लोगों को स्मरण कर रहे थे। उसी समय उधव जी का आना हुआ। उन्होंने जब भगवान से उदासी का कारण पूछा तो श्रीकृष्ण जी ने उनको गोपियों और उनके माता पिता के प्रेम और विरह के बारे में बताया और कहा कि," मित्र व्रज जाओ, मेरे माता पिता को आनंदित करो और गोपियों की विरह व्याधि मेरा संदेश सुनाकर दूर करो।"
उद्धव जी तो पूर्ण ज्ञानी थे। उनको प्रेम का क्या पता था। वो तो यह समझ रहे थे कि बेचारी गोपियों को ज्ञान की परम आवश्यकता है। परंतु भगवान उद्धव जी को सच्चे प्रेम का पाठ पढ़ाना चाहते थे। वो उनके ज्ञान का अभिमान भी दूर करना चाहते थे। उद्धव जी ने कहा कि," मैं अभी जाता हूँ और उनको तत्व ज्ञान देकर उनकी विरह वेदना को समाप्त कर के शीघ्र वापिस आता हूँ। आप मुझे वहां जाने की आज्ञा दें।"
रथ पर सवार होकर उद्धव जी नंद गांव की ओर चल पड़े। जब वहां पहुंचे तो सूर्यास्त का समय था। गौएं लौट रही थीं। गोधूलि उड़ रही थी। घर घर में गाएं दुही जाने लगी थीं। गोप श्रीकृष्ण जी की लीलाएं गा रहे थे।
उद्धव जी सीधे नंद बाबा के घर गए। नंद बाबा उन्हें मिल कर बड़े प्रसन्न हुए। उनका स्वागत सत्कार किया गया और खाना खिलाने के पश्चात कुशल क्षेम पूछी गई। नंद जी पूछ रहे थे कि क्या हमारा लाल हमें याद करता है या नहीं। स्वयं ही कान्हा की लीलाओं का वर्णन करने लगे। प्रेम और वात्सल्य भाव की बाढ़ सी आ गई। माता यशोदा की आंखों से लगातार आंसू बह रहे थे। उद्धव जी यह सब देख कर आनन्द मग्न हो गए। उन्होंने दोनों को समझाया कि श्रीकृष्ण, भगवान् हैं और सर्वव्यापक हैं। कई प्रकार से उनके बारे में बड़ी बड़ी बातें बताई गईं। परंतु नंद बाबा और यशोदा के मन में उनके लिए वही पुत्र भाव और वात्सल्य का समुद्र आंसुओं की धाराएं बन कर उनकी आंखों के रास्ते बह रहा है। उद्धव जी ने कहा कि थोड़े ही दिनों में भगवान श्रीकृष्ण जी आप को आनंदित करने आएंगे। बातें करते करते यूं ही रात बीत गई।
कुछ रात शेष रहने पर गोपियों ने उठ कर दीपक जलाए, वास्तुदेवता का पूजन कर सफाई करी और दही मथा। सभी गोपियां यह सारा काम करती हुई साथ साथ श्री कृष्ण जी की लीलाओं को याद कर रही थीं।
जैसे ही सूर्य उदय हुआ, उन्हें नंद जी के द्वार पर एक सोने का रथ दिखाई दिया। किसी ने कहा कहीं फिर से अक्रूर तो नहीं आ गया। दूसरी ने कहा अब क्या लेने आया है। तीसरी ने कहा अब क्या हमें लेजाकर कंस का पिंड दान करवाएगा। वो यह बातें कर ही रही थीं कि उद्धव जी नित्य क्रिया से निवृत्त हो कर उधर आ पहुंचे।
उद्धव और गोपियों की बातचीत
और भ्रमर गीत
गोपियां सोच रही थीं कि यह श्रीकृष्ण जी जैसी आकृति वाला व्यक्ति कौन है। जैसे ही उद्धव जी उनके पास आए तो वे उन्हें घेर कर खड़ी हो गईं। जब पता चला कि वो कृष्ण का संदेश लेकर आए हैं तब उन्होंने उनका अत्यन्त सत्कार किया। उन्होंने उनको आसन पर बैठाया और कहने लगीं:-
हम जानती हैं, हे यदुनाथ के पार्षद, आप श्याम सुंदर का संदेश लेकर पधारे हैं। उन्होंने माता यशोदा और पिता नंद जी को सुख देने के लिए आपको यहां भेजा है। परंतु हमारे साथ उनका प्रेम तो केवल स्वार्थ का ही था जैसे भौरों का पुष्पों से होता है। गोपियों के मन, वाणी और शरीर पूरी तरह श्रीकृष्ण में तल्लीन थे। वे श्रीकृष्ण की सारी लीलाओं का गान करने लगीं और फिर आत्मविस्मृत हो कर रोने लगीं। एक गोपी एक भौरे को गुन गुनाते हुए देख कर समझी कि जैसे श्रीकृष्ण ने ही उस भंवरे को उन्हें मनाने के लिए भेजा है। वो कहने लगीं कि तू भी तो कृष्ण जैसा ही कपटी है। उसने भी तो हमें छोड़ कर मथुरा वासियों से नेह लगा लिया है। परंतु यदि तू कहे कि हम उसकी चर्चा क्यों करते हैं, तो सुन हम सच कहती हैं कि एक बार जिसको उससे प्रेम हो जाए वह उसे छोड़ नहीं पाता। तूने कहना ही है तो कुछ और कह। अच्छा यह तो बता कि क्या वो कभी हम दासियों की भी बात करते हैं। क्या फिर से कोई ऐसा अवसर आएगा जब वो लौट कर हमारे पास आएंगे।
उनकी तड़प देख कर उद्धव जी ने श्रीकृष्ण जी का संदेश सुनाया। उन्होंने कहा कि मैं श्रीकृष्ण जी का संदेश लेकर ही तुम्हारे पास आया हूँ। भगवान ने तुम्हारे लिए कहा है कि,
"मुझसे तुम्हारा कभी वियोग नहीं हो सकता। जैसे सारे के सारे भौतिक पदार्थों में पञ्च भूत (आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी) व्याप्त हैं, वैसे ही मैं मन, प्राण, पञ्च भूत, इन्द्रियां और उनके विषयों का आश्रय हूँ। वे मुझमें हैं और मैं उनमें हूँ। मैं स्वयं ही उनका रूप होकर उनका आश्रय बन जाता हूँ। मैं नमित्त बन कर अपने आप को रचता हूँ, पालता हूँ और फिर समेट लेता हूँ। आत्मा माया और माया के कार्यों से प्रथक है। वह विशुद्ध, ज्ञान स्वरूप, जड़ प्रकृति, अनेक जीव तथा अपने ही अवांतर भेदों से रहित सर्वदा शुद्ध है। माया की कुल तीन वृत्तियां हैं:- सुषुप्ती, स्वपन और जागृत। इनके द्वारा वही अखंड अनन्त बोध स्वरूप आत्मा कभी प्राज्ञ, कभी तैजस और कभी विश्व रूप से प्रतीत होता है।
जागृत अवस्था में इन्द्रियों के विषय भी स्वपन की तरह ही मिथ्या होते हैं। इस लिए विषयों की बजाए मनुष्य को चाहिए कि वह मेरा साक्षात्कार करे।
मैं तुम से दूर इस लिए हूँ कि तुम निरंतर मेरा ध्यान कर सको। तुम लोग मेरा अनुस्मरण करोगी, तब शीघ्र ही सदा के लिए मुझे प्राप्त हो जाओगी।"
श्री शुकदेव जी कहते हैं कि यह सुनकर गोपियों को बड़ा आनंद हुआ। प्रेम से भरकर उन्होंने उद्धव जी से कहा,"यदु वंशियों को सताने वाला कंस मारा गया, अच्छा हुआ। परंतु क्या अब वो कभी हमारे पास आवेंगे? वैसे तो संसार में किसी से आशा ना रखना ही सब से बड़ा सुख है, परंतु यह जानते हुए भी हम कृष्ण के लौटने की आशा छोड़ने में असमर्थ हैं। यही आशा तो हमारा जीवन है। हम करें भी तो क्या करें। यहां के कण कण में हमें वही दिखाई देते हैं।
हे कृष्ण हमारे तो तुम ही व्रज नाथ हो। तुम ही हमारे सच्चे स्वामी हो। तुम्हारा यह सारा गोकुल जिसमें तुम्हारे माता पिता, ग्वाल बाल, गऊएं और गोपियां सभी हैं, दुःख के अपार सागर में डूब रहा है। तुम हमें बचाओ, आओ! हमारी रक्षा करो। हे गोविन्द हम डूब रही हैं, हमारी रक्षा करो।
श्री शुकदेव जी कहते हैं कि जब श्रीकृष्ण जी के संदेश के प्रभाव से विरह की व्यथा शांत हुई तो वे इन्द्र्यतीत भाग्वान श्री कृष्ण को अपने आत्मा के रूप में सर्वत्र स्थित समझ चुकी थीं। तब वे उद्धव जी का और भी सत्कार करने लगीं। उद्धव जी, जो कुछ समय के लिए संदेश देकर उन्हें शांत करने के भाव से आए थे, कई महीनों तक वहीं रहे। वे श्री कृष्ण जी की लीलाएं सुनाकर ब्रजवासियों को आनंदित करते रहते थे और श्रीकृष्ण द्वारा व्रज में की गई लीलाओं को सुन कर स्वयं भी आनंदित होते रहे।
एक दिन गोपियों का कृष्ण जी के प्रति प्रेम देखकर कहने लगे:-
शरीर धारण गोपियों का, सफल एवं श्रेष्ठ है।
प्रेम के इस भाव में ही, स्थित हो जाना श्रेष्ठ है।।
तप, तपस्या, यज्ञ का, अभिमान कोई ना करे।
गोपियों के प्रेम का, इक भाव उनसे श्रेष्ठ है।।
ज्ञान अमृत का ना हो, फिर भी अमर करता है वो।
सरल मन और भाव से, गोविंद भज ले श्रेष्ठ है।।
कथा, कीर्तन, भजन से ही, रास सुख मिलता सदा।
भाव भक्ति प्रेम से, गोपी हो जाना श्रेष्ठ है।।
मुझको भी, झाड़ी - लता, व्रज की बना देना प्रभु।
गोपियों की चरण धूलि, हर तरह से श्रेष्ठ है।।
वेद वाणी और श्रुतिएं, ढूंढती अब तक जिन्हें।
गोपियों ने पा लिया, पाने को को भी श्रेष्ठ है।।
गोपियों की चरण धूलि, को मेरा प्रणाम है।
कृष्ण लीला गान उनका, हर तरह से श्रेष्ठ है।।
इतना कहकर उद्धव जी सबसे आज्ञा लेने लगे। गोपियों ने संदेश दिया कि हमें अब मोक्ष नहीं चाहिए अपितु हमें जो भी जीवन मिले उसमें केवल और केवल श्रीकृष्ण में ही उत्तरोत्तर प्रीति बढ़ती रहे। सभी व्रज वासियों से विदा लेकर उद्धव जी ने मथुरा की ओर प्रस्थान किया। वहां पहुंचकर श्रीकृष्ण जी को प्रणाम किया और व्रज में जो देखा और समझा वह सारा कह सुनाया।
इस कथा को पढ़ने वा सुनने से साधक के मन में भक्ति का भाव और भी प्रगाढ़ हो जाता है।
जय श्रीकृष्ण जी की
वसुदेव जी ने अपने पुरोहित श्री गर्गाचार्य जी से दोनों पुत्रों का विधिवत यज्ञोपवीत संस्कार करवाया। उसके बाद उनको गुरुकुल में निवास करने के लिए काष्यपगोत्री संदीपनी मुनि के पास भेजा जो आवंतिपुर (उज्जैन) में रहते थे। उन्होंने अपने गुरुजी से केवल 64 दिन रात में पूरी की पूरी 64 कलाएं जैसे गान, वाद्य, नाट्य, चित्रकारी आदि सीख लीं। अपने गुरु द्वारा बताई गई गुरु दक्षिणा देने के उपरांत वापिस मथुरा आ गए।
उद्धव जी की व्रज यात्रा
उद्धव जी वृष्णिवंशियों में एक प्रधान पुरुष थे और साक्षात
बृहस्पति जी के शिष्य एवं परम बुद्धिमान थे। वह श्रीकृष्ण जी के प्यारे भक्त, सखा, एकान्त प्रेमी एवं मंत्री थे। वह बहुत बड़े तत्व ज्ञानी और बुद्धिमान थे।
एक दिन श्रीकृष्ण जी वृंदावन की ओर मुख करके उदास मुद्रा में ऐसे बैठे हुए थे जैसे उनको वृंदावन की गोधूलि का वो समय याद आ रहा हो जब वो शाम के समय गायों को चरा कर वापिस घर आते थे। गांव की सभी ग्वालिनें और घर में उनकी माता यशोदा उनका इंतजार कर रही होती थीं। भगवान प्रेम के वशीभूत होकर उन सभी लोगों को स्मरण कर रहे थे। उसी समय उधव जी का आना हुआ। उन्होंने जब भगवान से उदासी का कारण पूछा तो श्रीकृष्ण जी ने उनको गोपियों और उनके माता पिता के प्रेम और विरह के बारे में बताया और कहा कि," मित्र व्रज जाओ, मेरे माता पिता को आनंदित करो और गोपियों की विरह व्याधि मेरा संदेश सुनाकर दूर करो।"
उद्धव जी तो पूर्ण ज्ञानी थे। उनको प्रेम का क्या पता था। वो तो यह समझ रहे थे कि बेचारी गोपियों को ज्ञान की परम आवश्यकता है। परंतु भगवान उद्धव जी को सच्चे प्रेम का पाठ पढ़ाना चाहते थे। वो उनके ज्ञान का अभिमान भी दूर करना चाहते थे। उद्धव जी ने कहा कि," मैं अभी जाता हूँ और उनको तत्व ज्ञान देकर उनकी विरह वेदना को समाप्त कर के शीघ्र वापिस आता हूँ। आप मुझे वहां जाने की आज्ञा दें।"
रथ पर सवार होकर उद्धव जी नंद गांव की ओर चल पड़े। जब वहां पहुंचे तो सूर्यास्त का समय था। गौएं लौट रही थीं। गोधूलि उड़ रही थी। घर घर में गाएं दुही जाने लगी थीं। गोप श्रीकृष्ण जी की लीलाएं गा रहे थे।
उद्धव जी सीधे नंद बाबा के घर गए। नंद बाबा उन्हें मिल कर बड़े प्रसन्न हुए। उनका स्वागत सत्कार किया गया और खाना खिलाने के पश्चात कुशल क्षेम पूछी गई। नंद जी पूछ रहे थे कि क्या हमारा लाल हमें याद करता है या नहीं। स्वयं ही कान्हा की लीलाओं का वर्णन करने लगे। प्रेम और वात्सल्य भाव की बाढ़ सी आ गई। माता यशोदा की आंखों से लगातार आंसू बह रहे थे। उद्धव जी यह सब देख कर आनन्द मग्न हो गए। उन्होंने दोनों को समझाया कि श्रीकृष्ण, भगवान् हैं और सर्वव्यापक हैं। कई प्रकार से उनके बारे में बड़ी बड़ी बातें बताई गईं। परंतु नंद बाबा और यशोदा के मन में उनके लिए वही पुत्र भाव और वात्सल्य का समुद्र आंसुओं की धाराएं बन कर उनकी आंखों के रास्ते बह रहा है। उद्धव जी ने कहा कि थोड़े ही दिनों में भगवान श्रीकृष्ण जी आप को आनंदित करने आएंगे। बातें करते करते यूं ही रात बीत गई।
कुछ रात शेष रहने पर गोपियों ने उठ कर दीपक जलाए, वास्तुदेवता का पूजन कर सफाई करी और दही मथा। सभी गोपियां यह सारा काम करती हुई साथ साथ श्री कृष्ण जी की लीलाओं को याद कर रही थीं।
जैसे ही सूर्य उदय हुआ, उन्हें नंद जी के द्वार पर एक सोने का रथ दिखाई दिया। किसी ने कहा कहीं फिर से अक्रूर तो नहीं आ गया। दूसरी ने कहा अब क्या लेने आया है। तीसरी ने कहा अब क्या हमें लेजाकर कंस का पिंड दान करवाएगा। वो यह बातें कर ही रही थीं कि उद्धव जी नित्य क्रिया से निवृत्त हो कर उधर आ पहुंचे।
उद्धव और गोपियों की बातचीत
और भ्रमर गीत
गोपियां सोच रही थीं कि यह श्रीकृष्ण जी जैसी आकृति वाला व्यक्ति कौन है। जैसे ही उद्धव जी उनके पास आए तो वे उन्हें घेर कर खड़ी हो गईं। जब पता चला कि वो कृष्ण का संदेश लेकर आए हैं तब उन्होंने उनका अत्यन्त सत्कार किया। उन्होंने उनको आसन पर बैठाया और कहने लगीं:-
हम जानती हैं, हे यदुनाथ के पार्षद, आप श्याम सुंदर का संदेश लेकर पधारे हैं। उन्होंने माता यशोदा और पिता नंद जी को सुख देने के लिए आपको यहां भेजा है। परंतु हमारे साथ उनका प्रेम तो केवल स्वार्थ का ही था जैसे भौरों का पुष्पों से होता है। गोपियों के मन, वाणी और शरीर पूरी तरह श्रीकृष्ण में तल्लीन थे। वे श्रीकृष्ण की सारी लीलाओं का गान करने लगीं और फिर आत्मविस्मृत हो कर रोने लगीं। एक गोपी एक भौरे को गुन गुनाते हुए देख कर समझी कि जैसे श्रीकृष्ण ने ही उस भंवरे को उन्हें मनाने के लिए भेजा है। वो कहने लगीं कि तू भी तो कृष्ण जैसा ही कपटी है। उसने भी तो हमें छोड़ कर मथुरा वासियों से नेह लगा लिया है। परंतु यदि तू कहे कि हम उसकी चर्चा क्यों करते हैं, तो सुन हम सच कहती हैं कि एक बार जिसको उससे प्रेम हो जाए वह उसे छोड़ नहीं पाता। तूने कहना ही है तो कुछ और कह। अच्छा यह तो बता कि क्या वो कभी हम दासियों की भी बात करते हैं। क्या फिर से कोई ऐसा अवसर आएगा जब वो लौट कर हमारे पास आएंगे।
उनकी तड़प देख कर उद्धव जी ने श्रीकृष्ण जी का संदेश सुनाया। उन्होंने कहा कि मैं श्रीकृष्ण जी का संदेश लेकर ही तुम्हारे पास आया हूँ। भगवान ने तुम्हारे लिए कहा है कि,
"मुझसे तुम्हारा कभी वियोग नहीं हो सकता। जैसे सारे के सारे भौतिक पदार्थों में पञ्च भूत (आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी) व्याप्त हैं, वैसे ही मैं मन, प्राण, पञ्च भूत, इन्द्रियां और उनके विषयों का आश्रय हूँ। वे मुझमें हैं और मैं उनमें हूँ। मैं स्वयं ही उनका रूप होकर उनका आश्रय बन जाता हूँ। मैं नमित्त बन कर अपने आप को रचता हूँ, पालता हूँ और फिर समेट लेता हूँ। आत्मा माया और माया के कार्यों से प्रथक है। वह विशुद्ध, ज्ञान स्वरूप, जड़ प्रकृति, अनेक जीव तथा अपने ही अवांतर भेदों से रहित सर्वदा शुद्ध है। माया की कुल तीन वृत्तियां हैं:- सुषुप्ती, स्वपन और जागृत। इनके द्वारा वही अखंड अनन्त बोध स्वरूप आत्मा कभी प्राज्ञ, कभी तैजस और कभी विश्व रूप से प्रतीत होता है।
जागृत अवस्था में इन्द्रियों के विषय भी स्वपन की तरह ही मिथ्या होते हैं। इस लिए विषयों की बजाए मनुष्य को चाहिए कि वह मेरा साक्षात्कार करे।
मैं तुम से दूर इस लिए हूँ कि तुम निरंतर मेरा ध्यान कर सको। तुम लोग मेरा अनुस्मरण करोगी, तब शीघ्र ही सदा के लिए मुझे प्राप्त हो जाओगी।"
श्री शुकदेव जी कहते हैं कि यह सुनकर गोपियों को बड़ा आनंद हुआ। प्रेम से भरकर उन्होंने उद्धव जी से कहा,"यदु वंशियों को सताने वाला कंस मारा गया, अच्छा हुआ। परंतु क्या अब वो कभी हमारे पास आवेंगे? वैसे तो संसार में किसी से आशा ना रखना ही सब से बड़ा सुख है, परंतु यह जानते हुए भी हम कृष्ण के लौटने की आशा छोड़ने में असमर्थ हैं। यही आशा तो हमारा जीवन है। हम करें भी तो क्या करें। यहां के कण कण में हमें वही दिखाई देते हैं।
हे कृष्ण हमारे तो तुम ही व्रज नाथ हो। तुम ही हमारे सच्चे स्वामी हो। तुम्हारा यह सारा गोकुल जिसमें तुम्हारे माता पिता, ग्वाल बाल, गऊएं और गोपियां सभी हैं, दुःख के अपार सागर में डूब रहा है। तुम हमें बचाओ, आओ! हमारी रक्षा करो। हे गोविन्द हम डूब रही हैं, हमारी रक्षा करो।
श्री शुकदेव जी कहते हैं कि जब श्रीकृष्ण जी के संदेश के प्रभाव से विरह की व्यथा शांत हुई तो वे इन्द्र्यतीत भाग्वान श्री कृष्ण को अपने आत्मा के रूप में सर्वत्र स्थित समझ चुकी थीं। तब वे उद्धव जी का और भी सत्कार करने लगीं। उद्धव जी, जो कुछ समय के लिए संदेश देकर उन्हें शांत करने के भाव से आए थे, कई महीनों तक वहीं रहे। वे श्री कृष्ण जी की लीलाएं सुनाकर ब्रजवासियों को आनंदित करते रहते थे और श्रीकृष्ण द्वारा व्रज में की गई लीलाओं को सुन कर स्वयं भी आनंदित होते रहे।
एक दिन गोपियों का कृष्ण जी के प्रति प्रेम देखकर कहने लगे:-
शरीर धारण गोपियों का, सफल एवं श्रेष्ठ है।
प्रेम के इस भाव में ही, स्थित हो जाना श्रेष्ठ है।।
तप, तपस्या, यज्ञ का, अभिमान कोई ना करे।
गोपियों के प्रेम का, इक भाव उनसे श्रेष्ठ है।।
ज्ञान अमृत का ना हो, फिर भी अमर करता है वो।
सरल मन और भाव से, गोविंद भज ले श्रेष्ठ है।।
कथा, कीर्तन, भजन से ही, रास सुख मिलता सदा।
भाव भक्ति प्रेम से, गोपी हो जाना श्रेष्ठ है।।
मुझको भी, झाड़ी - लता, व्रज की बना देना प्रभु।
गोपियों की चरण धूलि, हर तरह से श्रेष्ठ है।।
वेद वाणी और श्रुतिएं, ढूंढती अब तक जिन्हें।
गोपियों ने पा लिया, पाने को को भी श्रेष्ठ है।।
गोपियों की चरण धूलि, को मेरा प्रणाम है।
कृष्ण लीला गान उनका, हर तरह से श्रेष्ठ है।।
इतना कहकर उद्धव जी सबसे आज्ञा लेने लगे। गोपियों ने संदेश दिया कि हमें अब मोक्ष नहीं चाहिए अपितु हमें जो भी जीवन मिले उसमें केवल और केवल श्रीकृष्ण में ही उत्तरोत्तर प्रीति बढ़ती रहे। सभी व्रज वासियों से विदा लेकर उद्धव जी ने मथुरा की ओर प्रस्थान किया। वहां पहुंचकर श्रीकृष्ण जी को प्रणाम किया और व्रज में जो देखा और समझा वह सारा कह सुनाया।
इस कथा को पढ़ने वा सुनने से साधक के मन में भक्ति का भाव और भी प्रगाढ़ हो जाता है।
जय श्रीकृष्ण जी की
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