श्रीकृष्ण और गोपियों का संबंध
श्रीकृष्ण साक्षात परब्रह्म परमात्मा हैं और गोपियां उनसे युगों युगों से जुड़े उनके भक्त हैं। वो भक्त जो युगों से भगवान के साथ इतना प्रेम करते हैं कि उनको भगवान के सिवा कुछ भी नहीं चाहिए। भगवान के सिवा ना उनका कोई रिश्ता है और ना उनकी कोई वस्तु है। यहां तक कि उनको अपने शरीर का भी कोई मोह नहीं है। परमात्मा के सिवा उनको कुछ भी नहीं चाहिए। और श्रीकृष्ण ही उनका परमात्मा है। वही उनका एक मात्र उद्देश्य है। इसी के लिए जन्म जन्मांतर से वे प्रयत्न कर रहे हैं। इनके संबंध को स्त्री और पुरुष के रूप में नहीं अपितु भगवान और भक्त की दृष्टि से देखना चाहिए। उस समय कान्हा की आयु केवल 9 वर्ष की थी। इस लिए इसको पुरुष और स्त्री के भाव से तो कतई नहीं देख सकते।
तीन प्रकार की गोपियां
वास्तव में वृंदावन भगवान के धाम बैकुंठ का ही रूप बन गया था। यहां पर जो गोपियां थीं उनमें तीन प्रकार के भक्त थे।
पहले थे भगवान के पार्षद जो नित्य भगवान के साथ ही रहते हैं। दूसरे थे देवता जो भगवान की लीला में सम्मिलित होने आए थे। और तीसरे थे भगवान के वो सबसे प्रिय भक्त जो अनन्य भाव से उनमें ही प्रीति रखते थे और सदा सदा के लिए भगवान के ही साथ रहना चाहते थे। इन तीन प्रकार के भक्तों ने ही वृंदावन में गोपियों के रूप में जन्म लिया था।
वेणु गीत
सुंदर वन में गाऊओं को चराते मधु पति श्रीकृष्ण ने बांसुरी की तान छेड़ी तो गोपियां मन से वहां पहुंच गईं। उन्होंने मन ही मन भगवान के दर्शन भी किए। सिर पर मोर मुकुट, कान में कनेर का फूल और गले में वैजयंती माला पहने हुए कान्हा की ग्वाल बाल स्तुति कर रहे हैं। उनकी शोभा को तो वही जान सकते हैं जिन्होंने उन्हें देखा है। उस समय गोपियों ने जो गीत गाया, उसे ही वेणु गीत कहते हैं। इस गीत में गोपियां कह रही हैं कि भगवान के अवतार लेने से चेतन और जड़ सभी उनके रूप के रस का पान कर रहे हैं। यह गऊ और वेणु (वंशी), नदियां, ग्वाल बाल और गिरी राज सभी बड़भागी हैं जिन्हें भगवान का सानिध्य प्राप्त हो रहा है। वो यह भी कहती हैं कि संसार में कोई देखने योग्य है तो वह केवल श्रीकृष्ण ही हैं।
चीर हरण
हेमंत ऋतु में व्रज की गोपियों ने श्रीकृष्ण की प्राप्ति के लिए कात्यायनी देवी का व्रत रख कर एक महीने तक पूजा की। एक दिन वे निर्वस्त्र यमुना तट पर श्रीकृष्ण गुणगान करती हुई, स्नान कर रही थीं। उनकी अभिलाषा भगवान से छिपी ना थी।
श्रीकृष्ण (9 वर्ष की आयु के बालक) ने उनके वस्त्र चुरा लिए और कदंब के पेड़ पर चढ़ गए। जब गोपियों ने देखा तो उन्होंने उसे वस्त्र वापिस देने को कहा। परंतु कृष्ण ने कहा कि बाहर आकार ले जाओ। वास्तव में भगवान अपने भक्तों के वस्त्र (संस्कार) जो परमात्मा के मिलने में बाधक बन रहे थे उनको समाप्त करना चाहते थे। अंत में उन्होंने बाहर आकर कृष्ण से वस्त्र प्राप्त किए। इसका अर्थ है भक्तों ने भगवान के आगे समर्पण कर दिया। साधकों के लिए यहां पर कृष्ण परमात्मा हैं, वस्त्र सांसारिक संस्कार (बंधन) हैं जिस में मनुष्य बंधा हुआ भेद भाव में फंसा रहता है और परमात्मा और उस जीव के अंदर संस्कारों का एक पर्दा बना रहता है और जीव (भक्त) का भगवान से एक हो जाने का भाव पूर्ण नहीं हो पाता। जो वस्त्र गोपियों और कृष्ण के बीच पर्दा थे वही जब कृष्ण ने वापिस किए तो प्रसाद बन गए। वस्त्र वापिस करने का अर्थ है कि वो अपने सांसारिक दायित्वों का निर्वहन करें। अर्थात जीव अपने संस्कारों या जिम्मेदारियों को तो निभाए परंतु उसे अपना ना समझ कर भगवान को अर्पित करते हुए उनकी आज्ञा मान कर ही निभाए। अपने आप को उनमें ना उलझाए। सदा सदा समर्पण की भावना ही रक्खें। मन से उनके साथ जुड़ा ना रहे अपितु सेवा, त्याग, और समर्पण करता हुआ अनन्य भाव से भगवान से जुड़ा रहे।
जो श्रीकृष्ण को भगवान मानते हैं वो समझते हैं कि उनके सामने तो सब स्पष्ट है। आवरण तो केवल साधारण लोगों के लिए हैं। हमारी बुद्धि और दृष्टि केवल देह तक ही सीमित है। इस लिए दिव्य प्रेम को भी हम केवल कामना कलुषित समझ बैठते हैं।
श्रीकृष्ण ने गोपियों की मनोस्थिति को देखते हुए कहा कि अब तुम घर लौट जाओ, तुम्हारी साधना सिद्ध हुई। आने वाली शरद ऋतु की रात्रि में महा रास होगी।
श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार जी ने शंका निवारण हेतु कितना सुंदर लिखा है कि अध्यात्मवादी श्रीकृष्ण को आत्मा के रूप में देखते हैं और गोपियों को वृत्तियों (विचारों या मनोस्थिति) के रूप में। वृत्तियों का आवरण नष्ट हो जाना ही चीरहरण की लीला है और उनका आत्मा में रम जाना ही रास है।
यज्ञ पत्नियों पर कृपा
एक बार श्रीकृष्ण वन में गायों को चराते समय, साथी ग्वाल बालों को (वृक्षों के हम पर क्या उपकार हैं) इसके विषय में बड़े लंबे समय तक बात करते रहे। दोपहर के भोजन का समय हो गया। सब को ज़ोर की भूख लगी थी। वहां से थोड़ी दूरी पर ही वेद वादी ब्राह्मण स्वर्ग की कामना से यज्ञ कर रहे थे। श्रीकृष्ण ने अपने साथी ग्वालों को कहा कि,"तुम वहां जाओ और यज्ञ शाला से मेरे, बलराम और अपने लिए भोजन मांग कर ले आओ।"
जब ग्वालों ने वहां जाकर भोजन मांगा तो उन्होंने नहीं दिया और कहा कि बिना भोग लगाए भोजन नहीं दिया का सकता। जब ग्वाले खाली हाथ वापिस आए तो श्रीकृष्ण ने उनको उन ब्राह्मणों की पत्नियों के पास भेजा। उन स्त्रियों ने भगवान की लीलाएं सुन रक्खी थीं। वो श्रीकृष्ण जी को भगवान मानती थीं। उनको रोके जाने के बाद भी उन्होने स्वादिष्ट भोजन लिया और श्रीकृष्ण के पास चली आईं। उन्होंने भगवान के आगे पूर्ण समर्पण कर दिया और बड़े भाव से दर्शन किए। ब्राह्मणों को जब पता चला तो उन्हें बहुत पछतावा हुआ। उन्होंने श्रीकृष्ण जी के पास जाना चाहा परन्तु कंस के डर से नहीं गए। तब श्री कृष्ण ने उन स्त्रियों को समझाया कि भक्ति मार्ग ही सबसे श्रेष्ठ है। तुम सब घर जाओ और सदा ही मुझ में अपना मन लगाए रखना। जल्दी ही तुम सब को मेरी प्राप्ति हो जाएगी।
पिता जी इस संसार की स्थिति, उत्पत्ति और अंत के क्रमशः सत्व गुण, राजो गुण और तमों गुण ही कारण हैं। यह विविध प्रकार का संपूर्ण जगत स्त्री - पुरुष के संयोग से राजो गुण के द्वारा उत्पन्न होता है। उसी रजोगुण की प्रेरणा से ही मेघ सब जगह जल बरसाते हैं। उसी से अन्न और अन्न से ही सब जीवों की जीविका चलती है। इसमें भला इन्द्र का क्या लेना देना है?
हमारे पास ना कोई राज्य हे ना हम बड़े नगर के स्वामी हैं। हमारे पास तो घर भी नहीं है। हम तो बनवासी हैं। इस सामग्री से भली भांति वेदवादी ब्राह्मणों द्वारा हवन करवाया जाए और उन्हें दान आदि दिए जाएं। और लोगों को भी यथायोग्य वस्तुएं दान देकर गऊओं को चारा दिया जाए। सज धज कर और खा पीकर गिरीराज गोवर्धन की प्रदक्षिणा की जाए। यह यज्ञ मुझे भी बहुत प्रिय होगा।"
श्री शुकदेव जी कहते हैं कि भगवान चाहते थे कि इन्द्र का घमंड चूर चूर किया जाए। सभी ने श्रीकृष्ण की बात से सहमत होते हुए वैसा ही किया जैसा श्रीकृष्ण जी ने चाहा था। कान्हा स्वयं गिरीराज के ऊपर एक दूसरा विशाल शरीर धारण करके प्रकट हो गए और ' मैं गिरीराज हूं ' ऐसा कहते हुए सारी सामग्री को सेवन करने लगे। सबने यही माना कि गिरीराज ने साक्षात प्रकट होकर हम पर कृपा की है।
गोवर्धनधारण
इन्द्र को तो अपने पद का घमंड था उसने क्रोधित होकर प्रलय के मेघों के बंधन खोल दिए। मूसलाधार पानी बरसने लगा। चारों तरफ पानी भर गया। पशु ठिठुरने और कांपने लगे। सभी लोग व्याकुल होकर कृष्ण की शरण में आए। श्री कृष्ण ने एक ही हाथ से गोवर्धन पर्वत को उठाया और अपनी छोटी अंगुली पर धारण कर लिया। सभी ने उसके नीचे शरण ले ली। सात दिन बाद बारिश रुकी और सूर्य के दर्शन हुए। उसके बाद ही सब को बाहर निकाल कर पर्वत को भगवान ने वापिस उसके स्थान पर रक्खा। उस समय आकाश में इन्द्र समेत सभी देवता, सिद्ध, गंधर्व, चारण श्रीकृष्ण जी की स्तुति करने लगे। इन्द्र ने देव ऋषियों के साथ आकाश गंगा के जल से श्रीकृष्ण का अभिषेक किया और उन्हें ' गोविंद ' नाम से संबोधित किया। कामधेनु ने भगवान श्रीकृष्ण जी को ही अपना और सभी गौओं का इंद्र मान कर उनका अभिषेक अपने दूध से किया। इन्द्र ने भगवान से अपने द्वारा किए घमंड पूर्ण कार्य के लिए क्षमा याचना की।
सभी गोप बाबा नंद से श्रीकृष्ण द्वारा की गई अनेक लीलाओं के बारे चर्चा करते हुए उनकी प्रशंशा करने लगे।
वरुण लोक से नंद जी को छुड़ा कर लाना
एक बार नंद जी ने कार्तिक शुक्ल एकादशी का उपवास किया। उसी रात द्वादशी लग जानी थी। इस लिए नंद जी ने असुरों की वेला में ही यमुना जी में स्नान कर लिया। इस पर वरुण का सेवक राक्षस नंद जी को उठाकर वरुण लोक ले गया। व्रज के सारे लोगों का रोना पीटना सुनकर श्रीकृष्ण जी वरुण लोक गए। वहां पर वरुण ने श्रीकृष्ण जी की स्तुति की और क्षमा याचना करते हुए बाबा नंद जी, श्रीकृष्ण को लौटा दिए। वापिस आकर बाबा नंद ने जब सारी बात बाकी सभी
को सुनाई तो सभी गोप कृष्ण जी को भगवान मानकर उनसे प्रार्थना करने लगे कि वो उन्हें अपने धाम के दर्शन करवाएं।
इस पर श्रीकृष्ण जी ने उन सभी को अपने धाम के दर्शन भी करवा दिए। सारे गोप भगवान के धाम के दर्शन करके मग्न हो गए।
जय श्री कृष्ण जी की
श्रीकृष्ण साक्षात परब्रह्म परमात्मा हैं और गोपियां उनसे युगों युगों से जुड़े उनके भक्त हैं। वो भक्त जो युगों से भगवान के साथ इतना प्रेम करते हैं कि उनको भगवान के सिवा कुछ भी नहीं चाहिए। भगवान के सिवा ना उनका कोई रिश्ता है और ना उनकी कोई वस्तु है। यहां तक कि उनको अपने शरीर का भी कोई मोह नहीं है। परमात्मा के सिवा उनको कुछ भी नहीं चाहिए। और श्रीकृष्ण ही उनका परमात्मा है। वही उनका एक मात्र उद्देश्य है। इसी के लिए जन्म जन्मांतर से वे प्रयत्न कर रहे हैं। इनके संबंध को स्त्री और पुरुष के रूप में नहीं अपितु भगवान और भक्त की दृष्टि से देखना चाहिए। उस समय कान्हा की आयु केवल 9 वर्ष की थी। इस लिए इसको पुरुष और स्त्री के भाव से तो कतई नहीं देख सकते।
तीन प्रकार की गोपियां
वास्तव में वृंदावन भगवान के धाम बैकुंठ का ही रूप बन गया था। यहां पर जो गोपियां थीं उनमें तीन प्रकार के भक्त थे।
पहले थे भगवान के पार्षद जो नित्य भगवान के साथ ही रहते हैं। दूसरे थे देवता जो भगवान की लीला में सम्मिलित होने आए थे। और तीसरे थे भगवान के वो सबसे प्रिय भक्त जो अनन्य भाव से उनमें ही प्रीति रखते थे और सदा सदा के लिए भगवान के ही साथ रहना चाहते थे। इन तीन प्रकार के भक्तों ने ही वृंदावन में गोपियों के रूप में जन्म लिया था।
वेणु गीत
सुंदर वन में गाऊओं को चराते मधु पति श्रीकृष्ण ने बांसुरी की तान छेड़ी तो गोपियां मन से वहां पहुंच गईं। उन्होंने मन ही मन भगवान के दर्शन भी किए। सिर पर मोर मुकुट, कान में कनेर का फूल और गले में वैजयंती माला पहने हुए कान्हा की ग्वाल बाल स्तुति कर रहे हैं। उनकी शोभा को तो वही जान सकते हैं जिन्होंने उन्हें देखा है। उस समय गोपियों ने जो गीत गाया, उसे ही वेणु गीत कहते हैं। इस गीत में गोपियां कह रही हैं कि भगवान के अवतार लेने से चेतन और जड़ सभी उनके रूप के रस का पान कर रहे हैं। यह गऊ और वेणु (वंशी), नदियां, ग्वाल बाल और गिरी राज सभी बड़भागी हैं जिन्हें भगवान का सानिध्य प्राप्त हो रहा है। वो यह भी कहती हैं कि संसार में कोई देखने योग्य है तो वह केवल श्रीकृष्ण ही हैं।
चीर हरण
हेमंत ऋतु में व्रज की गोपियों ने श्रीकृष्ण की प्राप्ति के लिए कात्यायनी देवी का व्रत रख कर एक महीने तक पूजा की। एक दिन वे निर्वस्त्र यमुना तट पर श्रीकृष्ण गुणगान करती हुई, स्नान कर रही थीं। उनकी अभिलाषा भगवान से छिपी ना थी।
श्रीकृष्ण (9 वर्ष की आयु के बालक) ने उनके वस्त्र चुरा लिए और कदंब के पेड़ पर चढ़ गए। जब गोपियों ने देखा तो उन्होंने उसे वस्त्र वापिस देने को कहा। परंतु कृष्ण ने कहा कि बाहर आकार ले जाओ। वास्तव में भगवान अपने भक्तों के वस्त्र (संस्कार) जो परमात्मा के मिलने में बाधक बन रहे थे उनको समाप्त करना चाहते थे। अंत में उन्होंने बाहर आकर कृष्ण से वस्त्र प्राप्त किए। इसका अर्थ है भक्तों ने भगवान के आगे समर्पण कर दिया। साधकों के लिए यहां पर कृष्ण परमात्मा हैं, वस्त्र सांसारिक संस्कार (बंधन) हैं जिस में मनुष्य बंधा हुआ भेद भाव में फंसा रहता है और परमात्मा और उस जीव के अंदर संस्कारों का एक पर्दा बना रहता है और जीव (भक्त) का भगवान से एक हो जाने का भाव पूर्ण नहीं हो पाता। जो वस्त्र गोपियों और कृष्ण के बीच पर्दा थे वही जब कृष्ण ने वापिस किए तो प्रसाद बन गए। वस्त्र वापिस करने का अर्थ है कि वो अपने सांसारिक दायित्वों का निर्वहन करें। अर्थात जीव अपने संस्कारों या जिम्मेदारियों को तो निभाए परंतु उसे अपना ना समझ कर भगवान को अर्पित करते हुए उनकी आज्ञा मान कर ही निभाए। अपने आप को उनमें ना उलझाए। सदा सदा समर्पण की भावना ही रक्खें। मन से उनके साथ जुड़ा ना रहे अपितु सेवा, त्याग, और समर्पण करता हुआ अनन्य भाव से भगवान से जुड़ा रहे।
जो श्रीकृष्ण को भगवान मानते हैं वो समझते हैं कि उनके सामने तो सब स्पष्ट है। आवरण तो केवल साधारण लोगों के लिए हैं। हमारी बुद्धि और दृष्टि केवल देह तक ही सीमित है। इस लिए दिव्य प्रेम को भी हम केवल कामना कलुषित समझ बैठते हैं।
श्रीकृष्ण ने गोपियों की मनोस्थिति को देखते हुए कहा कि अब तुम घर लौट जाओ, तुम्हारी साधना सिद्ध हुई। आने वाली शरद ऋतु की रात्रि में महा रास होगी।
श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार जी ने शंका निवारण हेतु कितना सुंदर लिखा है कि अध्यात्मवादी श्रीकृष्ण को आत्मा के रूप में देखते हैं और गोपियों को वृत्तियों (विचारों या मनोस्थिति) के रूप में। वृत्तियों का आवरण नष्ट हो जाना ही चीरहरण की लीला है और उनका आत्मा में रम जाना ही रास है।
यज्ञ पत्नियों पर कृपा
एक बार श्रीकृष्ण वन में गायों को चराते समय, साथी ग्वाल बालों को (वृक्षों के हम पर क्या उपकार हैं) इसके विषय में बड़े लंबे समय तक बात करते रहे। दोपहर के भोजन का समय हो गया। सब को ज़ोर की भूख लगी थी। वहां से थोड़ी दूरी पर ही वेद वादी ब्राह्मण स्वर्ग की कामना से यज्ञ कर रहे थे। श्रीकृष्ण ने अपने साथी ग्वालों को कहा कि,"तुम वहां जाओ और यज्ञ शाला से मेरे, बलराम और अपने लिए भोजन मांग कर ले आओ।"
जब ग्वालों ने वहां जाकर भोजन मांगा तो उन्होंने नहीं दिया और कहा कि बिना भोग लगाए भोजन नहीं दिया का सकता। जब ग्वाले खाली हाथ वापिस आए तो श्रीकृष्ण ने उनको उन ब्राह्मणों की पत्नियों के पास भेजा। उन स्त्रियों ने भगवान की लीलाएं सुन रक्खी थीं। वो श्रीकृष्ण जी को भगवान मानती थीं। उनको रोके जाने के बाद भी उन्होने स्वादिष्ट भोजन लिया और श्रीकृष्ण के पास चली आईं। उन्होंने भगवान के आगे पूर्ण समर्पण कर दिया और बड़े भाव से दर्शन किए। ब्राह्मणों को जब पता चला तो उन्हें बहुत पछतावा हुआ। उन्होंने श्रीकृष्ण जी के पास जाना चाहा परन्तु कंस के डर से नहीं गए। तब श्री कृष्ण ने उन स्त्रियों को समझाया कि भक्ति मार्ग ही सबसे श्रेष्ठ है। तुम सब घर जाओ और सदा ही मुझ में अपना मन लगाए रखना। जल्दी ही तुम सब को मेरी प्राप्ति हो जाएगी।
इन्द्र यज्ञ - निवारण
व्रज के सब गोप, इन्द्र यज्ञ, करने की तैयारी कर रहे थे। श्रीकृष्ण ने नंद बाबा आदि बूढ़े गाेपों से पूछा,"यह कौन सा उत्सव है ?" बाबा नंद ने उत्तर दिया कि इन्द्र मेघों के स्वामी हैं। वे जीवन दान देने वाले हैं और जल को बरसाने वाले हैं। इस उत्सव में हम सब उन्हीं की पूजा करते हैं। इस पर श्रीकृष्ण ने कहा, "प्राणी अपने कर्मों से ही फल पाता है और मनुष्य अपने स्वभाव (पूर्व संस्कारों) के आधीन है। वह उन्हीं का अनुसरण करता है। इन्द्र का इसमें कुछ भी नहीं है। सभी को अपना अपना कार्य करना चाहिए। जैसे हम सदा से गोपालन का कार्य ही करते हैं और जंगलों में रहते हैं।पिता जी इस संसार की स्थिति, उत्पत्ति और अंत के क्रमशः सत्व गुण, राजो गुण और तमों गुण ही कारण हैं। यह विविध प्रकार का संपूर्ण जगत स्त्री - पुरुष के संयोग से राजो गुण के द्वारा उत्पन्न होता है। उसी रजोगुण की प्रेरणा से ही मेघ सब जगह जल बरसाते हैं। उसी से अन्न और अन्न से ही सब जीवों की जीविका चलती है। इसमें भला इन्द्र का क्या लेना देना है?
हमारे पास ना कोई राज्य हे ना हम बड़े नगर के स्वामी हैं। हमारे पास तो घर भी नहीं है। हम तो बनवासी हैं। इस सामग्री से भली भांति वेदवादी ब्राह्मणों द्वारा हवन करवाया जाए और उन्हें दान आदि दिए जाएं। और लोगों को भी यथायोग्य वस्तुएं दान देकर गऊओं को चारा दिया जाए। सज धज कर और खा पीकर गिरीराज गोवर्धन की प्रदक्षिणा की जाए। यह यज्ञ मुझे भी बहुत प्रिय होगा।"
श्री शुकदेव जी कहते हैं कि भगवान चाहते थे कि इन्द्र का घमंड चूर चूर किया जाए। सभी ने श्रीकृष्ण की बात से सहमत होते हुए वैसा ही किया जैसा श्रीकृष्ण जी ने चाहा था। कान्हा स्वयं गिरीराज के ऊपर एक दूसरा विशाल शरीर धारण करके प्रकट हो गए और ' मैं गिरीराज हूं ' ऐसा कहते हुए सारी सामग्री को सेवन करने लगे। सबने यही माना कि गिरीराज ने साक्षात प्रकट होकर हम पर कृपा की है।
गोवर्धनधारण
इन्द्र को तो अपने पद का घमंड था उसने क्रोधित होकर प्रलय के मेघों के बंधन खोल दिए। मूसलाधार पानी बरसने लगा। चारों तरफ पानी भर गया। पशु ठिठुरने और कांपने लगे। सभी लोग व्याकुल होकर कृष्ण की शरण में आए। श्री कृष्ण ने एक ही हाथ से गोवर्धन पर्वत को उठाया और अपनी छोटी अंगुली पर धारण कर लिया। सभी ने उसके नीचे शरण ले ली। सात दिन बाद बारिश रुकी और सूर्य के दर्शन हुए। उसके बाद ही सब को बाहर निकाल कर पर्वत को भगवान ने वापिस उसके स्थान पर रक्खा। उस समय आकाश में इन्द्र समेत सभी देवता, सिद्ध, गंधर्व, चारण श्रीकृष्ण जी की स्तुति करने लगे। इन्द्र ने देव ऋषियों के साथ आकाश गंगा के जल से श्रीकृष्ण का अभिषेक किया और उन्हें ' गोविंद ' नाम से संबोधित किया। कामधेनु ने भगवान श्रीकृष्ण जी को ही अपना और सभी गौओं का इंद्र मान कर उनका अभिषेक अपने दूध से किया। इन्द्र ने भगवान से अपने द्वारा किए घमंड पूर्ण कार्य के लिए क्षमा याचना की।
सभी गोप बाबा नंद से श्रीकृष्ण द्वारा की गई अनेक लीलाओं के बारे चर्चा करते हुए उनकी प्रशंशा करने लगे।
वरुण लोक से नंद जी को छुड़ा कर लाना
एक बार नंद जी ने कार्तिक शुक्ल एकादशी का उपवास किया। उसी रात द्वादशी लग जानी थी। इस लिए नंद जी ने असुरों की वेला में ही यमुना जी में स्नान कर लिया। इस पर वरुण का सेवक राक्षस नंद जी को उठाकर वरुण लोक ले गया। व्रज के सारे लोगों का रोना पीटना सुनकर श्रीकृष्ण जी वरुण लोक गए। वहां पर वरुण ने श्रीकृष्ण जी की स्तुति की और क्षमा याचना करते हुए बाबा नंद जी, श्रीकृष्ण को लौटा दिए। वापिस आकर बाबा नंद ने जब सारी बात बाकी सभी
को सुनाई तो सभी गोप कृष्ण जी को भगवान मानकर उनसे प्रार्थना करने लगे कि वो उन्हें अपने धाम के दर्शन करवाएं।
इस पर श्रीकृष्ण जी ने उन सभी को अपने धाम के दर्शन भी करवा दिए। सारे गोप भगवान के धाम के दर्शन करके मग्न हो गए।
जय श्री कृष्ण जी की
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