शनिवार, 21 दिसंबर 2019

श्रीमद्भागवत महापुराण लेख संख्या 32(श्रीकृष्ण जी का मथुरा गमन और कंस वध)

                     अक्रूर जी की व्रज यात्रा
 श्री शुकदेव जी कहते हैं कि अक्रूर जी प्रात:काल होते ही रथ पर सवार होकर गोकुल की ओर चल पड़े। मार्ग में ही श्रीकृष्ण भक्ति में परिपूर्ण हो गए। सोचते हुए जा रहे हैं  कि  आज  मुझे सहज ही आंखों का फल  मिल  जाएगा।  श्रीकृष्ण  सबके  ही एक मात्र आश्रय हैं। कई प्रकार की कल्पनाएं करते  हुए  शाम होते होते वे नंदगांव पहुंच गए। श्रीकृष्ण और बलराम के दर्शन उन्हें गायों को दोहने के स्थान पर ही हो  गए।  दोनों  ने  अक्रूर जी को एक एक हाथ से पकड़ा और घर ले गए। अक्रूर जी का ख़ूब स्वागत सत्कार हुआ। आसन दिया गया। श्रीकृष्ण  जी  ने अपने चाचा के पैर दबाए।  बलराम  जी  द्वारा  सुगंधित  माला देकर स्वागत किया गया। नंद जी ने कुशल क्षेम पूछी।  यशोदा जी ने बढ़िया भोजन की व्यवस्था की। अक्रूर  जी  ने  वहां  का सारा कुशल क्षेम बताने के  बाद  अपने  आने  का  कारण  भी उनको बताया। कृष्ण को ले जाने की बात सुन कर यशोदा जी तो रोने लगीं और यह जानकर कि कृष्ण देवकी का पुत्र  है  वो मानने को तैयार नहीं थीं। उन्होंने कृष्ण को भेजने  से  बिल्कुल मना कर दिया। तब कृष्ण जी ने ही माता  को  कहा  कि  माता मुझे लोग यशोदा के पुत्र के रूप  में  ही  जानेंगे।  तुम  ही  मेरी माता हो। परंतु इस समय मेरा मथुरा  जाना अति आवश्यक हो गया है। इस लिए आप एक  बार  मुझे  और  दाऊ  भइया  को जाने की आज्ञा प्रदान करें। वहां तो हमें उत्सव देखने के उद्देश्य से बुलाया गया है। उधर नंद बाबा ने  सभी  ग्वालों  को  आदेश देकर बहुत सारी सामग्री  छकड़ों  पर  लादने  को  कहा  ताकि उत्सव के अवसर पर मथुरा लेजा कर कंस को भेंट  कर  सकें। कहा कि सभी लोग साथ चलेंगे। सामग्री भेंट करेंगे और उत्सव भी देखेंगे।
                          गोपियों की व्यथा
     गोपियों ने कहा," हे विधाता तुम सब विधान  तो  करते  हो परंतु तुम्हारे हृदय में दया लेश मात्र भी नहीं है।  पहले  तो  तुम प्रेम से जगत के प्राणियों को एक दूसरे के साथ जोड़  देते  हो। उन्हें आपस में एक  कर  देते  हो।  परंतु अभी उनकी  आशाएं अभिलाषाएं पुरी भी नहीं होती हैं  कि तुम उन्हें व्यर्थ ही अलग अलग कर देते हो। गोपियां कभी  अक्रूर  जी  को  कोसती  तो कभी  ग्वालों  को,  जो  मथुरा  जाने  की  तैयारी  कर  रहे  थे। गोपियां  विरह की संभावना से ही व्याकुल  होकर  रोने  लगीं।
                         श्रीकृष्ण मथुरा गमन
   यूं ही रात बीत गई। अक्रूर जी, श्रीकृष्ण और बलराम जी को लेकर रथ पर सवार हो गए। उन्होंने रथ को हांका  और  लेकर चल दिए। नंद बाबा आदि गोप भी  सामग्रियों  से  भरे  छकड़ों पर चढ़ कर उनके पीछे पीछे चल पड़े। कृष्ण जी  ने  देखा कि एक स्थान पर गोपियां खड़ी रो  रही  हैं।  श्री कृष्ण जी  ने एक दूत भेज कर यह संदेश उन  तक  पहुंचाया  कि  ," मैंआऊंगा" यह संदेश भेजकर उन्हें धीरज बंधाया। गोपियां खड़ी तो उधर ही रहीं परंतु अपना चित्त उन्होंने कान्हा के साथ ही भेज दिया था। वे निराश होकर वापिस लौट आईं और हर समय श्रीकृष्ण जी की लीलाओं का गान करती रहती थीं।
      इधर भगवान का रथ पाप नाशिनी यमुना  जी  के  किनारे जा पहुंचा। श्रीकृष्ण और बलराम हाथ मुंह धोकर फिर  से  रथ में सवार हो गए। श्री अक्रूर जी आज्ञा लेकर यमुना जी के  कुंड (अनन्त तीर्थ या ब्रमहृद)  पर आकर विधि पूर्वक  स्नान  करने के लिए डुबकी लगा कर  गायत्री  का  जाप  करने  लगे।  उसी समय उनको जल के भीतर ही दोनों भाई बैठे हुए दिखाई पड़े। जब अपना सिर पानी से बाहर निकाल कर देखा तो  वहां  रथ बैठे दिखाई दिए।  फिर  डुबकी  लगाई  तो  देखा  कि  साक्षात अनन्त देव श्री शेष जी और भगवान स्वयं विराजमान  हैं  और सिद्ध, चारण,  गंधर्व  एवं  असुर  अपने  अपने  सिर  झुकाकर उनकी स्तुति कर रहे हैं।  चतुर्भुज  के  साथ  ही  लक्ष्मी,  पुष्टि, सरस्वती,  कांति,  कीर्ति  और  तुष्टि  आदि  शक्तिआं  मूर्तिमान होकर उनकी सेवा कर रही हैं। पार्षद  स्तुति  कर  रहे  हैं।  इस तरह अक्रूर जी को परम भक्ति प्राप्त हो गई।  साहस  बटोरकर भगवान के चरणों में सिर रख कर प्रणाम किया और  धीरे धीरे गद गद स्वर से भगवान की  स्तुति  करने  लगे। जब अक्रूर जी बाहर  आए  तो  श्रीकृष्ण  जी को  कहने  लगे," हे प्रभु  पृथ्वी, जल, आकाश और सारे जगत में जितने भी अद्भुत पदार्थ हैं वे सब आप में ही हैं। क्योंकि आप ही विश्वरूप हो।" यह सुन कर दोनो भाई मुस्करा दिए। अक्रूर जी  को, कंस को  लेकर  कृष्ण जी के लिए जो डर था वो समाप्त हो गया।          
                   श्रीकृष्ण जी का मथुरा में प्रवेश
     अक्रूर जी रथ को लेकर आगे चल पड़े।  रास्ते  में  गांवों के लोग जब भगवान के आकर्षण  को  देखते  तो  देखते  ही  रह जाते। उनका रथ मथुरा पहुंचा। नंद जी अपने साथियों के साथ पहले ही पहुंच चुके थे। कृष्ण जी ने अक्रूर को  घर  भेज  दिया और स्वयं नगर देखने चल पड़े। नगर के लोगों  ने  उनके  और उनकी लीलाओं के बारे में बहुत सुन रखा था। वे उनको  नज़र भरकर देख लेना चाहते थे। चलते चलते रास्ते में एक धोबी के बुरे व्यव्हार की उसे सज़ा दी, और सुदामा माली ने भगवान की पूजा कर उनसे भक्ति और संपत्ति का वरदान पाया।
                           कुब्जा पर कृपा  
     आगे एक  औरत  जिसका नाम कूबड के कारण ' कुब्जा ' पड़ा हुआ था, हाथ में घिसे हुए चंदन के पात्र  को  लेकर  कंस को चंदन लेप करने के लिए जा रही थी। उस  पर  कृपा  करने के इरादे से भगवान ने उसको कहा," सुंदरी तुम कौन  हो और यह चंदन किसके लिए लेेजा रही हो? यह अंग राग हमें भी दे दो। इस दान से तुम्हारा परम कल्याण होगा।"
     उबटन लगाने वाली सैरंध्री (कुब्जा) ने कहा,"हे परम सुंदर, मैं कंस की दासी हूँ। मेरा नाम  त्रिवक्रा (कुब्जा) है।  उन्हें  मेरा बनाया अंगराग बहुत भाता है। परंतु आप दोनों से  उत्तम कोई और पात्र नहीं है। यह कहते हुए चंदन से भरा पात्र  कृष्ण  को दे दिया और अपना हृदय उन पर न्योछावर कर दिया।
      भगवान ने उस पर ऐसी कृपा करी कि उसका कूबड  एक दम सीधा हो गया और वो एक सुंदर स्त्री  बन गई।  उसी समय उसके मन में भगवान को घर  लेजाने  की  कामना  जागृत  हो उठी। श्रीकृष्ण ने कहा,"मैं आवश्य आऊंगा।" भगवान  ने  यह सिद्ध किया कि सुंदरता तन की नहीं मन की होती है।
                             धनुष भंग
      भगवान हर एक को संभलने का अवसर  देते  हैं।  उन्होंने धनुष भंग करके कंस को भी संदेश दिया था। परंतु कहते हैं ना कि " विनाश काले विपरीत बुद्धि।" उस मूढ़ की समझ में कुछ नहीं आया। रास्ता पूछते हुए दोनों भाई रंग शाला में पहुंच गए। भीतर जाकर धनुष  को  देखा,  उठाया,  डोरी  बांधने  के लिए डोरी खींची और रक्षकों के रोकते  रोकते  ही उसके  दो  टुकड़े कर दिए। ' मारो मारो ' कहते हुए सभी रक्षक  उस  ओर  दौड़े परंतु भगवान ने उस टूटे हुए धनुष से ही उन सब  को  परलोक पहुंचा दिया।  कोशिश तो  कंस को चेतावनी  देने की थी  परंतु मूढ़ और डरा  हुए  व्यक्ति  कहां  समझ  पाता  है।  उसने और सिपाही भेजे जो कि वहां पहुंचते ही दोनों भाइयों के हाथों मारे गए। उस रात बलराम और कृष्ण  वापिस उधर  ही  पहुंच  गए जहां नंद आदि ग्वालों ने डेरा डाल रक्खा था।
                    दंगल महोत्सव की तैयारी
     कंस छोटे राजाओं के  मध्य  एक  ऊंचे  आसन  पर जाकर बैठ गया। वह भीतर से  श्रीकृष्ण  की  लीलाओं  को  सुन  कर बहुत डरा हुआ था। वह चाहे शत्रुता  और  भय  के  कारण  ही सही, हर समय केवल और केवल श्रीकृष्ण का ही  चिंतन  कर रहा था। रंग भूमि को ख़ूब सजाया गया था। नागरिकों के बैठने के  लिए  विशेष  प्रबंध किए गए थे। उधर चाणूर, मुष्टिक, कूट, शल  और  तोषल  आदि  प्रधान  प्रधान पहलवान  संगीत  की समधुर ध्वनि से उत्साहित होकर  अखाड़े में आकर  बैठ  गए। नंद आदि गोपों ने वहां आकर  कंस को  उपहार  भेंट करने  के उपरांत अपना अपना स्थान ग्रहण किया।
                    कुवल्यापीड का उद्धार और
                           अखाड़े में प्रवेश
     श्रीकृष्ण जी और बलराम जी भी दंगल के अनुरूप  नगाड़े की ध्वनि सुनकर  रंग  भूमि  देखने  के लिए चल पड़े। दरवाजे पर महावत  कुवल्यापीड़  नामक  हाथी  को  लेकर  खडा था। श्रीकृष्ण के रास्ता मांगने पर उल्टा उसने हाथी को ही  उन  पर छोड़ दिया। भगवान ने अपने पैरों से ही उस  हाथी  को  कुचल दिया। उसके दांत उखाड़ कर पहले तो उस  महावत  को  मारा और बाद में उन्हीं दांतों को दोनों ने अपने अपने कंधों पर अस्त्र की तरह सुशोभित करके अखाड़े में प्रवेश किया।  उनके  मुख पर पसीना और बदन पर रक्त और मद की बूंदें थीं। उस  समय प्रभु श्रीकृष्ण की झांकी देखने वाली थी।  वे  दोनों  किसी  को बालक तो किसी को योद्धा, किसी को मित्र तो  किसी  को शत्रु और किसी को भगवान दिखाई दे रहे थे। इसी लिए कहा है कि जा की रही भावना जैसी, प्रभु मूरती देखी तिन तैसी।
     आते ही चाणूर ने कहा कि आप लोग कुश्ती में निपुन्न  हो। इस लिए महाराज कंस की इच्छा है कि तुम हमारे  पहलवानों से  कुश्ती करो। श्रीकृष्ण ने कहा कि हम तो बालक हैं। हमारी कुश्ती भी बालकों से होनी चाहिए।  चाणूर ने  कहा  नहीं, तुम बालक नहीं हो। अभी अभी तुमने हाथी को मारा है। इस लिए तुम्हें पहलवानों से ही कुश्ती करनी होगी।
              कंस और उसके पहलवानों का वध
     वहां पर बैठे सभी नागरिक इस अन्याय पर विचार  कर रहे थे। परंतु बोलने की किसी की हिम्मत ना थी। कंस  किसी  की सुनने को तैयार भी कहां था। श्रीकृष्ण जी की कुश्ती चाणूर से और बलराम जी की मुष्टिक से हुई। वज्र से कठोर दोनों भाइयों के शरीरों से रगड़ने के कारण चाणूर और मुष्टिक दोनों की रग रग ढीली पड़ गई। कुछ ही पलों में वे ढ़ेर हो गए और मारे गए। इसी तरह बाकी के पहलवान भी मारे गए। उसके बाद भगवान ने अपने ग्वालों के साथ कुश्ती का  खेल  खेलना  शुरू  किया। सभी नाच नाच कर आनन्द से कुश्ती खेल रहे थे। सभी दर्शक इस खेल का आनंद ले रहे  थे  परन्तु  कंस  यह  सब  देख कर आग बबूला हो गया। उसने चिढ़ते हुए संगीत को बंद करने कि आज्ञा दी और अपने सिपाहियों को यह  भी  आदेश  दिया  कि इनको नगर से बाहर निकाल दो, ग्वालों का सारा धन छीन लो, नंद को कैद कर लो, वसुदेव और  मेरे  पिता  उग्रसेन  को  मार डालो।
     इतना सुनते ही श्रीकृष्ण कुपित होकर वेग पूर्वक उछलकर उसके मंच की ओर बढ़े। कंस ने संभलते  हुए  अपनी  तलवार को उठाया। इससे पूर्व  की  वो  भगवान  पर आक्रमण  करता, श्रीकृष्ण ने उसे बलपूर्वक पकड़ा  और  उसका  मुकुट  दूर  जा गिरा। प्रभु श्रीकृष्ण ने उसको बालों से पकड़ा और पूरे ज़ोर से नीचे भूमि पर पटक दिया। और स्वयं वहीं से उछल कर उसकी छाती पर ऐसा कूदे कि एक ही झटके  में  उसके  प्राण  निकल गए। मरते समय भी कंस का पूरा चिंतन कृष्ण  पर ही  केन्द्रित था। इसलिए उसका उद्धार हुआ। उसके आठ भाई थे  जिन्होंने बदला लेने के लिए प्रयत्न किया किन्तु मारे गए।
     उस समय आकाश में नगाड़े  बजने  लगे।  भगवान  शंकर जी, ब्रह्मा जी,  और  देवता  पुष्प  वर्षा  करने  लगे।  अप्सराएं नाचने लगीं। श्री कृष्ण  जी  ने  अपने  माता,  पिता  एवं  नाना उग्रसेन जी को स्वतंत्र करवाया।  अपनी  योग  माया  के  द्वारा भगवान ने अपना भगवद्भाव छिपा लिया और तीनों की  चरण वंदना की। नाना उग्रसेन को फिर से राजा  बनाया।  बाबा  नंद और ग्वालों को  समझा  बुझाकर  कि  अभी  बहुत  सारे  कार्य बाकी है इस लिए मेरा यहां रहना  बहुत  आवश्यक  है, अनेकों प्रकार के उपहार देकर व्रज में वापिस भेजा।
                     जय श्रीकृष्ण जी की

     

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