रास लीला
शरद ऋतु आ गई। व्रज में चारों ओर सुंदर और सुगंधित पुष्प खिल उठे हैं। भगवान ने अपनी माया से रात्रि को दिव्य बना दिया। जैसे ही उधर चंद्र देव उदय हुए इधर भगवान ने बांसुरी पर मधुर तान छेड़ी। बांसुरी की मधुर आवाज़ सुनकर भगवान को समर्पित गोपियां अपने स्थूल शरीरों को जहां थीं वहीं छोड़ कर दिव्य शरीरों के साथ उसी ओर खींची चली आईं, जहां श्रीकृष्ण अपनी बांसुरी की तान छेड़े हुए थे। श्रीकृष्ण ने उनका स्वागत किया और शिक्षा भी दे डाली कि उन्हें अपने अपने घर वापिस चले जाना चाहिए। गोपियों के अनुनय विनय करने पर उन्हें दया आ गई और उन्होंने गोपियों को वहीं रुकने दिया। गोपियां वहीं भगवान के लगातार दर्शन करने लगीं। जब गोपियों को अपने आप पर अभिमान होने लगा तो भगवान ने अपने आप को अदृश्य कर लिया।
भगवान के अदृश्य होते ही व्रज युवतियों का हृदय विरह की ज्वाला से जलने लगा। भगवान के द्वारा की गई लीलाओं ने उनके चित्त को चुरा लिया। गोपियां विरह वेदना से पीड़ित होकर अपने आप को भूलकर श्रीकृष्ण स्वरूप हो गईं। उन्होंने अपने आप को ' मैं कृष्ण हूं' ऐसा कहना शुरू कर दिया। वे तुलसी से, मालती से कृष्ण का पता पूछने लगीं। वे कातर हो गईं। गाढ़ आवेश के कारण भगवन्मय होकर भगवान की विभिन्न लीलाओं का अनुसरण करने लगीं। श्रीकृष्ण जी की ही भावना में डूबी हुई गोपियां यमुना जी के पावन पुलिन पर ' रमणरेती ' लौट आईं और एक साथ मिलकर श्रीकृष्ण के गुणों का गान करने लगीं।
गोपिका गीत
उसी विरहावेश में वे गाने लगीं:- हे कन्हैया, तेरे कारण व्रज की महिमा बैकुंठ से भी बढ़ गई है। परंतु तुम्हारे लिए समर्पित गोपियां तुम्हें वन वन ढूंढ रही हैं। तुम तो अन्तर्यामी हो। तुम शीघ्र हमारे पास आकर हमारे सिर पर हाथ रख दो। हम से रूठो मत और हमें अपना सांवला कमल मुख दिखला कर हमें जीवन दान दो। तुम्हारे द्वारा की गई लीलाओं की याद आकर हमारे मन को क्षुब्ध किए देती है। हमारा जीवन तो केवल तुम्हारे लिए है।
श्रीकृष्ण जी का प्रकट होना
जब गोपियां फूट फूट कर रोने लगीं तो उसी समय श्रीकृष्ण जी प्रकट हो गए। गोपियों के नेत्र फिर खिल उठे। उनमें प्राणों का संचार हुआ। नवीन चेतना आई। उनका रोम रोम खिल उठा। वे सिद्ध योगियों के समान परमानन्द में मग्न हो गईं। वे शांति के समुद्र में डूबने लगीं। तभी अचानक कहने लगीं, " हे नट- नागर कुछ लोग ऐसे होते हैं जो प्रेम करने वालों से ही प्रेम करते हैं। दूसरे वो लोग होते हैं जो प्रेम ना करने वालों से भी प्रेम करते हैं। और तीसरे वो लोग होते हैं जो, प्रेम करने वाले और प्रेम ना करने वाले, दोनों से ही प्रेम नहीं करते। हे प्यारे! इन तीनों में से तुम्हें कौन सा अच्छा लगता है?
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा," गोपिओ सुनो! जो प्रेम करने पर ही प्रेम करते हैं, उनका तो सारा उद्योग स्वार्थ को लेकर ही है।
जो लोग प्रेम ना करने वालों से भी प्रेम करते हैं, उनका हृदय सौहार्द से भरा रहता है। उनके व्यव्हार में निष्छलता, सत्य एवं पूर्ण धर्म होता है। तीसरी प्रकार के लोग, जो प्यार करने और ना करने वाले दोनों प्रकार के लोगों से ही प्यार नहीं करते, वे चार प्रकार के होते हैं:-
1. वो लोग जो अपने स्वरूप में मस्त रहते हैं।
2. जिनको द्वैत तो भास्ता है, परंतु कृत्य कृत्य हो चुके हैं। उनको किसी से कोई प्रयोजन नहीं है।
3. जो जानते ही नहीं की उनसे कौन प्रेम करता है।
4. जो जानबूझ कर अपना हित करने वाले परोपकारी गुरु समान लोगों से भी द्रोह करते हैं। उनको सताना चाहते हैं।
परंतु मैं तो प्रेम करने वालों से भी प्रेम का वैसा व्यवहार नहीं करता जैसा करना चाहिए। मैं ऐसा केवल इस लिए करता हूँ कि उनकी चित्त वृत्ति और भी मुझ में लगे और निरंतर लगी रहे। तुम लोगों ने जो मेरे लिए छोड़ा उन गृहस्थ की बेड़ियों को बड़े बड़े योगी भी नहीं तोड़ पाते। मुझसे तुम्हारा यह आत्मिक संयोग सर्वथा निर्मल और सर्वथा निर्दोष है। मैं सदा के लिए तुम्हारा ऋणी हो गया"
महा रास
अप्राकृतिक शरीर में वहां पर आई हुई गोपियां, श्रीकृष्ण जी की सुमधुर वाणी सुनकर सफल मनोरथ हो गईं। उनका जो विरह जन्य ताप शेष था वह भी समाप्त हो गया। भगवान ने उनके साथ यमुना जी के तट पर रस मई रास क्रीड़ा प्रारंभ की। हर एक को लगा कि भगवान श्रीकृष्ण उसी के पास हैं।
कहा गया है कि जो धीर पुरुष यह कथा सुनता है या वर्णन करता है, उसे भगवान के चरणों में परा भक्ति प्राप्त होती है।
इसके इलावा शीघ्र ही अपने हृदय के रोग, काम विकार, से छुटकारा पा जाता है। उसका काम भाव सर्वदा नष्ट हो जाता है। यहां पर रास को इस तरह परिभाषित किया गया है कि,
" जिस दिव्य क्रीड़ा में एक ही रस अनेक रसों के रूप में हो कर, अनन्त अनन्त रस का समा स्वादन करे, एक रस ही रस समूह के रूप में प्रकट होकर स्वयं ही आसवाद्ध्य- आस्वादक, लीला धाम और विभिन्न आलंबन एवं उद्वीपन के रूप में क्रीड़ा करे उसका नाम रास है।" यह लीला दिव् धाम में निरंतर चलती रहती है।
भगवान का शरीर जीव शरीर की भांति जड़ नहीं होता। यह रास वस्तुत: परम उज्ज्वल रस का एक दिव्य प्रकाश है। गोपियां भी भगवान के समान परम रस मई और सच्चिदानंद मई ही हैं। उस दिव्य भाव की साधारण स्त्री पुरुष से तुलना करना महान अन्न्याय एवं अपराध है। उद्धव जी जैसे महान संत भी गोपियों के प्रेम के आगे नतमस्तक हुए हैं।
जय श्रीकृष्ण जी की
शरद ऋतु आ गई। व्रज में चारों ओर सुंदर और सुगंधित पुष्प खिल उठे हैं। भगवान ने अपनी माया से रात्रि को दिव्य बना दिया। जैसे ही उधर चंद्र देव उदय हुए इधर भगवान ने बांसुरी पर मधुर तान छेड़ी। बांसुरी की मधुर आवाज़ सुनकर भगवान को समर्पित गोपियां अपने स्थूल शरीरों को जहां थीं वहीं छोड़ कर दिव्य शरीरों के साथ उसी ओर खींची चली आईं, जहां श्रीकृष्ण अपनी बांसुरी की तान छेड़े हुए थे। श्रीकृष्ण ने उनका स्वागत किया और शिक्षा भी दे डाली कि उन्हें अपने अपने घर वापिस चले जाना चाहिए। गोपियों के अनुनय विनय करने पर उन्हें दया आ गई और उन्होंने गोपियों को वहीं रुकने दिया। गोपियां वहीं भगवान के लगातार दर्शन करने लगीं। जब गोपियों को अपने आप पर अभिमान होने लगा तो भगवान ने अपने आप को अदृश्य कर लिया।
भगवान के अदृश्य होते ही व्रज युवतियों का हृदय विरह की ज्वाला से जलने लगा। भगवान के द्वारा की गई लीलाओं ने उनके चित्त को चुरा लिया। गोपियां विरह वेदना से पीड़ित होकर अपने आप को भूलकर श्रीकृष्ण स्वरूप हो गईं। उन्होंने अपने आप को ' मैं कृष्ण हूं' ऐसा कहना शुरू कर दिया। वे तुलसी से, मालती से कृष्ण का पता पूछने लगीं। वे कातर हो गईं। गाढ़ आवेश के कारण भगवन्मय होकर भगवान की विभिन्न लीलाओं का अनुसरण करने लगीं। श्रीकृष्ण जी की ही भावना में डूबी हुई गोपियां यमुना जी के पावन पुलिन पर ' रमणरेती ' लौट आईं और एक साथ मिलकर श्रीकृष्ण के गुणों का गान करने लगीं।
गोपिका गीत
उसी विरहावेश में वे गाने लगीं:- हे कन्हैया, तेरे कारण व्रज की महिमा बैकुंठ से भी बढ़ गई है। परंतु तुम्हारे लिए समर्पित गोपियां तुम्हें वन वन ढूंढ रही हैं। तुम तो अन्तर्यामी हो। तुम शीघ्र हमारे पास आकर हमारे सिर पर हाथ रख दो। हम से रूठो मत और हमें अपना सांवला कमल मुख दिखला कर हमें जीवन दान दो। तुम्हारे द्वारा की गई लीलाओं की याद आकर हमारे मन को क्षुब्ध किए देती है। हमारा जीवन तो केवल तुम्हारे लिए है।
श्रीकृष्ण जी का प्रकट होना
जब गोपियां फूट फूट कर रोने लगीं तो उसी समय श्रीकृष्ण जी प्रकट हो गए। गोपियों के नेत्र फिर खिल उठे। उनमें प्राणों का संचार हुआ। नवीन चेतना आई। उनका रोम रोम खिल उठा। वे सिद्ध योगियों के समान परमानन्द में मग्न हो गईं। वे शांति के समुद्र में डूबने लगीं। तभी अचानक कहने लगीं, " हे नट- नागर कुछ लोग ऐसे होते हैं जो प्रेम करने वालों से ही प्रेम करते हैं। दूसरे वो लोग होते हैं जो प्रेम ना करने वालों से भी प्रेम करते हैं। और तीसरे वो लोग होते हैं जो, प्रेम करने वाले और प्रेम ना करने वाले, दोनों से ही प्रेम नहीं करते। हे प्यारे! इन तीनों में से तुम्हें कौन सा अच्छा लगता है?
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा," गोपिओ सुनो! जो प्रेम करने पर ही प्रेम करते हैं, उनका तो सारा उद्योग स्वार्थ को लेकर ही है।
जो लोग प्रेम ना करने वालों से भी प्रेम करते हैं, उनका हृदय सौहार्द से भरा रहता है। उनके व्यव्हार में निष्छलता, सत्य एवं पूर्ण धर्म होता है। तीसरी प्रकार के लोग, जो प्यार करने और ना करने वाले दोनों प्रकार के लोगों से ही प्यार नहीं करते, वे चार प्रकार के होते हैं:-
1. वो लोग जो अपने स्वरूप में मस्त रहते हैं।
2. जिनको द्वैत तो भास्ता है, परंतु कृत्य कृत्य हो चुके हैं। उनको किसी से कोई प्रयोजन नहीं है।
3. जो जानते ही नहीं की उनसे कौन प्रेम करता है।
4. जो जानबूझ कर अपना हित करने वाले परोपकारी गुरु समान लोगों से भी द्रोह करते हैं। उनको सताना चाहते हैं।
परंतु मैं तो प्रेम करने वालों से भी प्रेम का वैसा व्यवहार नहीं करता जैसा करना चाहिए। मैं ऐसा केवल इस लिए करता हूँ कि उनकी चित्त वृत्ति और भी मुझ में लगे और निरंतर लगी रहे। तुम लोगों ने जो मेरे लिए छोड़ा उन गृहस्थ की बेड़ियों को बड़े बड़े योगी भी नहीं तोड़ पाते। मुझसे तुम्हारा यह आत्मिक संयोग सर्वथा निर्मल और सर्वथा निर्दोष है। मैं सदा के लिए तुम्हारा ऋणी हो गया"
महा रास
अप्राकृतिक शरीर में वहां पर आई हुई गोपियां, श्रीकृष्ण जी की सुमधुर वाणी सुनकर सफल मनोरथ हो गईं। उनका जो विरह जन्य ताप शेष था वह भी समाप्त हो गया। भगवान ने उनके साथ यमुना जी के तट पर रस मई रास क्रीड़ा प्रारंभ की। हर एक को लगा कि भगवान श्रीकृष्ण उसी के पास हैं।
कहा गया है कि जो धीर पुरुष यह कथा सुनता है या वर्णन करता है, उसे भगवान के चरणों में परा भक्ति प्राप्त होती है।
इसके इलावा शीघ्र ही अपने हृदय के रोग, काम विकार, से छुटकारा पा जाता है। उसका काम भाव सर्वदा नष्ट हो जाता है। यहां पर रास को इस तरह परिभाषित किया गया है कि,
" जिस दिव्य क्रीड़ा में एक ही रस अनेक रसों के रूप में हो कर, अनन्त अनन्त रस का समा स्वादन करे, एक रस ही रस समूह के रूप में प्रकट होकर स्वयं ही आसवाद्ध्य- आस्वादक, लीला धाम और विभिन्न आलंबन एवं उद्वीपन के रूप में क्रीड़ा करे उसका नाम रास है।" यह लीला दिव् धाम में निरंतर चलती रहती है।
भगवान का शरीर जीव शरीर की भांति जड़ नहीं होता। यह रास वस्तुत: परम उज्ज्वल रस का एक दिव्य प्रकाश है। गोपियां भी भगवान के समान परम रस मई और सच्चिदानंद मई ही हैं। उस दिव्य भाव की साधारण स्त्री पुरुष से तुलना करना महान अन्न्याय एवं अपराध है। उद्धव जी जैसे महान संत भी गोपियों के प्रेम के आगे नतमस्तक हुए हैं।
जय श्रीकृष्ण जी की
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें