यदुवंश को ऋषियों का शाप
भगवान श्री कृष्ण जी ने श्री बलराम जी के साथ मिलकर बहुत से दैत्यों और अन्य पापी योद्धाओं का संहार कर दिया। कौरवों और पांडवों में भी शीघ्र मार काट मचाने वाला अत्यन्त प्रबल ' कलह ' उत्पन्न करके पृथ्वी का भार उतार दिया। श्री कृष्ण जी ने विचार किया कि बहुत सारे यदुवंशी भी अति उग्र स्वभाव के हैं। कल को वे भी पृथ्वी पर उत्पात करेंगे। भगवान ने ऋषियों के शाप के बहाने अपने ही कुल का संहार करवा दिया। सब को समेट कर अपने धाम में ले गए।
एक बार विश्वामित्र, असित, कण्व, दुर्वासा, भृगु, अंगिरा, कश्यप, वामदेव, अत्रि, वशिष्ठ और नारद आदि ऋषि द्वारिका के पास ही पिंडारक क्षेत्र में जाकर निवास करने लगे थे। एक दिन यदु वंश के कुछ उद्दंड बालक जांबवती नंदन सांब को स्त्री वेष में सजाकर उनके पास ले गए और कहने लगे कि, "यह सुंदरी गर्भवती है। हे महृषिओ आप हमें बताने की कृपा करें कि यह स्त्री कन्या को जन्म देगी या पुत्र को।" ब्राह्मणों ने क्रोधित होकर कहा कि मूर्खो यह एक ऐसा मूसल पैदा करेगी जो तुम्हारे कुल का नाश करने वाला होगा। ऋषियों का शाप सुन कर वे डर गए। वहां से तो वे चले गए परंतु जब पेट के कपड़े को खोल कर देखा तो एक मूसल ही निकला। उन्होंने राज्य सभा में जाकर सारी बात बताई। उग्रसेन ने बिना श्री कृष्ण जी से पूछे निर्णय ले लिया और आदेश दिया कि मूसल का चूरा बना कर समुद्र में डाल दिया जाए। मूसल का चूरा बना दिया। परंतु एक छोटा टुकड़ा बच गया। सारा चूरा बाकी बचे टुकड़े समेत समुद्र में फैंक दिया गया। वो चूरा तो समुद्र के किनारे लग गया। वही चूरा थोड़े दिनों में एरक ( बिना गांठ की एक घास) के रूप में उग आया। जो लोहे का टुकड़ा बचा था उसे एक मछली निगल गई। जरा नाम के एक व्याध ने इस मछली के पेट से निकले लोहे को अपने बाण की नोक पर लगा लिया। काल रूप धारी भगवान श्रीकृष्ण ने ऋषियों के इस शाप का अनुमोदन ही किया था।
उद्धव जी का बद्रिकाश्रम गमन
उद्धव जी श्रीकृष्ण जी के परम भक्त थे। उनको भगवान ने उपदेश देकर बद्रिकाश्रम भेज दिया। उद्धव जी के पूछने पर भगवान ने एक सच्चे भक्त के लक्षण इस तरह से बताए। श्री कृष्ण जी ने कहा," मेरे भक्त को चाहिए कि 1.अपने सारे कर्म मेरे लिए ही करे, मेरा स्मरण करता रहे। कुछ ही दिनों में उसका मन और चित्त मुझ में समर्पित हो जाएंगे। 2. मेरे प्रिय भक्तों के आचरण का अनुसरण करे। 3.मेरे महोत्सवों को मन से मनाए। 4. सब में मुझे ही देखे। 5. लोक लज्जा को छोड़ मेरा हो जाए। मेरे ऐसे भक्त के सारे संदेह अपने आप समाप्त हो जाते हैं। यही श्रेष्ठ साधन है। आत्म समर्पण से ही मैं प्राप्त हो जाता हूँ।
भगवान की बातों को सुनने के बाद उद्धव जी ने कहा, हे भगवान अब आप मुझे ऐसी आज्ञा प्रदान करें जिससे मेरी आपके चरण कमलों में अनन्य भक्ति बनी रहे। श्रीकृष्ण जी ने कहा कि अब तुम मेरी आज्ञा से बदरिक वन में चले जाओ। वह मेरा ही आश्रम है। वहां मेरे चरण कमलों के धोवन गंगा जल से स्नान पान करना। किसी भोग की इच्छा ना करना, अपने में मस्त रहना, मेरे स्वरूप के ज्ञान और अनुभव में डूबे रहना और भागवत धर्म के प्रेम में रम जाना। अंत में तुम तृगुण और उनसे संबंध रखने वाली हर गति को पार करके उनसे परे मेरे परमार्थ स्वरूप में मिल जाओगे। उद्धव जी ने भगवान की परिक्रमा की चरणों पर सिर को रक्खा और अश्रु धारा बहाते हुए विह्वल हो उठे। बारंबार प्रणाम करके और दिव्य छवि को धारण किए हुए बद्रिकाश्रम की ओर चल पड़े।
यदुकुल का संहार
भगवान ने सुधर्मा सभा में यदुवंशियों को कहा कि हमारे अनिष्ट के सूचक भयंकर उत्पात होने लगे हैं। अब हमें यहां दो घड़ी भी नहीं ठहरना चाहिए। स्त्रियां, बच्चे और बूढ़े यहां से शंखोद्वार क्षेत्र में चले जाएं, और हम लोग प्रभास क्षेत्र में चलें। वहां पूजा दान आदि करेंगे। श्री कृष्ण जी की बात सुन करके सभी ने वैसा ही किया जैसी श्रीकृष्ण की आज्ञा थी। प्रभास क्षेत्र पहुंच कर पूजा दान आदि किए गए परंतु भावी वश तभी उनकी बुद्धि दैव ने हर ली। वे सभी मैरेयक नामक मदिरा का पान करने लगे। वे एक दूसरे से लड़ने झगड़ने लगे। जब अस्त्र समाप्त हुए तो मूसल के चूरे से उत्पन्न एरक नामक घास जो हाथ में आते ही कठोर मुदगरों में परिणित हो गई थी से आपस में एक दूसरे पर वार करने लगे। इस तरह से आपस में लड़ते लड़ते सारे योद्धा एक दूसरे के हाथों मारे गए।
श्री बलराम जी ने अपने आप को आत्म स्वरूप में स्थित कर लिया और मनुष्य शरीर का त्याग कर दिया।
श्रीकृष्ण जी का स्वधाम गमन
श्रीकृष्ण जी चुप चाप पीपल के पेड़ के नीचे पृथ्वी पर बैठ गए और चतुर्भुज रूप धारण कर लिया। भगवान तब अग्नि के समान प्रकाशमान हो रहे थे। उनके भीतर से स्वर्ण के समान एक ज्योति निकल रही थी। दाहिनी जांघ पर बायां पांव रख कर बैठे हुए थे। उनका लाल तलवा रक्त के समान चमक रहा था। जरा नाम का एक बहेलिया था। उसने रगड़े हुए मूसल के बाकी बचे लोहे के टुकड़े से अपने बाण की गांसी बना ली थी। उस बहेलिए ने भगवान को हिरन समझ कर उस तीर से बींध दिया। परंतु जब वो उनके पास आया तो वह पूरी तरह से घबरा गया । वो सोच रहा था कि उसके हाथों यह बहुत बड़ा पाप हो गया है। परंतु भगवान ने उसको सांत्वना देते हुए कहा "तुम अपने आप को दोष ना दो क्योंकि यह सब कुछ मेरी ही आज्ञा से हुआ है।" भगवान ने उसको यह भी कह दिया कि वो अब स्वर्ग में जाकर निवास करे। उसने भगवान की परिक्रमा की और सीधा स्वर्ग को चला गया।
उधर से श्रीकृष्ण जी का सारथी दारुक भी आ पहुंचा। उसे भगवान ने कहा कि वो द्वारिका जाकर यहां जो कुछ घटा है वो और मेरे स्वधाम गमन की बात सब को सुना दे। द्वारिका समुद्र में डूब जाएगी। इस लिए तुम सभी को कहना कि वो मेरे माता पिता को साथ लेकर परिवार सहित अर्जुन के संरक्षण में इंद्रप्रस्थ चले जाएं। तुम भागवत धर्म का आश्रय लो और शांत हो जाओ। भगवान की आज्ञा का पालन करते हुए दारुक ने श्री कृष्ण जी की परिक्रमा की और प्रणाम करके द्वारिका को चला गया। उधर गरुड़ जी और सारे आयुध भी आकाश गमन कर गए।
भगवान का शरीर मनुष्य की तरह स्थूल शरीर नहीं होता है। केवल दिखाई ही वैसा पड़ता है। इस लिए भगवान सशरीर ही अपने धाम को चले गए। उनके साथ ही इस लोक से सत्य, धर्म, धैर्य, कीर्ति और श्रीदेवी भी चली गईं। भगवान को अपने धाम की ओर जाते हुए देख कर सभी देवता पुष्प वर्षा करने लगे।
जय श्री कृष्ण जी की
भगवान श्री कृष्ण जी ने श्री बलराम जी के साथ मिलकर बहुत से दैत्यों और अन्य पापी योद्धाओं का संहार कर दिया। कौरवों और पांडवों में भी शीघ्र मार काट मचाने वाला अत्यन्त प्रबल ' कलह ' उत्पन्न करके पृथ्वी का भार उतार दिया। श्री कृष्ण जी ने विचार किया कि बहुत सारे यदुवंशी भी अति उग्र स्वभाव के हैं। कल को वे भी पृथ्वी पर उत्पात करेंगे। भगवान ने ऋषियों के शाप के बहाने अपने ही कुल का संहार करवा दिया। सब को समेट कर अपने धाम में ले गए।
एक बार विश्वामित्र, असित, कण्व, दुर्वासा, भृगु, अंगिरा, कश्यप, वामदेव, अत्रि, वशिष्ठ और नारद आदि ऋषि द्वारिका के पास ही पिंडारक क्षेत्र में जाकर निवास करने लगे थे। एक दिन यदु वंश के कुछ उद्दंड बालक जांबवती नंदन सांब को स्त्री वेष में सजाकर उनके पास ले गए और कहने लगे कि, "यह सुंदरी गर्भवती है। हे महृषिओ आप हमें बताने की कृपा करें कि यह स्त्री कन्या को जन्म देगी या पुत्र को।" ब्राह्मणों ने क्रोधित होकर कहा कि मूर्खो यह एक ऐसा मूसल पैदा करेगी जो तुम्हारे कुल का नाश करने वाला होगा। ऋषियों का शाप सुन कर वे डर गए। वहां से तो वे चले गए परंतु जब पेट के कपड़े को खोल कर देखा तो एक मूसल ही निकला। उन्होंने राज्य सभा में जाकर सारी बात बताई। उग्रसेन ने बिना श्री कृष्ण जी से पूछे निर्णय ले लिया और आदेश दिया कि मूसल का चूरा बना कर समुद्र में डाल दिया जाए। मूसल का चूरा बना दिया। परंतु एक छोटा टुकड़ा बच गया। सारा चूरा बाकी बचे टुकड़े समेत समुद्र में फैंक दिया गया। वो चूरा तो समुद्र के किनारे लग गया। वही चूरा थोड़े दिनों में एरक ( बिना गांठ की एक घास) के रूप में उग आया। जो लोहे का टुकड़ा बचा था उसे एक मछली निगल गई। जरा नाम के एक व्याध ने इस मछली के पेट से निकले लोहे को अपने बाण की नोक पर लगा लिया। काल रूप धारी भगवान श्रीकृष्ण ने ऋषियों के इस शाप का अनुमोदन ही किया था।
उद्धव जी का बद्रिकाश्रम गमन
उद्धव जी श्रीकृष्ण जी के परम भक्त थे। उनको भगवान ने उपदेश देकर बद्रिकाश्रम भेज दिया। उद्धव जी के पूछने पर भगवान ने एक सच्चे भक्त के लक्षण इस तरह से बताए। श्री कृष्ण जी ने कहा," मेरे भक्त को चाहिए कि 1.अपने सारे कर्म मेरे लिए ही करे, मेरा स्मरण करता रहे। कुछ ही दिनों में उसका मन और चित्त मुझ में समर्पित हो जाएंगे। 2. मेरे प्रिय भक्तों के आचरण का अनुसरण करे। 3.मेरे महोत्सवों को मन से मनाए। 4. सब में मुझे ही देखे। 5. लोक लज्जा को छोड़ मेरा हो जाए। मेरे ऐसे भक्त के सारे संदेह अपने आप समाप्त हो जाते हैं। यही श्रेष्ठ साधन है। आत्म समर्पण से ही मैं प्राप्त हो जाता हूँ।
भगवान की बातों को सुनने के बाद उद्धव जी ने कहा, हे भगवान अब आप मुझे ऐसी आज्ञा प्रदान करें जिससे मेरी आपके चरण कमलों में अनन्य भक्ति बनी रहे। श्रीकृष्ण जी ने कहा कि अब तुम मेरी आज्ञा से बदरिक वन में चले जाओ। वह मेरा ही आश्रम है। वहां मेरे चरण कमलों के धोवन गंगा जल से स्नान पान करना। किसी भोग की इच्छा ना करना, अपने में मस्त रहना, मेरे स्वरूप के ज्ञान और अनुभव में डूबे रहना और भागवत धर्म के प्रेम में रम जाना। अंत में तुम तृगुण और उनसे संबंध रखने वाली हर गति को पार करके उनसे परे मेरे परमार्थ स्वरूप में मिल जाओगे। उद्धव जी ने भगवान की परिक्रमा की चरणों पर सिर को रक्खा और अश्रु धारा बहाते हुए विह्वल हो उठे। बारंबार प्रणाम करके और दिव्य छवि को धारण किए हुए बद्रिकाश्रम की ओर चल पड़े।
यदुकुल का संहार
भगवान ने सुधर्मा सभा में यदुवंशियों को कहा कि हमारे अनिष्ट के सूचक भयंकर उत्पात होने लगे हैं। अब हमें यहां दो घड़ी भी नहीं ठहरना चाहिए। स्त्रियां, बच्चे और बूढ़े यहां से शंखोद्वार क्षेत्र में चले जाएं, और हम लोग प्रभास क्षेत्र में चलें। वहां पूजा दान आदि करेंगे। श्री कृष्ण जी की बात सुन करके सभी ने वैसा ही किया जैसी श्रीकृष्ण की आज्ञा थी। प्रभास क्षेत्र पहुंच कर पूजा दान आदि किए गए परंतु भावी वश तभी उनकी बुद्धि दैव ने हर ली। वे सभी मैरेयक नामक मदिरा का पान करने लगे। वे एक दूसरे से लड़ने झगड़ने लगे। जब अस्त्र समाप्त हुए तो मूसल के चूरे से उत्पन्न एरक नामक घास जो हाथ में आते ही कठोर मुदगरों में परिणित हो गई थी से आपस में एक दूसरे पर वार करने लगे। इस तरह से आपस में लड़ते लड़ते सारे योद्धा एक दूसरे के हाथों मारे गए।
श्री बलराम जी ने अपने आप को आत्म स्वरूप में स्थित कर लिया और मनुष्य शरीर का त्याग कर दिया।
श्रीकृष्ण जी का स्वधाम गमन
श्रीकृष्ण जी चुप चाप पीपल के पेड़ के नीचे पृथ्वी पर बैठ गए और चतुर्भुज रूप धारण कर लिया। भगवान तब अग्नि के समान प्रकाशमान हो रहे थे। उनके भीतर से स्वर्ण के समान एक ज्योति निकल रही थी। दाहिनी जांघ पर बायां पांव रख कर बैठे हुए थे। उनका लाल तलवा रक्त के समान चमक रहा था। जरा नाम का एक बहेलिया था। उसने रगड़े हुए मूसल के बाकी बचे लोहे के टुकड़े से अपने बाण की गांसी बना ली थी। उस बहेलिए ने भगवान को हिरन समझ कर उस तीर से बींध दिया। परंतु जब वो उनके पास आया तो वह पूरी तरह से घबरा गया । वो सोच रहा था कि उसके हाथों यह बहुत बड़ा पाप हो गया है। परंतु भगवान ने उसको सांत्वना देते हुए कहा "तुम अपने आप को दोष ना दो क्योंकि यह सब कुछ मेरी ही आज्ञा से हुआ है।" भगवान ने उसको यह भी कह दिया कि वो अब स्वर्ग में जाकर निवास करे। उसने भगवान की परिक्रमा की और सीधा स्वर्ग को चला गया।
उधर से श्रीकृष्ण जी का सारथी दारुक भी आ पहुंचा। उसे भगवान ने कहा कि वो द्वारिका जाकर यहां जो कुछ घटा है वो और मेरे स्वधाम गमन की बात सब को सुना दे। द्वारिका समुद्र में डूब जाएगी। इस लिए तुम सभी को कहना कि वो मेरे माता पिता को साथ लेकर परिवार सहित अर्जुन के संरक्षण में इंद्रप्रस्थ चले जाएं। तुम भागवत धर्म का आश्रय लो और शांत हो जाओ। भगवान की आज्ञा का पालन करते हुए दारुक ने श्री कृष्ण जी की परिक्रमा की और प्रणाम करके द्वारिका को चला गया। उधर गरुड़ जी और सारे आयुध भी आकाश गमन कर गए।
भगवान का शरीर मनुष्य की तरह स्थूल शरीर नहीं होता है। केवल दिखाई ही वैसा पड़ता है। इस लिए भगवान सशरीर ही अपने धाम को चले गए। उनके साथ ही इस लोक से सत्य, धर्म, धैर्य, कीर्ति और श्रीदेवी भी चली गईं। भगवान को अपने धाम की ओर जाते हुए देख कर सभी देवता पुष्प वर्षा करने लगे।
जय श्री कृष्ण जी की
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें