गुरुवार, 19 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवत महापुराण लेख संख्या 31(कुछ और लीलाएं)

                              सुदर्शन उद्धार
    एक बार नंद बाबा ने शिवरात्रि के अवसर पर दूसरे गाेपों के साथ अंब्रिकावन की यात्रा की। शंकर  जी  के पूजन के बाद वे सब सरस्वती नदी के किनारे ही सो  गए। वहां  पर  एक  बहुत भारी अजगर था। उसने नंद जी को पकड़ लिया। सभी  ने  नंद जी को छुड़ाने की कोशिश की। परंतु अजगर  उन्हें  नहीं  छोड़ रहा था। जब श्रीकृष्ण जी को  पता  चला  तो  वे  उसी  समय  उनको छुड़ाने के लिए उस स्थान पर  पहुंच  गए।  उन्होंने जैसे ही अजगर को अपने पांव से छुआ, वैसे ही उसने  अजगर  का शरीर त्याग दिया और एक सुंदर गंधर्व का रूप ले लिया। उसने श्रीकृष्ण को प्रणाम किया और बताया कि बहुत  सुंदर  होने के कारण उसे अभिमान हो गया था। अभिमान वश उसने अंगिरा वंश के ऋषियों का अपमान कर दिया। इस कारण उन्होंंने उसे अजगर हो जाने का श्राप दे दिया। आज श्रीकृष्ण जी ने अपने पांव  से छूकर  उद्धार  कर  दिया। आज्ञा  लेकर  उसने  अपने लोक को प्रस्थान किया।
                           शंखचूड़ का उद्धार
     एक बार कुबेर का एक यक्ष गोपियों को चुरा कर  ले गया। जब उसका पीछा किया तो  वो  डर  कर  उन्हें  वहीं  छोड़ कर भाग गया। बलराम जी तो  गोपियों के  पास  उनकी  सुरक्षा के लिए रहे परंतु श्रीकृष्ण जी ने उसका पीछा  किया। उसे  पकड़ कर उसके सिर पर एक घूंसा मारा और उसे मार दिया। उसके सिर से उसकी चूड़ामणि भी निकाल ली।
                               युगलगीत
    बाल श्रीकृष्ण इतने प्यारे हैं कि  व्रज  का  हर  प्राणी  केवल उनका ही चिंतन करता है। जब  वो  गायों  को  चराने  के लिए निकल जाते हैं तो  गोपियों  के  चित  भी  उनके  साथ ही चले जाते  हैं  और  वे  वाणी से उनकी लीलाओं का गुणगान करती रहती हैं।  संतों  का  कहना  है  कि  एक  साधक  की भी यही स्थिति होनी चाहिए।
    गोपियां  कहती हैं कि  श्याम सुंदर द्वेष करने वालों तक को भी मोक्ष प्रदान कर देते हैं। वे उनकी  बांसुरी  की तान, सौंदर्य, हंसी, मधुरता और चातुर्य की प्रशंसा करती हैं। वे कहती हैं कि उनके चरण कमलों में ध्वजा, वज्र, कमल एवं अंकुश आदि के विचित्र और सुंदर चिन्ह हैं। उनके गले में मनियों  की  माला है, तुलसी की सुगंध उन्हें बहुत प्रिय है। उनको  गायों  से  भी बड़ा प्रेम है।  इस  प्रकार  आपस में बाल श्रीकृष्ण जी  की  ही  बातें सारा दिन करती हैं।  जब  श्रीकृष्ण  लौट कर आते हैं तो उनमें रम जाती हैं।
    यहां पर साधकों के लिए यही है कि जैसे गोपियां सारे कार्य करती हुई हर समय  केवल  श्रीकृष्ण जी का ही  चिंतन करती हैं, उसी तरह साधक को भी करना चाहिए।  भगवान के विग्रह के एक एक अंग का ध्यान करते हुए, जब यह स्थिति बन जाए कि भगवान  के  पूर्ण  विग्रह  के  दर्शन  होने लगें, तो उनमें रम जाए।
                         अरिष्टासुर का उद्धार
    एक दिन व्रज में आनंद उत्सव की धूम मची  हुई  थी।  उसी समय अरिश्टासुर नामक  एक दैत्य  बैल का रूप धारण करके आया। उसका ककुद (कन्धे का पट्ठा) और डील डाल बहुत ही बड़े बड़े थे। वह अपने खुरों को इतने ज़ोर से पटक रहा था कि उससे धरती कांप रही थी।  वह  ज़ोर ज़ोर  से  गर्जना कर रहा था, धूल उड़ा रहा था, पूंछ  खड़ी  करके  सींग  से  दीवारें तोड़ रहा था और इधर उधर दौड़ रहा था। सभी  उससे  डर  रहे थे। श्रीकृष्ण ने उसकी ओर देखा और ललकारा।  वह श्रीकृष्ण की ओर दौड़ा। श्रीकृष्ण ने दोनों हाथों से उसके दोनों सींग  पकड़  लिए और उसे  अठारह  पग  पीछे  धकेल कर गिरा दिया। वह फिर से खड़ा हुआ तो फिर से  उसके  सींग  पकड़े  और  लात मार कर गिरा दिया। अपने छोटे छोटे पैरों  से  दबाकर  उसका कचूमर निकाल दिया। उसके सींग को खींच कर बाहर निकाल लिया और उसी से उसको इतना मारा कि उसके  प्राण  निकल गए।
             कंस द्वारा अक्रूर जी को व्रज में भेजना
    एक दिन नारद जी कंस के पास गए और  उसे  बताया कि  व्रज में जो कृष्ण है वो देवकी का और बलराम रोहणी का पुत्र है। इतना सुनते ही कंस आग बबूला हो गया और  उसने उसी समय देवकी ओर वसुदेव को, जिन्हें पहले छोड़ दिया था, फिर से कारागार में डाल दिया। पहले तो उसने वसुदेव को मारने के लिए तलवार उठा ली थी, परंतु नारद जी ने उसे ऐसा करने से  रोक दिया। नारद जी के चले जाने के बाद  कंस  ने  केशी  को बुलाकर कृष्ण और बलराम को मारने  के  लिए  भेजा।  उसके बाद उसने मुष्टिक, चाणूर, शल और  तोशल  आदि  पहलवानों एवं मंत्रियों को बुलाकर कहा कि कृष्ण और बलराम को  यहां बुलाया जा रहा है।  जब  वो  यहां  आएं  तब  तुम  उन्हें कुश्ती लड़ने के बहाने ही मार देना। अब तुम भांति भांति के मंच और अखाड़े तैयार करवाओ ताकि लोग  आकर  दंगल  देख  सकें। महावत को कहा कि तुम फाटक पर हाथी को रखना। जब वो आएं तो उन्हें हाथी से ही  कुचलवा  कर  मरवा  डालना।  इसी चतुर्दशी को विधिपूर्वक धनुष यज्ञ प्रारम्भ कर दो और उसकी सफलता के लिए वरदानी भूतनाथ  भैरव  को  बहुत से  पवित्र पशुओं की बलि चढ़ाओ।
     तब कंस ने  श्रेष्ठ  यदुवंशी  योद्धा  अक्रूर  जी को  बुलवाया और उनका हाथ अपने हाथ में लेकर बोला," अक्रूर  जी  आप तो बड़े दानी हैं और सब तरह से मेरे आदरणीय हैं।  आप  मेरा एक मित्तरोचित कार्य कर दीजिए।  यदुवंशियों में आप से बड़ा और कोई नहीं है। मैंने केवल आपका ही आश्रय लिया है।आप एक सुंदर रथ लेकर नंद के व्रज  में  जाइए  और  उसी  रथ  में वसुदेव के दोनों पुत्रों को लेकर आइए। अक्रूर जी  ने  कंस  को समझाया कि यह आपके लिए गलत  भी  हो  सकता है।  परंतु कंस अपनी बात पर अड़ा रहा। अंत में अक्रूर जी अगली सुबह व्रज में जाने के लिए अपने घर को चले गए।
                         केशी का उद्धार
     केशी एक बहुत बड़े घोड़े का रूप बनाकर  मन की गति से दौड़ता हुआ व्रज में आया।  सभी  लोग  भय  से  कांप  रहे थे। तभी कृष्ण जी ने सामने से आकर उसे ललकारा। वह और भी चिढ़ गया। उसने कृष्ण के पास आकर ज़ोर से दुलात्ती  झाड़ी। तब भगवान ने दोनों हाथों से  उसके  पिछले  पैर  पकड़  लिए और घुमाकर चार सौ हाथ की दूरी पर  फैंक  दिया।  वह  फिर झपटा तो भगवान ने अपना  बायां  हाथ  उसके  मुंह  में  डाल दिया। केशी के दांत  टूट टूट  कर  गिर  गए।  हाथ (भुजदण्ड) उसके मुंह में बढ़ने लगा। सांस रुकने  से  उसका  दम  घुट रहा था। वह ज़ोर ज़ोर से पैर पटकने लगा। वह  पसीने  से लथपथ हो गया, आंखों की पुतलियां  उल्टी  हो  गईं, निष्चेष्ट  हो  गया और देखते ही देखते उसके प्राण  पंखेरु  उड़  गए।  भगवान ने अपनी भुजा खींच ली। यह सब देख कर आकाश में देवता भी आश्चर्यचकित हो गए और पुष्प वर्षा करने लगे।
                           व्योमासुर उद्धार
     एक समय श्रीकृष्ण पहाड़ की चोटियों पर  गायों  को  चरा रहे थे। ग्वालों के साथ छुपा छुपी भी खेल रहे  थे।  कुछ  ग्वाले चोर और कुछ ग्वाले रक्षक बने हुए थे। ग्वाले का वेश बना कर व्योमासुर भी वहां आ गया। वह मायासुर का पुत्र था।  वह  भी चोर बनकर ग्वालों को चुरा कर ले जाता और दूर एक गुफा  में छुपाकर पत्थर से गुफ़ा का दरवाजा बंद कर आता। जब  थोड़े से ग्वाले रह गए तो भगवान ने  उसे  पकड़  लिया।  वह  बहुत बलि था। उसने अपना पहाड़ सा शरीर बना लिया  परंतु अपने आप को छुड़ा नहीं पाया। भगवान  ने  उसे  भूमि  पर  गिराया और उसका गला दबाकर उसे मार डाला और  ग्वालों  को  भी गुफ़ा से बाहर निकाला।
     अगले लेख में अक्रूर जी की व्रज यात्रा  और  श्रीकृष्ण  जी के मथुरा गमन बारे लिखा जाएगा
                     जय श्रीकृष्ण जी की

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