मंगलवार, 24 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवत महापुराण लेख संख्या 34(द्वारिका गमन एवं श्रीकृष्ण रुक्मिणी विवाह)

                          जरासंध से युद्ध
     कंस की दो रानियां अस्ति और प्राप्ति, कंस की  मृत्यु  होने के पश्चात अपने पिता मगध राज जरासंध के  पास  चली  गईं। क्रोध में राजा जरासंध ने 23 अक्षोहिनी  सेना  लेकर मथुरा को घेर लिया। उधर भगवान की आज्ञा से प्रेरित होकर  आकाश से सूर्य के समान चमकते हुए  दो  रथ, युद्ध  की  सारी  सामग्रियों और सार्थिओं समेत, आ पहुंचे।  भगवान  के  सारे  दिव्य और सनातन आयुध भी अपने आप वहां आकर  उपस्थित  हो गए। अब दोनों भाइयों  ने कवच  धारण  किए।  वे  छोटी  सी  सेना लेकर मथुरा से निकले। दारुक भगवान कृष्ण  का  सारथी था। तब भगवान ने  अपना पांचजन्य शंख बजाया।  शंख की ध्वनि ने शत्रु को डरा दिया। भगवान ने शारंग धनुष का टंकार किया।
तरकश में से बाण निकाल  कर, उन्हें धनुष पर  चढ़ाकर,  झुंड के झुंड बाण छोड़ते हुए जरासंध की चतुरंगिनी सेना का संहार करने लगे। बलराम जी  ने अपने मूसल की चोट  से  बहुतों को मार दिया। दोनों भाइयों ने थोड़े ही समय में शत्रु  सेना  को नष्ट कर डाला। जरासंध को मारा नहीं अपितु  एक  दीन  कि भांति छोड़ दिया। इससे उसे बहुत लज्जा हुई और  उसने  सब  कुछ छोड़ कर तपस्या करने की सोची।  परंतु  दूसरों के  बहकावे में आकर तपस्या करने का विचार छोड़ कर  वापिस  मगध  चला गया। इधर मथुरा में विजय उत्सव मनाया गया।
     उधर जरासंध ने दोबारा  से नई सेना तैयार  की  और  फिर उसी तरह आक्रमण किया  जिसका परिणाम  भी  पहले वाला ही  निकला।  इस  तरह  17 बार  23 अक्षौहिणी  सेना  लेकर जरासंध ने आक्रमण किया और हर बार सारी की  सारी  सेना का संहार भगवान द्वारा किया गया  परंतु हर बार  जरासंध को छोड़ दिया। ऐसा बताया गया है कि भगवान उसको  इस  लिए छोड़ देते थे ताकि वो बार बार पापियों की सेना इकट्ठी  कर के लाए और उन सभी पापियों को समाप्त किया जा सके जिसके लिए भगवान ने अवतार लिया था।
                    काल्यवन का भस्म होना
     जब अठहरवां संग्राम छिड़ने वाला था, तभी  नारद  जी की प्रेरणा से एक बहुत शक्तिशाली  योद्धा  काल्यवन  जिसका पूरे संसार में कोई मुकाबला नहीं कर सकता था, वह  तीन  करोड़ मलेछों की सेना लेकर मथुरा को घेरने आ गया।  दोनों  भाईयों ने यह सोच कर कि दो दो शत्रु इकट्ठे आक्रमण कर  रहे हैं, वहां से अपनी प्रजा को कहीं दूर सुरक्षित  स्थान पर ले जाने को  ही उचित माना। इसी उद्देश्य से विश्वकर्मा जी को कह कर  उन्होंने द्वारिका पुरी का निर्माण  करवाया।  सारे  सगे  संबंधियों  और प्रजा को पहले ही द्वारिका पुरी  में  भेज दिया।  उनकी  सुरक्षा का उत्तरदायित्व बलराम जी को सौंप कर काल्यवन द्वारा युद्ध के लिए ललकारने पर भगवान स्वयं गले में कमलों  की  माला पहने हुए, बिना  कोई  अस्त्र  शस्त्र  धारण  किए  नगर  के बड़े दरवाजे से बाहर निकल आए। काल्यवन  ने पहचान लिया कि यही कृष्ण है और निश्चय किया कि यदि  यह बिना  अस्त्र शस्त्र के पैदल ही आ रहा है तो वह भी बिना अस्त्र शस्त्र के पैदल ही मुकाबला करेगा। जब वह कृष्ण  की ओर  दौड़ा  तो  श्रीकृष्ण दूसरी ओर मुख करके दौड़ पड़े।  उसने सोचा कि श्रीकृष्ण डर कर भाग रहे हैं। वह चिल्लाता हुआ और  युद्ध कर - युद्ध कर कहता हुआ श्रीकृष्ण जी के पीछे पीछे दौड़ा।  श्रीकृष्ण भागते भागते उसे एक पहाड़ी की गुफ़ा में ले गए।  वह समझ रहा था कि कृष्ण डर कर छिपे हुए हैं। अंदर जाकर उसने  एक  व्यक्ति को सोता हुआ  देखा  जिसके  ऊपर  भगवान ने  अपना  वस्त्र डाल  दिया था। उसने सोचा कि यही कृष्ण है। उसने  उसे  यह कहते हुए कि " अरे कृष्ण,  तू डर कर भाग  रहा  था और अब यहां आकार सोने का बहाना कर रहा है। तू जानता  है  कि  मैं सोए हुए शत्रु पर  वार  नहीं  करता।  उठ और  मेरे  साथ  युद्ध कर।" ज़ोर ज़ोर से उस व्यक्ति को हिला कर  जगा  दिया। जैसे ही उस व्यक्ति ने उठ कर उसकी और देखा वैसे ही  काल्यवन  जल कर भस्म हो गया।
                            मुचकुंद की कथा
     परीक्षित जी के पूछने पर कि वह व्यक्ति कौन था,  शुकदेव जी ने बताया कि वह इक्ष्वाकु वंशी महाराजा मान्धाता  का पुत्र मुचकुंद था। एक बार जब  उन्होंने बहुत  समय तक राक्षसों से देवताओं की रक्षा  की  थी।  जब  कार्तिकेय  जी  देवताओं  के सेनापति  बन गए तो देवता  सुरक्षित  हो गए। तब देवताओं ने राजा को पुरस्कार  स्वरूप  कोई  वर  मांगने  को  कहा।  राजा ने कहा कि मैं युद्ध करता करता बहुत  थक गया हूँ।  इस लिए मुझे देर तक सोते रहने का वरदान दो। देवताओं ने कहा जाओ किसी सुरक्षित स्थान पर जाकर सो जाओ।  जो कोई  भी तुम्हें जगाएगा वह तुम्हारी दृष्टि उस पर पड़ते ही भस्म  हो  जाएगा। तब से वह राजा  उसी  गुफ़ा  में  सोया  हुआ था। काल्यवन के भस्म हो जाने के बाद श्रीकृष्ण जी ने प्रकट होकर मुचकुंद जी  को दर्शन दिए और  अगले  जन्म  में  मोक्ष  का  वरदान  देकर तपस्या करने भेज दिया।
                          श्रीकृष्ण द्वारिका गमन
     काल्यवन के भस्म हो जाने के बाद  श्रीकृष्ण  मथुरा  लौटे। काल्यवन की सेना का संहार किया और उनका सारा धन छीन कर द्वारिका लौट चले। उसी समय जरासंध  ने  अठाहरवीं बार आक्रमण कर दिया। श्रीकृष्ण पैदल ही भागे जैसे  डर  गए हों। भागते हुए वे प्रवर्षण पर्वत पर चढ़ गए। उस पर्वत को जरासंध ने आग लगा दी। वहां से भी दोनों भाई भाग निकले  और फिर द्वारिका पहुंच गए। जरासंध ने सोचा कि वे आग  में  जल  कर भस्म हो गए हैं। ऐसा सोच कर वो वापिस मगध चला गया।
                         बलराम रेवती विवाह
     पूर्व काल में एक राजा हुए कुकुद्मी (रैवत)। वो ब्रह्मा जी के पास यह जानने के लिए पहुंच गए कि उनकी कन्या  रेवती का वर कैसा होगा। पृथ्वी और ब्रह्मलोक के  समय  में  बहुत अंतर है। ब्रह्मा जी ने हंसते हुए कहा कि जब से तुम  आए  हो  पृथ्वी पर तो 27 चतर्युगी बीत चुकी है। अब  तुम  ऐसा करो  कि इस समय भगवान ने बलराम के  रूप में  अंशावतार  लिया है, तुम जाकर उनसे अपनी कन्या का विवाह कर दो।  कुकुद्मि (रैवत) ने ऐसा ही किया और श्री बलराम  जी  से  अपनी  कन्या रेवती का विवाह कर दिया और स्वयं तपस्या करने बद्रीक  आश्रम में चले गए।
                       श्रीकृष्ण रुक्मिणी विवाह
     विदर्भ देश के राजा थे भीष्मक। उसके पांच पुत्र और एक कन्या थी। उसके बड़े पुत्र का नाम था रुक्मी। कन्या का नाम था रुक्मिणी जो स्वयं भगवती लक्ष्मी जी का ही अवतार थीं। रुक्मिणी जी ने श्रीकृष्ण जी की लीलाओं के बारे में सुन रक्खा था। वो मन ही मन उनसे प्रेम करती थीं और उन्हें अपना पति मान रक्खा था। परंतु रुक्मिणी जी का बड़ा भाई रुक्मी कृष्ण जी से द्वेष करता था। वह रुक्मिणी जी का विवाह चेदि नरेश राजा दमघोष के पुत्र शिशुपाल से करना चाहता था। रुक्मिणी जी के माता पिता तो बेटी की भावनाओं को समझते थे परंतु रुक्मी ने ठान लिया था कि रुक्मिणी का विवाह शिशुपाल से ही होगा।
     रुक्मिणी उदास हो  गईं  और उन्होंने  एक ब्राह्मण के हाथ श्रीकृष्ण जी को एक संदेश भेजा। संदेश  में  लिखा  था,"आप के गुणों को सुनने वाले के अंग अंग के ताप मिट जाते हैं  और जन्म जन्म की जलन बुझ जाती है।  मेरा  चित्त  लज्जा  छोड़  आप में ही प्रवेश कर रहा है। आप अद्वितीय हैं।  मैंने  आपको पति रूप से वरण कर लिया है। मैं आपको आत्म समर्पण कर चुकी हूँ।  दूसरा कोई पुरुष मेरा  स्पर्श ना  कर  सके  इस  लिए आप मेरे विवाह से एक दिन पूर्व गुप्त रूप  से  आ जाइए और शिशुपाल और जरासंध की सेना को  मथ डालिए।  मैं आपको गिरिजा देवी के मंदिर में मिलूंगी।" तभी श्रीकृष्ण जी ने सारथी दारूक को बुलवाया और शीघ्र गामी घोड़ों  वाले रथ  पर  एक ही रात में वहां पहुंच गए। बारात  कुंडिनपुर  पहुंची।  जरासंध, दंतवक्र, विदूरथ आदि भी अपनी अपनी सेना लेकर  शिशुपाल के साथ पहुंचे थे। जब बलराम जी को इस बात का पता  चला तो वो भी उनके पीछे पीछे चल पड़े। भीष्मिक  द्वारा  श्रीकृष्ण जी का सत्कार किया गया। उन्हें एक  सुंदर  भवन में  ठहराया गया। जब रुक्मिणी जी मंदिर गईं तो वहां  से श्रीकृष्ण  ने उन्हें रथ में बैठा लिया और सबके सामने बलपूर्वक लेकर चल दिए।   शिशुपाल, उसके साथी राजा और रुक्मी ने उनके साथ युद्ध किया परंतु कृष्ण और बलराम  जी के  सामने  उनकी  एक ना चली। द्वारिका पहुंचकर श्रीकृष्ण जी का रुक्मिणी जी के साथ विधिवत् विवाह सम्पन्न हुआ।
                प्रद्युम्न का जन्म और शंबरासुर वध
     श्रीकृष्ण और रुक्मिणी जी का पुत्र हुआ प्रद्युम्न। प्रद्युम्न के रूप में कामदेव ने ही जन्म लिया  था। जब  भगवान  शिव  के क्रोध से कामदेव देह रहित हो गए थे तब रती जो  कामदेव की पत्नी थी के शिवजी से प्रार्थना और अनुनय  विनय  करने  पर शिवजी महाराज ने उसे वरदान दिया था कि  द्वापर में  जब श्री कृष्ण अवतार होगा तब  कामदेव  उनके  पुत्र  के रूप में जन्म लेकर शरीर प्राप्त करेंगे।
     उधर उसी समय में एक मायावी राक्षस था  शंबरासुर।  वह बहुत बलवान था जो किसी से नहीं मरता था। उसको  पता था कि उसका वध श्रीकृष्ण  जी  के  पुत्र  प्रद्युम्न  द्वारा  होगा। वह जन्म लेते ही उसे समाप्त कर देना चाहता था।  उसने  छोटे  से प्रद्युम्न को अपनी माया से उठा कर समुद्र में फैंक दिया।  परंतु भगवान की माया तो अपरम्पार है। उस बालक को  एक  बड़ी मछली ने निगल लिया। और भगवान की माया  से  प्रेरित  एक मछुआरा उसे पकड़ कर शंबरासुर की रसोई में ले आया।  वहां एक दासी थी मायावती जो कि वास्तव  में  कामदेव  की पत्नी रती ही थी। वो दासी सब जानती  थी। उसने  उस  बालक  को निकाला जो भगवान की माया से पूरी तरह सुरक्षित था। दासी ने उस बालक को पाला और सब प्रकार की विद्याओं में उसको पारंगत किया। इसी बालक  ने  शंबरासुर का  वध  किया। तब मायावती आकाश मार्ग से प्रद्युम्न को द्वारिकापुरी लेकर  आई। वहां पर नारद  की  ने  प्रकट  होकर  सबको  बताया  कि  यही प्रद्युम्न है। सभी ने  उनका  पूरा  सम्मान  और  सत्कार  किया। भगवान के अन्य विवाह कहां कहां और कैसे हुए, अगले  लेख में पढ़ें।
                        जय श्रीकृष्ण जी की

   
   

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